अधीर रहकर बुर्के में बंद रहीं, फिर भी छिपकर बनाई पहचान, आज है एक सफल लेखिका ,आर.जे

शादी के बाद तोड़ी रूढ़िवादी सोच, कहानियां वायरल होने के बाद, दुनिया ने दी एक नई पहचान, अपनो ने दिया सम्मान

रूढ़िवादी हर दीवार को तोड़ आगे बढ़ी सबाहत आफरीन

ऐश्वर्य उपाध्याय दैनिक इंडिया न्यूज लखनऊ। एक लड़की उस परिवार में जन्मी, जहां किसी को वह दिखाई नहीं देती थी, न तो उसका कान और न ही उसकी आँखें किसी को दिखाई देती थीं। जब उसने 8वीं कक्षा में पढ़ना शुरू किया, तो वह पर्दे में ही रहने लगी। उसे कॉलेज जाने की अनुमति नही मिली। वह अपने गहनों से सजी रहती थी, लेकिन अपने अस्तित्व की तलाश में और अपने सपनों को पूरा करने के लिए वह बेचैन थी। फिर उसने अपनी ज़िंदगी का उद्देश्य खोजा।

साल 2017 में, जब एक्टर आमिर खान की फिल्म ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ रिलीज़ हुई, वह अपनी पहचान को छिपाकर दुनिया को अपनी प्रतिभा से परिचित करवाए, जैसे इंसिया मलिक की तरह। इसके बाद, वह देशभर के पत्रिकाओं से लेकर ऐप्स की ऑडियो सीरीज के लिए कहानियाँ और किताबें लिखना शुरू कर दी। जिस रूढ़िवादिता परिवेश में वे रही उससे निकलकर, अपनी बेटियों को गांव की गलियों से निकालकर लखनऊ जैसे बड़े शहरों में उन्हें खुले आसमान में जीने और बढ़ने का मौका दिया। समय बीतता गया और वो आगे बढ़ती ही गयी और वे लोग भी, जो पहले उनका विरोध करते थे, आज उन पर गर्व करते हैं।

ये मैं हूँ…..

मैं उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले के एक छोटे से गांव में पली बढ़ी। मेरे पिता एडवोकेट थे और माँ एक हाउसवाइफ थीं। हमारे परिवार के सदस्य सभी बहुत पढ़े-लिखे थे। माता-पिता दोनों ही जमींदार परिवारों से संबंध रखते थे। हालांकि, हमारे पढ़े-लिखे संपन्न परिवार में भी, महिलाओं की स्थिति ठीक नहीं थी।सामाजिक दबाव हमेशा से परिवार पर असर डालता रहा है। महिलाएँ हमेशा पर्दे में रहती थीं।

मैं बहुत मुश्किलों से भरी 12-13 साल की उम्र में थी, जब मेरे लिए एक बड़ी काली चादर (यानी बुर्का) मेरा पर्दा बन गई। 10वीं कक्षा तक आते-आते मैंने बुर्का भी पहनना शुरू कर दिया। ऐसे रूढ़िवादी परिवेश और माहौल में किसी को भी मेरे नाखून तक देखने का अवसर नहीं मिलता था। मैं अपने तीनों भाइयों की एकमात्र बहन हूं। लेकिन, बिना भाई और पिता के इजाज़त के बिना मैं अकेले बाहर तक नहीं जा सकती थी। कजन और दर्जी तक के सामने जाने की अनुमति मुझे नहीं मिलती थी।

मैं जिस समाज का हिस्सा हूँ, वहां लड़कों के लिए नई चीजें खोजना और कुछ भी करने का समर्थन मिलता है, लेकिन महिलाओं को बंद कमरे में पूरी जिंदगी बिताना उसको सराहा जाता है, जैसे कि यही बेहतर होता है। लड़कियों को भी सिर्फ इसलिएपढ़ाया-लिखाया जाता है, ताकि उनकी शादी अच्छे परिवार में हो सके। ऐसे परिवेश में उन्हें पढ़ा-लिखा होकर नौकरी करने की सोच भी नहीं सकती हैं।

ऐसी स्थितियों में मैंने अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई प्राइवेट फॉर्म को भरकर की थी, क्योंकि मुझे रेगुलर कॉलेज में को-एजुकेशन में पढ़ाई करने की इजाज़त नहीं मिली थी। जिस कारण मैंने अपने घर पर ही रहकर B.A-M.A की पढ़ाई पूरी की। आपको बता दूं मैंने कभी कॉलेज और क्लासरूम की शक्ल तक नहीं देखी। मुझे नहीं पता कि TEACHER और PROFESSOR कैसे लेक्चर देते हैं और वे नोट्स कैसे बनाते हैं।

इसी दौरान मेरी कुछ सहेलियां गोरखपुर में पढ़ाई के लिए गईं थी। मैं भी उनके साथ पढ़ने जाना चाहती थी लेकिन यह मेरे नसीब में था कहा। मैंने परिवार वालों से जैसे-तैसे पूछा भी तो मुझे जाने के लिए सख्त तौर पर मना कर दिया गया कि मुझे घर से दूर नहीं भेज सकते हैं। क्योंकि मैं अब बड़ी हो गयी हूँ और परिवारीजनों को मेरी शादी करनी है और अगर कुछ भी थोड़ा सा ऊँच-नीच हो गया, तो समाज के लोग मेरे बारे में बातें बनाएंगे और कीचड़ उछालेंगे। जिसके बाद मैंने ठान लिया कि मैं अब पढ़ाई करूँगी। इसलिये मैं उसके बाद दिन-रात पढ़ती रही। प्रतियोगी परीक्षा मेरे भाई लाने के लिए जाते हैं और वहीं से घर लाते भी थे। उन्हें मेरी सुरक्षा के बारे में हमेशा डर लगता रहता था।

रसूखदार परिवार में शादी हो गई, लेकिन आलीशान जीवन में रस नहीं था

अब्बू के निधन के बाद मेरी निकाह की तैयारियाँ शुरू हो गईं। सबको लगता है कि बेटी के ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, शादी के बाद सभी काम निपटा लो। लेकिन मैं नौकरी करना चाहती थी, लेकिन परिवार में किसी को शादी से इंकार करते हुए नहीं देखा गया था।

अंततः मेरी एक सम्मानित परिवार में शादी हो गई। मेरे ससुर विधायक और मंत्री रह चुके थे। यह परिवार 200-250 लोगों का था। हर काम के लिए नौकर-चाकर मौजूद थे। बस महंगे कपड़े और जेवर पहनो, अच्छा खाओ और बिस्तर पर आराम करो। लेकिन मुझे ऐसी बेपरवाह जीवनशैली नहीं चाहीए थी, जहां पति घूमे और तोहफे बांटते रहें। मैंने अपनी 25-26 साल की उम्र में ही दो बच्चों की मां बन गई। मेरी सास और ननद ने मुझे बहुत सहयोग दिया। उन्होंने ही मेरे बच्चों की परवरिश की।

पहचान खो गई, ऐसा लगता, कि जीवन का अंत हो गया

जब मेरी बेटियां बड़ी हो गईं, तब मुझे सोचने का मौका मिला कि क्या मेरी जिंदगी का अभिप्रेत यही है। मन ही मन परेशान होने लगी। मुझे ऐसा लगता था कि मेरा अस्तित्व, मेरी पहचान कहीं खो गई है। पहले मैं बेटी थी, फिर बहन बन गई। उसके बाद मुझे बहू की पहचान मिली और अब मैं ‘मंतशा’ की माँ बन गई हूँ। मैं खुद से पूछती थी कि क्या मेरा नाम ‘सबाहत’ है। सबाहत का अर्थ होता है सुबह की ताजगी, खूबसूरती। लेकिन, मुझे नहीं पता था कि मेरी जिंदगी की ताजगी और खूबसूरती कहां छूट गई है।

अक्सर मैं अपने कमरे में चुपचाप रोया करती थी जिस कारण मैं डिप्रेशन का शिकार हो चुकी थी। परिवार के लोग पूछते थे कि सब कुछ है तो फिर तुम्हे क्या चाहिए। “चलो और गहने ले लो, डिजाइनर झुमके ले लो।” परिवार और मेरे समाज के लोगों को यही लगता था और है कि गरीबी ही सबसे बड़ी परेशानी है। लेकिन, खासकर मुस्लिम औरतों की जिंदगी में और भी बहुत सी मुसीबतें होती हैं। हमारे पास अपने मन की कुछ करने की आजादी नहीं होती।

लेकिन मैं इन सभी परिस्थितियों के आगे घुटने न टेकि और अपनी पहचान को और अपने नाम से महसूस करने की तड़प ने ही मुझे हिम्मत दी। फिर मैं उस राह पर चली, जो मेरी बेटियों के लिए भी एक खुला आसमान था।

चुपचाप फेसबुक पर खाता बनाया, और कहानियों की वायरल होना शुरू हुआ

आपको बता दूं मेरी अम्मी को पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था। मेरे ऊपर भी उनका असर पड़ा। मैं बचपन से कविताएं-कहानियां लिखती रही हूँ। अम्मी-अब्बू हमेशा से मुझे प्रोत्साहित करते थे। यह अलग बात है कि मेरी रचनाएं कभी छापने के लिए नहीं भेजी जाती थीं। अख़बार में बेटियों की फ़ोटो छापना अच्छी बात नहीं मानी जाती थी। ससुराल में मुझे थोड़ा प्रोग्रेसिव माहौल मिला। मेरे ससुर जानते थे कि मैं लिखती हूँ, इसलिए वे मुझे डायरी और पेन उपहार में देते थे। पति भी मेरा समर्थन करते थे।

निकाह के बाद मैंने चुपचाप से फेसबुक पर खाता बनाया, लेकिन डीपी में अपनी फ़ोटो नहीं लगा सकती थी। इसलिए फेसबुक पर ही कहानियाँ लिखनी शुरू कीं, जो पोस्ट होने लगीं। किसी ने कहा कि आप लेखक, पटकथा लेखक नीलेश मिश्रा को अपनी कहानियाँ भेजें। उस समय उनकी किस्सागोई बहुत प्रसिद्ध थी। मैंने उन्हें अपनी कहानी ईमेल की, जो उन्हें वाकई बहुत ही पसंद आई। फिर मैं उनकी मंडली का हिस्सा बन गई।

पर्दा छोड़ा, सोशल मीडिया पर फ़ोटो साझा हुईं,यह बात परिवार को रास नहीं आई

मैंने अपने जुनून की उंगली पकड़ी, और फिर तन्मयता, तल्लीनता के साथ लिखना शुरू किया। मेरी पहली खुद की कमाई के रूप में मुझे 30 हजार रुपए मिले। जैसे ही मैंने अपनी पहली कमाई प्राप्त की, मेरी उड़ान भरने की शुरुआत हो गई। मेरे फैसलों के लिए मुझे साहस मिला।

हालांकि, चुनौतियाँ अभी भी बाकी थीं। प्रत्येक कहानी के साथ मेरी फोटो सोशल मीडिया पर साझा की जाती थी। मायके वालों को चिंता हुई कि जो बेटी पर्दे में रहती थी, वही आज सोशल मीडिया पर घूम रही है। लोग सोचते हैं कि इज्जतदार परिवार की बेटी की तस्वीर कोई क्यों देखेगा। यह एक शर्मनाक बात है। समाज की बेतुके दबावटों के कारण, लड़कियों को कितने ही प्रतिबंधों से घिरा हुआ महसूस कराया जाता है।

सम्मान प्राप्त करने के बाद, सभी का नजरिया बदलने लगा

जब मुझे अपने लेख हेतु सम्मानित किया जाने लगा, तब फिर परिवारीजन, समाज के लोगों का दृष्टिकोण बदल गया। भोपाल से लेकर जयपुर तक मेरी बुलावे की प्राथमिकता हो गई। मेरे बारे में अखबारों में छपने लगा। मेरी पुस्तक “मुझे जुगनुओं के देश जाना है” प्रकाशित हुई, जो बेस्ट सेलर बन गई। इससे घरवालों को लगा कि उनकी बेटी ने उनका सम्मान बढ़ाया है। जब कोई घर में आता, तो उन्होंने मेरा परिचय दिलाया कि मेरी कहानियां रेडियो पर प्रसारित होती हैं।

मैंने न तो अपने परिवार को छोड़ा, न उनसे झगड़ी। मैंने उन्हें अपने तर्क पेश किए और अपने फैसले पर अड़ी रही। धीरे-धीरे उन्होंने मेरी बात को समझना शुरू किया। क्योंकि मुझे यह पता था कि परिवार के सपोर्ट के बिना जीवन कठिन हो जाता है। चाहे वह भाई हों, मां या पति, उनके बिना जीवन अधूरा होता है। अब मेरे परिवार के साथ और मेरे जुनून की बदौलत मुझे आकाशवाणी में भी आर.जे के रूप में काम करने का मौका मिला है।

बेटियों के लिए पकड़ा डुमरियागंज से लखनऊ की राह

मुझे पता था कि बेटियों को भी गांव में ही रहकर पढ़ा-लिखा कर उनकी शादी कर दी जाएगी, जब मैंने अपना मुकाम हासिल कर लिया। तब मैंने भी निर्णय लिया कि लखनऊ जाकर रहूंगी और अपनी बेटियों को पढ़ाऊंगी, ताकि वे भी अधूरे सपनों को पूरा करके अपने जीवन को सार्थक बनाये। उस समय मैंने तय किया कि मैं लखनऊ जाकर रहूँगी और अपनी बेटियों को पढ़ाऊंगी।

इस काम में कठिनाई थी। मेरे पति गांव में एक शिक्षक हैं, इसलिए हम साथ में लखनऊ नहीं जा सकते थे और मैं बहू के रूप में अकेले लखनऊ में रहने का फैसला किया, जिसे लोगों को पसंद नहीं आया। फिर मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि यह फैसला हमारी बेटियों के भविष्य के लिए अच्छा है। मेरे ससुर ने भी सहयोग किया और अंत में मैंने सभी को मना लिया।

मैंने कभी भाई के बिना बाजार तक कदाचित नहीं गई थी, लेकिन जब लोग मुझे मेरे नाम से पहचानने लगे, तो यह मेरे अंदर आत्मविश्वास की भरपूरता देने लगी कि मैं बेटियों के साथ बड़े शहर में रह सकती हूँ। अगले ही दिन मैं लखनऊ पहुंच गई। एक फ्लैट किराए पर लिया और अकेले ही सबकुछ संभालने लगी। बेटियों को एक अच्छे स्कूल में दाखिला करवाया।

विरोध के बावजूद, कार चलाना सीखा, सड़क तक पहुंचना कठिनाईयों से था भरा

एक समय था जब रोड पार करना भी था मुश्किल भरा, आखिरकार विरोध के बावजूद हिम्मत ने कार चलाना सिखा डाला

आफिस आने-जाने में काफी समस्याएं थीं, इसलिए मैंने अपने घर से कार मंगवाई। मेरे परिवार में किसी लड़की ने कभी कार नहीं चलाई थी और मुझे भी इसे मना किया गया। लेकिन मैंने ड्राइविंग सीखी। इसी वक्त 2021 कोरोना महामारी में लॉक डाउन के वक़्त मैंने कार ड्राइविंग भी सीखी, धीरे-धीरे मेरे आत्मविश्वाश ने मुझे आगे बढ़ाया और समाज और परिवार में सम्मान भी दिलाया। अब मैं स्वयं कार चलाते हुए बेटियों को साथ लेकर घर से निकलती हूं। चाहे गांव से कोई आये, तब भी मैं ही ड्राइविंग सीट पर बैठती हूं। मैं वही लड़की हूं, जो पहले लखनऊ आने पर सड़क पार नहीं कर पाती थी।

मेरी दोनों बेटियों के साथ मुझे अच्छी दोस्ती है। हम तीनों में बहुत मेल खाती है। जब मैं खुद को देखती हूं, तो मुझे यह सोच में पड़ता है कि मैं वही हूं, जो बचपन में नकाब लगाकर बाहर जाती थी। अगर मैंने कोई कदम नहीं उठाया होता, तो आज मेरी बेटियों के लिए भी वही हालत होती। लेकिन अब मुझे पूर्णविश्वास है कि बेटिया मेरी गायन, नृत्य जिस क्षेत्र में भी जाने की इच्छा रखती है वह सब सीखेंगी। वह मेरी से भी अच्छी तरह अपने पंखों को उड़ान देते हुए अच्छा पढ़ेंगी, लिखेंगी, अफसर बनेंगी, अपने सपने को साकार करेंगी, देश का नाम रौशन करेंगी क्योंकि वे मेरी प्यारी बेटियां जो हैं।

सबाहत आफरीन, जो लखनऊ से हैं, लंबे समय से कहानियां लिख रही हैं। उनकी कहानियां चर्चित शो “बिग एफ एम” में नीलेश मिश्रा के साथ “यादों का इडियट बॉक्स” के रूप में सुनाई गईं। इसके अलावा, प्रभात ख़बर, स्त्रीकाल, सुख़नवर और वनमाली जैसी कई पत्रिकाओं में उनकी कहानियां छपी हैं, साथ ही हिन्दगी और अन्य ऑनलाइन पोर्टल पर भी उनकी कहानियां प्रकाशित हुई हैं।

उनके हालिया उपन्यास का नाम “मुझे जुगनुओं के देश जाना है” है। उसके अलावा, सबाहत का और एक संग्रह “मृगतृष्णा” उनके पाठकों के बीच उपलब्ध है।

इसके अलावा शिक्षा के जरिए चार मुस्लिम महिलाएं अनेक महत्वपूर्ण मुकाम हासिल कर चुकी हैं, जिनकी आज दुनियाभर में पहचान है। आइए आज हम उन चार लेखिकाओं के बारे में बात करें, जिन्होंने अपनी मजबूत उपस्थिति को लेखक के रूप में अपने को साबित किया है।

पहली लेखिका का नाम मेहरून्निसा परवेज है। उनकी कहानियां धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सारिका आदि राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। कुछ कहानियां मध्य प्रदेश, दिल्ली, आगरा, केरल के शिक्षा मंडल विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल की गई हैं।

अधिकांश रचनाएं भारतीय भाषाओं में अनुवादित की गई हैं। 1982-83 में उनके उपन्यास ‘उसका घर’, ‘आंखों की देहलीज’ कन्नड़ भाषा में प्रकाशित हुई हैं। पंजाब, मेरठ, जयपुर विश्वविद्यालयों में उनकी रचनाओं पर शोध कार्य हुआ है और कई रचनाओं पर टीवी सीरीज़ भी बनी हैं। 2005 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है।

नासिरा शर्मा हिंदी की प्रमुख लेखिका हैं, जिन्होंने सृजनात्मक लेखन के साथ-साथ स्वतंत्र पत्रकारिता में भी एक उल्लेखनीय योगदान दिया है। उन्हें ईरानी समाज और राजनीति के अलावा साहित्य, कला और सांस्कृतिक विषयों की विशेषज्ञता है।

नासिरा शर्मा को साहित्य अकादमी पुरस्कार 2016 के लिए उनके उपन्यास “पारिजात” को प्रदान किया गया था। उन्हें वर्ष 2019 के व्यास सम्मान का सम्मान उनके उपन्यास “कागज की नाव” के लिए मिला। अब तक उन्होंने दस उपन्यास, छह कहानी संकलन, तीन लेख संकलन, सात पुस्तकों के फ़ारसी से अनुवाद, “सारिका”, “पुनश्च” का ईरानी क्रांति विशेषांक, “वर्तमान साहित्य” के महिला लेखन अंक और “क्षितिजपार” के नाम से राजस्थानी लेखकों की कहानियों का सम्पादन किया है।

इसके अलावा तसनीम खान हिंदी की युवा पीढ़ी में एक अलग पहचान रखने वाली लेखिका हैं। ‘ऐ मेरे रहनुमा’ उनका उपन्यास है जो काफी चर्चित हुआ है और इसे स्त्री विमर्श में युवा लेखन की मिसाल के रूप में भी प्रशंसा की जा रही है।

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