
राष्ट्रीय सनातन महासंघ अनुसंधान संकाय
लखनऊ, 27 मई 2025) भारतीय संस्कृति में यज्ञ और हवन केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, अपितु ब्रह्मांडीय ऊर्जा के संतुलन और आत्मिक शुद्धिकरण का महा वैदिक विज्ञान है। वेदों में वर्णित यज्ञ-कर्म का उद्देश्य दैविक शक्तियों को संतुष्ट कर जीवन में संतुलन और कल्याण की स्थापना करना है। किन्तु इस शक्ति-साधना में कुछ शास्त्रीय विधानों का पालन अत्यंत आवश्यक है, जिनमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण विधान है ‘अग्निवास का विचार’।
अग्निवास का अर्थ है उस स्थान विशेष की जानकारी, जहां उस दिन अग्नि का स्थापन वर्जित माना गया हो। शास्त्रें के अनुसार, अग्नि का वास प्रतिदिन पृथ्वी, पाताल या आकाश इन तीन स्थानों मं् से किसी एक में ही माना गया है। ‘यजुर्वेद’ और ‘कात्यायन श्रौतसूत्र’ जैसे ग्रंथों में निर्देश है कि यदि अग्निवास दोषयुक्त हो, तो आहुति और देवताओं के बीच सम्यक् संपर्क नहीं बनता, जिससे नकारात्मक फल प्राप्त होते हैं। शास्त्रें में वर्णन है –
“यत्राग्निः तत्र देवाः, यत्र दोषोऽग्निसंस्थिते।
तत्र न श्रेयसं किंचित्, तत्र हानिर्भविष्यति॥”
अर्थात जहाँ अग्नि होती है वहाँ देवता निवास करते हैं, लेकिन यदि अग्नि दोषयुक्त स्थान पर हो, तो वहाँ पुण्य नहीं, बल्कि हानि होती है।
ऐसे में उस मुहूर्त पर अग्नि का वास पृथ्वी पर होने से ही वह यज्ञ हेतु श्रेष्ठ और उत्तम फलदायी हो पाता है। जबकि पातालवासी अग्नि रोग, मानसिक कष्ट और पितृदोष उत्पन्न कर सकती है। वहीं अग्नि आकाशवासी होने के कारण आहुतियाँ देवताओं तक नहीं पहुंचती और अनुष्ठान निष्फल माना जाता है। महाभारत के अश्वमेध पर्व में उल्लेऽ है कि जब युधिष्ठिर ने यज्ञ की योजना बनाई, तो श्रीकृष्ण ने यज्ञ से पूर्व अग्निवास की गणना कर ब्राह्मणों को निर्देशित किया कि शुभता आने तक अग्नि की स्थापना न की जाए। क्योंकि इससे शुभ परिणाम की सम्भावना नहीं बन रही थी।
अग्नि भगवान की पत्नी हैं देवी स्वाहा, जिनका नाम हर आहुति के अंत में लिया जाता है। स्वाहा का कार्य है आहुतियों को देवताओं तक पहुंचाना। स्वाहा पृथ्वी पर स्थित होने पर ही यज्ञ-हवन सफल होता है। जबकि निर्धारित मुहूर्त पर देवी स्वाहा के पाताल या आकाश में होने पर देवताओं तक संपर्क नहीं बनता।
राष्ट्रीय सनातन महासंघ के शोधकर्ताओं ने पिछले कुछ वर्षों में अपने अनुसंधान के दौरान पाया कि जिन घरों, संस्थानों या आयोजनों में अग्निवास की उपेक्षा कर हवन किए गए, वहां बाद में मानसिक अशांति, आर्थिक संकट, पारिवारिक तनाव जैसी समस्याएं उत्पन्न हुईं। इसके विपरीत, जहां शास्त्रीय रूप से अग्निवास का विचार कर हवन संपन्न हुए, वहां सकारात्मक परिणाम सामने आए। यह शोध अनुभव केवल एक धार्मिक मान्यता नहीं, बल्कि ऊर्जा संतुलन के गहरे विज्ञान को रेऽांकित करता है।
साधकों-याजकों को इसी क्रम में यह भी जानना आवश्यक है कि सभी अनुष्ठानों में अग्निवास का विचार अनिवार्य नहीं होता। जैसे-नवरात्रि, दुर्गा सप्तशती हवन, विवाह आदि विशेष दैेविक अनुष्ठानों में अग्निवास बाधक नहीं माना जाता, क्योंकि इन अवसरों पर देवी/देवताओं का आ“वान साक्षात स्वरूप में होता है, और उनकी कृपा से अग्निवास का प्रभाव स्वतः निष्क्रिय हो जाता है।
अतः आज आवश्यकता है कि श्रद्धालु केवल परंपरा पर नहीं, शास्त्रीय विवेक पर आधारित होकर यज्ञादि कार्य सम्पन्न करें। यदि हवन या यज्ञ गृह शांति, वास्तु निवारण, पितृ कार्य अथवा सार्वजनिक कल्याण हेतु किया जा रहा हो, तो अग्निवास, मुहूर्त व दिशा का ध्यान रखना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
स्मरण रहे — “शास्त्रविहितं कर्म श्रद्धया सह यः करोति, स एव मोक्षमाप्नोति।”
अर्थात् जो व्यक्ति शास्त्र और श्रद्धा — दोनों के अनुसार कर्म करता है, वही शुभ परिणाम प्राप्त करने, कल्याण और मोक्ष की प्राप्ति का अधिकारी हो सकता है। इसलिए स्वजन जब भी हवन-यज्ञ आदि करें, अग्निवास का विचार अवश्य करें। इस एक विचार मात्र से याजक के लिए सच्चे पुण्य और आध्यात्मिक उन्नति के द्वार सहज ही खुल सकते हैं।