“इतिहास में दर्ज होगी ये साजिश: भगवा आतंक का झूठा प्रपंच, 17 साल बाद सामने आया सच!”

“हिन्दू आतंक नहीं, न्याय का कत्ल था मालेगांव केस!”

  • मालेगांव ब्लास्ट: जांच नहीं, साजिश थी!”
  • एटीएस के पूर्व अफसर का सनसनीखेज दावा— “मोहन भागवत को फंसाने का दबाव था!”

दैनिक इंडिया न्यूज़ ,नई दिल्ली ।मालेगांव विस्फोट मामले में अब तक का सबसे चौंकाने वाला मोड़ सामने आया है। महाराष्ट्र एटीएस के पूर्व अधिकारी महबूब मुजावर ने एनआईए कोर्ट में हलफनामे के ज़रिए खुलासा किया है कि इस पूरे मामले की जांच किसी निष्पक्षता का हिस्सा नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति थी। उनका कहना है कि उन्हें ऐसे निर्देश दिए गए जो न तो जांच से जुड़े थे और न ही विस्फोट की कड़ी से मेल खाते थे।

सबसे गंभीर आरोप यह है कि उन्हें कथित तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के तत्कालीन सरसंघचालक श्री मोहन भागवत को गिरफ्तार करने के लिए दबाव डाला गया। यह दावा केवल जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर ही नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की निष्पक्षता पर गहरा सवाल खड़ा करता है।

भगवा आतंक की कहानी लिखने का था दबाव, नहीं मिले सबूत—फिर भी बनाना था दोषी!”

एटीएस अफसर महबूब मुजावर का सनसनीखेज बयान, बोले: ‘न्याय नहीं, एजेंडा चल रहा था’

मालेगांव विस्फोट की जांच में जो सामने आया है, वो सिर्फ एक खुलासा नहीं, बल्कि लोकतंत्र और न्याय प्रणाली के चेहरे पर एक करारा तमाचा है। महाराष्ट्र एटीएस के पूर्व अधिकारी महबूब मुजावर ने एनआईए कोर्ट में गवाही दी कि उनसे साफ तौर पर कहा गया था— “भगवा आतंक की एक स्क्रिप्ट तैयार करो, और कुछ नाम तय हैं जिन्हें इसमें हर हाल में घसीटना है।”

मुजावर के मुताबिक, जब उन्होंने इस राजनीतिक षड्यंत्र का विरोध किया, तो उन्हें न केवल नज़रअंदाज़ किया गया, बल्कि मानसिक उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ा। उन्होंने बताया कि जांच को जानबूझकर ऐसे मोड़ दिए गए जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और उससे जुड़े प्रमुख चेहरों को बदनाम किया जा सके— बिना किसी ठोस साक्ष्य के!

यह बयान न सिर्फ मालेगांव केस की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि यह भी उजागर करता है कि कहीं न कहीं, जांच एजेंसियां भी राजनीति के दबाव में झुकती रही हैं।

गौरतलब है कि मालेगांव में वर्ष 2008 में हुए बम विस्फोट में छह लोगों की मृत्यु हो गई थी और सौ से अधिक लोग घायल हुए थे। प्रारंभिक जांच के बाद एटीएस ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित और अन्य को इस मामले में आरोपी बनाया था। लेकिन कोर्ट में कई गवाह अपने बयान से मुकर गए और कई तकनीकी खामियों के चलते मामले की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े हो गए।

हाल ही में एनआईए की विशेष अदालत ने इस मामले में सभी सात आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि अभियोजन पक्ष उनके खिलाफ आरोप सिद्ध करने में असफल रहा। कोर्ट ने कहा कि गवाहों के मुकरने, सबूतों की कमी और जांच में पारदर्शिता के अभाव ने पूरे मामले की नींव को कमजोर कर दिया। अदालत ने यह भी कहा कि जिस तरह से केस को आगे बढ़ाया गया, उससे निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठते हैं।

महबूब मुजावर का यह बयान कि उन्हें मोहन भागवत को गिरफ्तार करने का निर्देश दिया गया था, केवल एक व्यक्तिगत अनुभव नहीं बल्कि देश की जांच प्रणाली में गहरे बैठे राजनीतिक दबाव और पक्षपात की ओर इशारा करता है। यह प्रकरण बताता है कि किस प्रकार तथ्यों से हटकर जांच को एक खास दिशा में मोड़ने की कोशिश की जाती है, जो न्याय के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।

यह मामला अब न्याय प्रणाली और जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर नई बहस को जन्म दे रहा है। साथ ही यह भी स्पष्ट कर रहा है कि न्याय तभी संभव है जब जांच निष्पक्ष, तथ्यों पर आधारित और किसी भी प्रकार के राजनीतिक या वैचारिक हस्तक्षेप से मुक्त हो।

Share it via Social Media

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *