“त्यागपत्र या दबावपत्र? धनखड़ की विदाई के पीछे की अदृश्य पटकथा”

दैनिक इंडिया न्यूज़, नई दिल्ली।मानसून सत्र के पहले ही दिन उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे ने सियासी हलकों में तीव्र उथल-पुथल मचा दी है। सरकार की ओर से इस इस्तीफे को ‘स्वास्थ्य कारणों’ से प्रेरित बताया गया है, लेकिन विपक्ष इसे एक गहरा राजनीतिक घटनाक्रम मान रहा है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने सवाल उठाए हैं कि जब कुछ ही दिन पहले तक धनखड़ विभिन्न सार्वजनिक कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से भाग ले रहे थे, तब अचानक यह स्वास्थ्यगत चिंता कहां से उत्पन्न हुई?

सूत्रों के अनुसार, हाल के महीनों में धनखड़ की कार्यशैली और कुछ मामलों में न्यायपालिका के प्रति उनकी तीव्र प्रतिक्रिया ने सत्ता पक्ष को असहज किया था। विशेष रूप से जस्टिस यशवंत वर्मा के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस स्वीकार करने को लेकर उपराष्ट्रपति की तत्परता ने सरकार को चौंकाया। यह नोटिस बीएसी (बिजनेस एडवाइजरी कमेटी) की दूसरी बैठक से पहले ही सार्वजनिक कर दिया गया, जिससे सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा को न तो रणनीति बनाने का अवसर मिला और न ही कोई औपचारिक संवाद की गुंजाइश बची।

इसी संदर्भ में यह भी प्रश्न उठ रहा है कि जब जस्टिस यादव के मामले में स्पष्ट संवैधानिक प्रश्न उठे थे, तब उपराष्ट्रपति की ओर से ऐसी कोई तत्परता क्यों नहीं दिखाई गई? क्या न्यायपालिका के विरुद्ध उठाए गए कदम चयनात्मक थे? क्या यह सब किसी दबाव या राजनीतिक मंशा से प्रेरित था?

भाजपा की आंतरिक बैठकों से भी संकेत मिले हैं कि पार्टी नेतृत्व को यह अंदेशा हो चला था कि धनखड़ अपनी संवैधानिक सीमा से बाहर जाकर विपक्ष को अनावश्यक मंच प्रदान कर सकते हैं। यही कारण है कि बीते कुछ सप्ताहों से उनके और शीर्ष भाजपा नेतृत्व के बीच संवाद लगभग ठप हो गया था। इतना ही नहीं, जिस बैठक में महाभियोग पर निर्णय लिया गया, उसमें भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू अनुपस्थित रहे, जिससे इस असहमति के और भी स्पष्ट संकेत मिले।

विपक्ष ने इस मौके को भुनाने में देर नहीं की। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने सवाल उठाया कि नड्डा और रिजिजू की गैरमौजूदगी और धनखड़ का इस्तीफा क्या महज संयोग है? उन्होंने यह भी कहा कि “कुछ तो ऐसा जरूर हुआ है जो सार्वजनिक नहीं किया जा रहा।” वहीं राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस इस्तीफे को भाजपा और आरएसएस की गुप्त साजिश बताते हुए कहा कि “धनखड़ जैसे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को भी दबाव में आकर इस्तीफा देना पड़ा, यह लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है।”

हालांकि भाजपा की ओर से यह तर्क दिया जा रहा है कि धनखड़ ने अपने विवेक और स्वास्थ्य कारणों से त्यागपत्र दिया और यह निर्णय पूरी तरह स्वैच्छिक था। पार्टी ने यह भी स्पष्ट किया कि धनखड़ को भविष्य में संगठन या सरकार में कोई नई भूमिका दी जा सकती है, जिसमें उनका अनुभव उपयोगी सिद्ध हो।

इस्तीफे के बाद राजनीतिक समीकरणों में भी हलचल शुरू हो गई है। संसद में नए उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए प्रक्रिया जल्द ही शुरू होगी। कुल 783 सांसदों में से कम से कम 394 वोटों की आवश्यकता होगी। भाजपा को भरोसा है कि अपने गठबंधन सहयोगियों को साधकर यह संख्या जुटा लेगी। एनडीए के पास फिलहाल लगभग 343 सांसदों का समर्थन है। यदि बीजेडी, वाईएसआरसीपी जैसे दल समर्थन देते हैं, तो भाजपा की स्थिति और मजबूत हो जाएगी।

उधर, विपक्षी दल इंडिया गठबंधन भी इस अवसर को एकजुटता का मंच बनाकर नए चेहरे के पक्ष में लामबंद हो सकता है। हालांकि अभी तक किसी नाम पर सहमति नहीं बनी है, लेकिन चर्चा में कुछ ऐसे नाम जरूर हैं जो विभिन्न दलों को साथ लाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

धनखड़ के इस्तीफे के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ट्वीट कर उनकी सेवाओं की सराहना की और कहा कि उन्होंने विभिन्न संवैधानिक पदों पर रहते हुए देश की गरिमा बढ़ाई। वहीं, राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से भेंट कर संभावित व्यवस्था परिवर्तन को लेकर विचार-विमर्श किया।

धनखड़ के पैतृक गांव राजस्थान के झुंझुनूं में भी यह खबर चर्चा का विषय बनी हुई है। वहां के ग्रामीण इसे “गर्व और पीड़ा” का क्षण मान रहे हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि “हमारे गांव के बेटे ने देश का सर्वोच्च पद संभाला, लेकिन उसे आखिरकार कुछ ताकतों के दबाव में इस्तीफा देना पड़ा।”

संवैधानिक दृष्टिकोण से यह इस्तीफा इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला अवसर है जब कोई कार्यरत उपराष्ट्रपति बीच कार्यकाल में निजी कारणों से इस्तीफा दे रहा है। यह स्थिति केवल एक व्यक्ति के त्यागपत्र तक सीमित नहीं, बल्कि यह संस्थाओं के बीच शक्ति-संतुलन, वैधानिक गरिमा और राजनीतिक इच्छाशक्ति की एक नई परिभाषा गढ़ती है।

अब जब नया उपराष्ट्रपति चुनने की प्रक्रिया शुरू होगी, तब यह देखना रोचक होगा कि क्या सत्ता पक्ष ऐसा कोई चेहरा लाता है जो संविधान के दायरे में रहते हुए सत्ताधारी दल की इच्छाओं को साकार करे, या फिर कोई ऐसा नाम आता है जो इस गरिमामयी पद को पुनः उसकी निष्पक्षता और संस्थागत महत्ता की ओर लौटा सके।

जगदीप धनखड़ का इस्तीफा केवल एक संवैधानिक घटना नहीं, बल्कि आने वाले दिनों की राजनीति की पटकथा का पहला दृश्य भी है।

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