भगवत प्रेम ही मोक्ष का मार्ग है-सतेंद्र शास्त्री

श्रीमद्भागवत कथा में कृष्ण लीला के माध्यम से तत्वबोध का गूढ़ विश्लेषण

सत्येंद्र शास्त्री जी की वाणी में प्रकट हुआ वेदांत और भक्ति का अद्भुत संगम, श्रद्धालु हुए भावविभोर

दैनिक इंडिया न्यूज़,लखनऊ। जनकल्याण समिति के तत्वावधान में आयोजित श्रीमद्भागवत कथा के छठवें दिन सत्येंद्र शास्त्री जी ने जब भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं पर प्रकाश डाला, तो वह केवल कथा नहीं रही, वह एक तत्वबोध बन गई। उन्होंने प्रेम, भक्ति और आत्मज्ञान के गहन विषयों को श्रीकृष्ण की रासलीला, गोपियों की तड़प, और उनकी अंतरध्यान लीला के माध्यम से इस प्रकार व्याख्यायित किया कि श्रोता आत्मविभोर हो उठे।

शास्त्री जी ने श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के श्लोकों का विश्लेषण करते हुए बताया कि जब गोपियां श्रीकृष्ण के दर्शन को व्याकुल होती थीं, वह विरह किसी सांसारिक आकर्षण की पीड़ा नहीं थी, वह आत्मा की परमात्मा से एकत्व की तीव्र पुकार थी। उन्होंने बताया कि भगवान का अंतरध्यान हो जाना दर्शाता है कि जब तक जीव हृदय से पूर्ण समर्पण नहीं करता, तब तक ब्रह्म का साक्षात्कार संभव नहीं होता।

शास्त्री जी ने आगे कहा, “कृष्ण लीला वेदांत का जीवंत चित्र है। भगवान जब गोपियों से छिप जाते हैं, तो वह केवल लीला नहीं, एक गूढ़ संदेश है कि परमात्मा सदा उपस्थित है, परंतु यदि हमारी दृष्टि भौतिकता में रमी है तो वह ओझल हो जाता है। जब गोपियों ने सर्वस्व त्यागकर, अपने मन, बुद्धि, और अहंकार को कृष्ण में अर्पित किया, तभी भगवान पुनः प्रकट हुए। यह वही वेदान्त सिद्धांत है—’यदा यदा हि धर्मस्य‘ नहीं, बल्कि ‘यदा यदा आत्मबोधस्य’।”

कथा में उन्होंने एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि जैसे भोजन तब तक सार्थक नहीं होता जब तक वह पचकर शरीर में समरस न हो जाए, वैसे ही ज्ञान तब तक सार्थक नहीं होता जब तक वह जीवन में प्रेम और भक्ति में परिणत न हो। गोपियों ने केवल श्रवण या दर्शन नहीं किया, उन्होंने कृष्ण को अपने प्राणों में अनुभव किया। यह अनुभव ही वेदांत की चरम स्थिति है।

श्रीमद्भागवत के एक प्रसिद्ध श्लोक का उच्चारण करते हुए उन्होंने बताया—
स्मरन्ति नन्दगोपसुतं नखाग्रदशम्”
— अर्थात गोपियां श्रीकृष्ण के नखों के कोने तक को स्मरण करती थीं। यह स्मरण कोई साधारण स्मृति नहीं थी, यह वह गहन एकाग्रता थी जो ध्यान की पराकाष्ठा है। वेदांत कहता है कि जब मन इन्द्रियों से हटकर केवल आत्मा पर स्थिर हो जाता है, तब आत्मा ब्रह्म से एकरूप हो जाती है। यही गोपियों की अवस्था थी।

कथा की इस संध्या में वातावरण में जो गूंज थी, वह केवल शब्दों की नहीं थी, वह चेतना की गूंज थी। श्रद्धालुओं ने आंखों में अश्रु और हृदय में भक्ति लेकर कथा का श्रवण किया। कई श्रद्धालुओं ने अनुभव साझा करते हुए कहा कि आज की कथा से ऐसा प्रतीत हुआ जैसे श्रीकृष्ण स्वयं भीतर बोल रहे हों। श्रीमद्भागवत की यही महिमा है—यह केवल ग्रंथ नहीं, जीव और ब्रह्म के मिलन की जीवंत कथा है।

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