राष्ट्र की कीर्ति और व्यक्तिगत विजय: आंतरिक युद्ध का महासंग्राम



दैनिक इंडिया न्यूज़ नई दिल्ली। यह उद्घोष केवल एक सामान्य आह्वान नहीं है, अपितु काल के भाल पर अंकित होने वाली एक अदम्य चेतना का गर्जन है। स्मरण रखिए, आपकी असाधारण सफलता की गाथा मात्र आपकी निजी उपलब्धि नहीं है; यह तो राष्ट्र की यशोगाथा में जुड़ा हुआ एक स्वर्णिम अध्याय है। जिस दिन आप अपनी आंतरिक दुर्बलताओं के अंधकार को चीरकर बाहर निकलते हैं, उस दिन भारत भूमि का मस्तक और ऊँचा उठ जाता है। क्योंकि व्यक्ति से ही समष्टि है, और आपके शौर्य में ही देश का पराक्रम प्रतिध्वनित होता है। इस जीवन-समर में कोई भीतरी शत्रु आपके संकल्प जितना शक्तिशाली नहीं हो सकता, और जिसने अपने क्रोध की प्रचण्ड अग्नि को विवेक के संयम से वश में कर लिया, जिसने आलस्य के जड़त्व को कर्मठता की अखंड धार से विगलित कर दिया, वही सच्चा राष्ट्रवीर है।


जिस प्रकार एक अस्त्र को तपाकर और कूटकर दुर्जेय बनाया जाता है, उसी प्रकार व्यक्ति भी कठिनाइयों की भट्टी में तपकर ही कुंदन बनता है। अपनी असफलता के प्रत्येक पल को अपमान नहीं, बल्कि आगामी विजय की दृढ़ नींव मानिए। आपकी सच्ची लड़ाई आपके आलस्य और लोभ नामक उन अदृश्य शत्रुओं से है जो आपके सामर्थ्य का पतन करने हेतु सतत षड्यंत्र रचते हैं। वीरता केवल रणभूमि में ही नहीं दिखाई जाती, बल्कि वह दैनिक जीवन के प्रत्येक संकल्प और त्याग में भी प्रकट होती है। जब आप अपने मन के विकारों पर विजय प्राप्त करते हैं, तब आप केवल स्वयं को नहीं जीतते, बल्कि राष्ट्र को एक समर्पित, अनुशासित और अखंड चरित्रवान नागरिक प्रदान करते हैं—और यही सबसे बड़ा राष्ट्रधर्म है।


युग-युगांतरों से, हमारे भारतीय दर्शन ने इसी आंतरिक क्रांति का आह्वान किया है। श्रीमद्भगवद्गीता के कर्मयोग का गहन सिद्धांत हमें सिखाता है कि अनासक्त होकर कर्म करना ही सच्ची पूजा है। योगेश्वर श्रीकृष्ण का ओजस्वी उपदेश इस शाश्वत सत्य का उद्घोष करता है कि: “उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्। (मनुष्य स्वयं ही अपना उद्धार करे, स्वयं को अधोगति में न डाले।)” आपका मन ही आपका सबसे बड़ा मित्र और सबसे दुर्भेद्य शत्रु है। इस मनोभूमि पर विजय पाना ही परम पुरुषार्थ है। अपने लक्ष्य को साधने में समस्त ऊर्जा लगाइए, फल की चिंता को सर्वथा त्याग दीजिए—क्योंकि कर्म का सौंदर्य उसके निष्पादन में है, परिणाम में नहीं।
और आज के जागरण काल में, युग ऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का दिव्य संदेश इसी आत्म-परिमार्जन की आवश्यकता को पुनः रेखांकित करता है। उनका अखंड विश्वास था कि व्यक्ति का रूपांतरण ही युग का रूपांतरण है। उनका सशक्त सूत्र वीरता की प्रेरणा देता है: “हम बदलेंगे, युग बदलेगा।” यह कथन व्यक्तिगत सुधार की शक्ति को स्पष्ट करता है। आपकी सकारात्मकता, आपका आत्म-नियंत्रण और आपका निरंतर प्रयास—ये सभी संकल्प मिलकर एक अदृश्य शक्ति का सृजन करते हैं जो न केवल आपके जीवन को, बल्कि आपके परिवेश और समग्र राष्ट्र को सकारात्मक ऊर्जा से आप्लावित कर देता है।


आपकी विफलताओं का मूल कारण आपकी क्षमता में नहीं, अपितु आपकी सीमित सोच की परिधि में निहित है। असफलता केवल इस बात का द्योतक है कि आपकी वर्तमान मनोवृत्ति को कायाकल्प की आवश्यकता है। जैसा कि महान दार्शनिक जेम्स एलन ने दृढ़ता से कहा था, “मन ही वह मास्टर वीवर (मुख्य बुनकर) है जो भीतर और बाहर दोनों जगह चरित्र के वस्त्र बुना करता है।” आपका बाह्य संसार आपके आंतरिक विचारों का प्रतिबिम्ब मात्र है। इसलिए, अपनी विचारधारा को परिष्कृत करते हुए, संदेह के तिमिर (अंधेरे) को आत्मविश्वास की प्रखर ज्योति से भस्म कर दीजिए। एक सफल योद्धा और एक श्रेष्ठ नागरिक बनने का बीज आपके मस्तिष्क में रोपित है—उसे सकारात्मकता के जल से सींचिए और देखिए कि कैसे आप सफलता की गाथा के अग्रणी लेखक बन जाते हैं, जिसकी प्रेरणा से यह राष्ट्र पुनः विश्वगुरु के गौरवशाली पद पर आरूढ़ होगा। उठिए! विजय आपकी प्रतीक्षा कर रही है।

लेखक हरेंद्र कुमार सिंह प्रधान संपादक दैनिक इंडिया न्यूज़ नई दिल्ली

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