“सेंगोल” बनाने वाला परिवार ही भूल गया, लेकिन 2018 में पूरी कहानी याद आई, आजादी के बाद ऐसे सामने आया राजदंड
दैनिक इंडिया न्यूज ऐश्वर्य उपाध्याय : पिछले रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नये संसद भवन का उद्घाटन किया। सर्वप्रथम प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को पुष्पांजलि अर्पित की और उसके बाद हवन और पूजा कार्यक्रम में भी हिस्सा लिया। इसके बाद, मदुरै “अधीनम” के 293वें प्रधान पुजारी हरिहरा दास स्वामीगल ने सेंगोल प्रधानमंत्री मोदी को प्रदान किया। इसके बाद मोदी ने नये संसद भवन में “सेंगोल” स्थापित कर 20 पंडितों से आशीर्वाद भी लिए। इसके बाद उन्होंने जो श्रमिकों ने इस भवन के निर्माण में मेहनत लगाई थी, उन्हें सम्मानित किया।
सेंगोल शब्द तमिल भाषा के ‘सेम्मई’ से निकला है, जिसका अर्थ होता है धर्म, सच्चाई और निष्ठा। सेंगोल राजदंड भारतीय सम्राट की शक्ति और अधिकार का प्रतीक था। इसे सोने या चांदी से बनाया जाता था और इसकी सजावट के लिए कीमती पत्थरों का उपयोग होता था। स्वतंत्रता के समय, जब भारत की सत्ता अंग्रेजों से भारतीयों के हाथों में वापस जा रही थी, तो तमिलनाडु के लोगों ने 14 अगस्त 1947 को पंडित जवाहरलाल नेहरू के हाथों में सेंगोल सौंपा। इसलिए उस समय सेंगोल को भारत की आजादी का प्रतीक माना जाता था।
आपको बता दें कि सेंगोल का पहला इस्तेमाल साल 1947 में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया था, लेकिन इसका इतिहास बहुत पुराना है। इसे सेंगोल के रूप में भारतीय संस्कृति में प्रचलित किया जाता है। राजदंड ‘सेंगोल’ भारतीय समृद्ध विरासत का प्रतीक है और इसे स्वतंत्रता और निष्पक्ष शासन की भावना का प्रतीक भी माना जाता है। तमिल परंपरा में इसका विशेष महत्व है। सेंगोल पर एक नंदी बैठे हुए है, जो धन और सम्पदा का प्रतीक भी है। हालांकि अधिकांश लोग यह समझते हैं कि इसका पहला इस्तेमाल चोल साम्राज्य ने किया था, लेकिन इसका उपयोग मौर्य और गुप्त वंश के काल में भी हुआ है। चोल वंश के राजा, राजेंद्र चोल (प्रथम) के काल में इसे सबसे अधिक मान्यता मिली है।
चेन्नई के वुम्मिदी बंगारू ने भारत की नई संसद में लगाए गए मौजूदा सेंगोल का निर्माण किया है। इसमें कई धातुओं की परतें चढ़ी हुई हैं, जिसमें सोना सबसे प्रमुख है। इसे आजादी से कुछ दिन पहले ही तमिलनाडु के थिरुवदुथुराई अथीनम मठ के गुरुओं की सलाह पर निर्मित किया गया था। सेंगोल में नंदी और देवी लक्ष्मी की नक्काशी की गई है। पहले के समय में, इसके ऊपर कीमती पत्र भी लगाए जाते थे।
वुम्मिदी एथिराजुलु, एक 96 वर्षीय बुजुर्ग हैं। उनके साथ मिलकर वुम्मिदी सुधाकर ने एक महीने से भी कम समय में सेंगोल तैयार किया था। मद्रास के स्वर्णकार वुम्मिदी बंगारू चेट्टी ने 1947 में इसे हस्तशिल्प कारीगरी के द्वारा बनाया था। उन्हें इसके लिए 15000 रुपये मिले थे। इसके निर्माण में 96 साल के वुम्मिदी एथिराजुलु और 88 साल के वुम्मिदी सुधाकर भी कार्यक्रम में शामिल थे। तब उनकी उम्र 20 साल थी। वुम्मिदी एथिराजुलु नए संसद भवन के उद्घाटन में शामिल हुए। इसी दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने उनका सम्मान करने के लिए सिर झुकाकर प्रणाम किया था।
‘राजदंड’ सेंगोल भारत की स्वतंत्रता से जुड़ा एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रतीक है। यह प्रतीक अंग्रेजों द्वारा सत्ता हस्तांतरण के दौरान उपयोग किया गया था। जब अंग्रेजों ने भारत की आजादी की घोषणा की थी, तब अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू से सत्ता के हस्तांतरण का तरीका पूछा। तब नेहरू ने उस समय के भारतीय इतिहास और संस्कृति के प्रख्यात विद्वान चक्रवर्ती गोपालचारी से सलाह ली। गोपालचारी ने नेहरू को सेंगोल के बारे में विस्तृत जानकारी दी। गोपालचारी तमिलनाडु के प्रभावशाली व्यक्ति थे और उनके पास भारतीय संस्कृति और परंपरा के गहरे ज्ञान का अद्यावधिक संग्रह था। उन्होंने सत्ता हस्तांतरण की प्रतीकात्मकता की समस्या का समाधान भी प्रस्तावित किया।
चोल राजवंश, जो भारत में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाला राजवंश माना जाता है। उस समय की परंपरा यह थी कि एक चोल राजा दूसरे चोल को ‘सेंगोल’ देकर सत्ता सौंपता था। इसे राजदंड कहा जाता था, जो शासन में न्यायप्रियता का प्रतीक माना जाता था। चोल राजवंश के प्रमुख आराध्य देवता भगवान शिव थे। ‘सेंगोल’ को भगवान शिव के आशीर्वाद के रूप में राजपुरोहित द्वारा सौंपा जाता था। इसमें शिव की सवारी नंदी की प्रतिमा भी स्थापित होती थी। ऐसी ही प्रथा और प्रतिष्ठा के सुझाव राजाजी ने दिए, जिस पर नेहरू तैयार हो गए।
इसके बाद राजाजी चक्रवर्ती ने मयिलाडुतुरै स्थित ‘थिरुवावादुठुरै आथीनम’ से संपर्क किया, जिसकी स्थापना आज़ादी से 500 वर्ष पूर्व हुई थी। मठ के तत्कालीन महंत अम्बालवाना देशिका स्वामी उस समय बीमार थे, लेकिन उन्होंने ये कार्य अपने हाथ में लिया। उन्होंने ‘सेंगोल’ के निर्माण के लिए ‘वुम्मिडी बंगारू चेट्टी’ के आभूषण निर्माताओं को दिया। ‘सेंगोल’ के ऊपर नंदी का होना शक्ति, न्यायप्रियता और सत्य का प्रतीक है। वुम्मिडी एथिराजुलू ने ‘सेंगोल’ के निर्माण के बारे में जानकारी देते हुए बताया था कि उनके पास ‘सेंगोल’ की ड्रॉइंग लाई गई थी। ये गोल था और साथ में एक पोल के आकार का था। उन्हें काफी सावधानी और उच्च गुणवत्ता के साथ इसे बनाने को कहा गया और बताया गया कि ये बहुत ही महत्वपूर्ण जगह जाने वाला है।
उन्होंने बताया कि स्वतंत्रता के समय वो लोग इसका निर्माण करने में काफी खुश थे। समारोह के आयोजन के लिए महंत ने अपने शिष्य कुमारस्वामी, एक बड़े गायक और ‘नादसुर’ विशेषज्ञ को दिल्ली भेजा। 14 अगस्त, 1947 की रात को कुमारस्वामी श्रीला श्री कुमारस्वामी तम्बीरान ने ‘सेंगोल’ माउंटबेटन को दिया। इसे जल से पवित्र किया गया था। इस दौरान तमिल संत ‘कोलारु पथिगम’ का गान किया गया, जो शैव कविता ‘थेवारम’ का हिस्सा है।
तिरुगन संबंदर द्वारा यह पंक्ति रची गई थी और संयासियों ने नेहरू को पीतांबर पहनाया और मंत्रोच्चारण किया गया। इस दौरान पढ़ी गई पंक्ति का अर्थ है – ‘हमारा आदेश है कि भगवान के अनुयायी राजा उसी तरह से शासन करेंगे, जैसे स्वर्ग के शासक।’ यह समारोह भारत के उत्तरी और दक्षिणी हिस्सों के संगम का प्रतीक भी बन गया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी उस समारोह में मौजूद थे। उस समय अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘Time’ ने भी इस संबंध में एक खबर प्रकाशित की थी।
सेंगोल को इसके बाद इलाहाबाद संग्रहालय में रखा गया, जहां नेहरू द्वारा इसका उपयोग अन्य वस्तुओं के साथ किया जाता था। पुरातत्वविद् टी सत्यमूर्ति के अनुसार, सेंगोल या राजदंड सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक होता था। राजा का धर्म होता है कि वह राज्य को सफलतापूर्वक चलाए, और सेंगोल उसे अपने धर्म की याद दिलाता है।
वुम्मिदी एथिराजुलु (96) और वुम्मिदी सुधाकर (88) के परिवार के लोगों को 2018 तक यह भी नहीं पता था कि उनके पूर्वजों ने नेहरू को दिया गया सेंगोल बनाया था। 2018 में एक मैगज़ीन के लेख ने इसका उल्लेख किया था, और उन्हें यह जानकारी मिली। 2019 में, मार्केटिंग हेड अरुण कुमार ने खोज करके पता लगाया कि वो सेंगोल इलाहाबाद म्यूज़ियम में संग्रहीत है।
आज के समय में सेंगोल की कीमत 75 लाख रुपये
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार ये सेंगोल चांदी से बनाया गया था और इस पर सोने का पानी चढ़ाया गया था। कई सुनारों ने सेंगोल पर नक्काशी की। वुम्मिडी बंगारू परिवार की चौथी पीढ़ी के सदस्य अमरेंद्रन वुम्मिडी के मुताबिक आज के हिसाब से इस सेंगोल की कीमत 70-75 लाख रुपये तक होगी।
लगाते थे मंदिरों के बाहर स्टाल
इस कंपनी की नींव वुमुदी बंगार चेट्टी ने 120 साल पहले रखी थी। वैल्लौर जैसे एक छोटे से शहर में जन्मे बंगारू ने ज्वेलरी बेचने की शुरुआत की थी। उस समय उनके पास कोई दुकान नहीं थी, वे मंदिरों के बाहर स्टाल लगाते थे। उनके घर के पास दो मंदिर हुआ करते थे, पल्लिकोंडा पेरूमल और अम्मन। मंदिर के आस-पास कई ऐसी दुकानें होती थीं, जहां नाक-कान वाले छेद करे जाते थे। बंगारू वहीं ज्वेलरी की दुकानें लगाया करते थे। महीने में 10 दिन वहाँ मेले का माहौल बनता था। बाकी 20 दिन वे ज्वेलरी निर्माण में व्यस्त रहते थे।
आज एक बड़ा ब्रांड बन चुकी है कंपनी
कहा जाता है कि सन् 1900 में बंगारू ने जॉर्ज टाउन में पहली दुकान खोली। यह दुकान सफल रही। उसके बाद के 7-8 सालों में उन्होंने अपने नाम से ज्वेलरी बनाना शुरू किया और उसे बेचना आरंभ किया। मद्रास में उन्हें वास्तविक सफलता मिली। उन्होंने अपने घर पर शोरूम और निर्माण इकाई स्थापित की। आज बंगारू ज्वेलर्स एक प्रमुख ब्रांड बन चुका है। 2019 में बंगारू ज्वेलर्स ने लैक्मे इंडिया फैशन वीक के दौरान पहला प्लैटिनम कलेक्शन पेश किया, जिसे लोगों ने बड़ा पसंद किया। इस बार इस कंपनी को उनके बनाए सेंगोल के कारण चर्चा में है।
सेंगोल दिखता कैसा है
सेंगोल एक दंडनुमा आकृति में बना राजदंड है, जिसके शीर्ष पर भगवान शिव के वाहन नंदी विराजित हैं। इसे मान्यता है कि नंदी न्याय और निष्पक्षता का प्रतीक है। सेंगोल राजदंड को शुद्ध सोने से बनाया गया है, और इसकी लंबाई 5 फीट है। इसके निर्माण में (स्वतंत्रता के समय) लगभग 15 हजार रुपये का खर्च हुआ था।
सेंगोल अब तक कहाँ रखा गया था
स्वतंत्रता के बाद सेंगोल राजदंड को पहली बार पंडित जवाहरलाल नेहरू के पैतृक आवास ‘आनंद भवन’ में रखा गया था। बाद में इसे इलाहाबाद के एक संग्रहालय में नेहरू गैलरी के हिस्से के रूप में स्थानांतरित किया गया, जहां इसके साथ कुछ अन्य ऐतिहासिक वस्तुएं जो जवाहरलाल नेहरू से संबंधित थीं, संग्रहित की गईं। संग्रहालय के वर्तमान भवन की आधारशिला 14 दिसंबर 1947 को नेहरू जी द्वारा रखी गई थी। इसे सार्वजनिक दर्शकों के लिए 1954 में कुंभ मेले के समय खोला गया था।
इतने सालों बाद अब दुनिया के सामने फिर से सामने कैसे आया सेंगोल
इतने सालों बाद सेंगोल फिर से दुनिया के सामने कैसे आया, यह एक विचारशील प्रश्न है। इसकी कहानी भी काफी रोचक है। इस बात का श्रेय प्रसिद्ध नृत्यांगना पद्मा सुब्रमण्यम को जाता है, जिन्होंने सेंगोल को फिर से लोगों के सामने प्रस्तुत किया।
वर्ष 2021 में प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्यांगना डॉ. पद्मा सुब्रमण्यम ने प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) को एक पत्र के माध्यम से सेंगोल पर एक तमिल लेख का अनुवाद भेजा। यह लेख तमिल भाषा में लिखा गया था और तुगलक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। डॉ. पद्मा सुब्रमण्यम इस लेख के प्रति बहुत आकर्षित हैं। इसमें 1978 में चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती द्वारा अपने शिष्य डॉ. सुब्रमण्यम को सेंगोल के बारे में बताया गया था (1978 में) और उसके लिखे जाने के बारे में भी बताया गया था। इसके साथ ही लेख में बताया गया था कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सेंगोल की भेंट की गई थी, और उसे पंडित जी की जन्मस्थली आनंद भवन में रखा गया है।
डॉ. पद्मा सुब्रमण्यम द्वारा लिखे गए इस पत्र के प्राप्त होने के बाद, संस्कृति मंत्रालय अपने कार्यों में इसे शामिल करता है। इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स (IGNCA) के अध्यक्ष सच्चिदानंद जोशी बताते हैं कि IGNCA के विशेषज्ञ तीन महीने के गहन शोध के बाद सेंगोल की पहचान करते हैं। अंततः, इलाहाबाद संग्रहालय के क्यूरेटर इसे पहचानते हैं और फिर संग्रहालय के निर्माताओं, वुम्मिदी बंगारू चेट्टी परिवार से इसकी पुष्टि करवाई जाती है कि यह वास्तव में वही सेंगोल है। उन्होंने यह भी बताया कि अब ऐसी कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएं जो पहले दर्ज नहीं की जाती थीं, अब आधिकारिक रिकॉर्ड और आर्काइव में दर्ज की जा रही हैं।