गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर हमारे परम पूज्य गुरु,मार्गदर्शक,प्रेरणा स्रोत, मनिषयों ,महामानवों को सादर समर्पित
गुरुपूर्णिमा अपने सद्गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का दिन है। यह शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने का दिन है। यह दिन है जब हम गुरुदीप से आत्मदीप प्रज्ज्वलित कर दीप शिखा को और प्रचण्ड करते हैं। जन्मों-जन्मों के कर्मों के परिणाम स्वरूप दुःख भोगते जीवों की दुःख जंजीर को काटने, आवागमन के चक्र से मुक्ति हेतु गुरुशरण जाने का दिन है।
आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। हिन्दू धर्म में प्रचलित अन्य सभी त्यौहारों की अपेक्षा इसका महत्त्व अधिक माना गया है; क्योंकि सन्मार्ग के प्रेरक सभी व्रतों, पर्वों, त्योहारों में लाभ तभी उठाया जा सकता है, जब सद्गुरुओं द्वारा उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता सर्वसाधारण को अनुभव कराई जा सके।
सद्गुरु की महिमा गाते-गाते शास्त्रकार थकते नहीं। मनीषियों ने निरन्तर यही कहा है कि आत्मिक प्रगति के लिए गुरु की सहायता आवश्यक है। इसके बिना आत्म-कल्याण का द्वार खुलता नहीं और न ही साधन सफल होता है। सामान्य जीवन-क्रम में माता, पिता और गुरु को देव माना गया है और उनकी अभ्यर्थना समान रूप से करते रहने का निर्देश दिया गया है।
जिस सद्गुरु का माहात्म्य-वर्णन शास्त्रकारों ने किया है, वह वस्तुत: मानवीय अन्त:करण ही है। निरन्तर सद्ïशिक्षण और ऊध्र्वगमन का प्रकाश दे सकना इसी केन्द्र-तत्व के लिए संभव है। बाहर के गुरु-शिष्य की वास्तविक मन:स्थिति का बहुत ही स्वल्प परिचय प्राप्त कर सकते हैं। अस्तु, उनके परामर्श भी अधूरे ही रहेंगे। फिर कोई बाहरी गुरु हर समय शिष्य के साथ नहीं रह सकता, जबकि उसके सामने निरूपण और निराकरण के लिए अगणित समस्याएँ पग-पग पर, क्षण-क्षण में प्रस्तुत होती रहती हैं। इनमें से किसका, किस प्रकार समाधान किया जाय, इसका मार्गदर्शन करने के लिए किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, भले ही वह कितना ही सुयोग्य क्यों न हो।
अपने अन्त:करण को निरन्तर कुचलते रहने, उसकी पुकार को अनसुनी करते रहने से आत्मा की आवाज मंद पड़ जाती है। पग-पग पर अत्यन्त आवश्यक और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रकाश देते रहने का उसका क्रम शिथिल हो जाता है। अन्यथा सजीव आत्मा की प्रेरणा सामान्य स्थिति में इतनी प्रखर होती है कि कुमार्ग का अनुसरण कर सकना मनुष्य के लिए संभव ही नहीं होता। यह आत्मिक प्रखरता ही वस्तुत: सद्गुरु है। इसी का नमन-पूजन और परिपोषण करना गुरु-भक्ति का यथार्थ स्वरूप है।
गुरु-दीक्षा इस व्रत धारण का नाम है कि ‘हम अन्तरात्मा की प्रेरणा का अनुसरण करेंगे। ऐसा निश्चय करने वाला व्यक्ति मानवोचित चिन्तन और कत्र्तव्य से विरत नहीं हो सकता। जैसे ही अचिन्त्य चिन्तन मन:क्षेत्र में उभरता है, वैसे ही प्रतिरोधी देव-तत्व उसके दुष्परिणाम के संबंध में सचेत करता है और भीतर ही भीतर एक अन्तद्र्वंद्व उभरता है।