“आत्म-समर्पण और आत्म-संवाद: जीवन की अर्थव्यवस्था”

दैनिक इंडिया न्यूज,लखनऊ:निराशाग्रस्त मनुष्य दिन-रात अपनी इच्छाओं कामनाओं ,अकांक्षाओं की आपूर्ति पर आँसू बहाता हुआ उनका काल्पनिक चिन्तन करता हुआ तड़पा करता है। एक कुढ़न, एक त्रस्तता एक वेदना हर समय उसके मनों-मन्दिर को जलाया करती है। बार-बार असफलता पाने से मनुष्य का अपने प्रति एक क्षुद्र भाव बन जाता है । उसे यह विश्वास हो जाता है कि वह किसी काम के योग्य नहीं है। उसमें कोई ऐसी क्षमता नहीं है, जिसके बल पर वह अपने स्वप्नों को पूरा कर सके, सुख और शान्ति पा सके।

जीवन का स्वरूप और अर्थ

जीवन का अर्थ है आशा, उत्साह और गति। आशा, उत्साह और गति का समन्वय ही जीवन है। जिसमें जीवन का अभाव है उसमें इन तीनों गुणों का होना निश्चित है। साथ ही जिसमें यह गुण परिलक्षित न हों समझ लेना चाहिये कि उसमें जीवन का तत्व नष्ट हो चुका है। केवल श्वास-प्रश्वास का आवागमन अथवा शरीर में कुछ हरकत होते रहना ही जीवन नहीं कहा जा सकता। जीवन की अभिव्यक्ति ऐसे सत्कर्मों में होती है, जिनसे अपने तथा दूसरों के सुख में वृद्धि हो?

मनुष्य में एक बहुत बड़ी कमजोरी यह है कि उसे प्राप्त होने का अभिमान हो जाता है। यह घर मैंने बनाया है। यह खेत मेरे हैं। इतना धन मैंने कमाया है। मैं इस सम्पत्ति का स्वामी हूँ, जो चाहे करूं, जैसा चाहूँ बरतूँ। इसे अहंकार कहते हैं। कहते हैं अहंकार करने वाले का विवेक नहीं रहता और वह बुद्धि-भ्रष्ट होकर नष्ट हो जाती है। अभिमानी व्यक्ति की भावनायें बड़ी संकीर्ण होती हैं। दूर तक सोचने की उसमें क्षमता न होने से वह अज्ञानियों के काम करता और दुःख भोगता है। इसलिये उसके लिये यह मंगलमय विश्व भी दुःखरूप हो जाता है। वह क्लेश में जीता और क्लेश में मर जाता है।

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