न तपस्तप इत्याहु ब्रह्मचर्य तपोत्तमम्।
ऊर्ध्वरेता-भवेद्यम्तु से देवो न तु मानुषः॥
दैनिक इंडिया न्यूज। यूरोप की जिस स्पेन जाति ने नई दुनियाँ में अपनी विजय पताका उड़ाई थी, वही स्पेन समृद्धिशाली होने पर विषय भोग का शिकार बन गया और अपने उपनिवेशों को वीर्य हीनता के कारण खो बैठा।
नित्य प्रति के जीवन में ब्रह्मचर्य अर्थात वीर्य धारण का प्रभाव प्रत्यक्ष देखा जाता है। वीर्यहीन डरपोक, कायर, दीन-हीन, रोगी और दुर्बल होता है। जिस व्यक्ति के शरीर में वीर्य नहीं है वह जीवित नहीं रह सकता क्योंकि वीर्य की एक बूँद नष्ट करना मृत्यु तथा एक बूँद धारण करना जीवन है। वीर्यवान पुरुषार्थी होता है। साहस और हिम्मत से बोल सकता है, कठिनाई का मुकाबला कर सकता है, वह उत्साही सजीव, शक्तिशाली और दृढ़ निश्चयी होता है। उसे रोग नहीं सताते, वासनाएँ चंचल नहीं बनातीं, दुर्बलताएँ विवश नहीं करतीं। वह प्रभावशाली व्यक्तित्व प्राप्त करता है और दया, क्षमा, शान्ति, परोपकार, भक्ति, प्रेम, वीरता, स्वतन्त्रता, सत्य द्वारा पुण्यात्मा बनता है। धन्य है ऐसा ब्रह्मचारी।
वीर्य का प्रचण्ड प्रताप—
मनुष्य के रक्त में जो जीवाणु हैं, उनका प्रमुख कारण वीर्य नामक तत्व है। रक्त में जो लाली है, जो चमक और आभा है, त्वचा में जो दमक है, उसका प्रधान कारण वीर्य तत्व ही है। वैद्यक शास्त्र में वीर्य को मनुष्य शरीर का सार तत्व माना जाता है। हमारे भोजन से रक्त और रक्त से एक नियमित मात्रा में वीर्य की उत्पत्ति होती है। आयुर्वेद का मत है—भोजन के पचने पर रस, रस से रक्त, रक्त से माँस, माँस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से वीर्य उत्पन्न होता है। रस से लेकर मज्जा तक प्रत्येक धातु पाँच रात दिन और डेढ़ घड़ी तक अपनी अवस्था में रहती है तत्पश्चात् तीस दिन-रात और नौ घड़ी में रस से वीर्य बनता है।
साधारणतः चालीस सेर खुराक से एक सेर रक्त बनता है, और एक सेर खून से दो तोला वीर्य बनता है। एक मनुष्य मास में एक मन से अधिक भोजन नहीं खा सकता। इस प्रकार दो तोला वीर्य एक मास की कमाई है जो मूर्ख और नासमझ लोग एक ही बार में नष्ट कर डालते हैं।
कुछ व्यक्तियों के अनुसार 40 ग्रास आहार से एक बूँद रक्त और 40 बूँद रक्त से 1 बूँद वीर्य तैयार होता है। रासायनिक रूप से वीर्य में खट तथा फास्फोरस की मात्रा अधिक होती है और ये दोनों जीवन-तत्व शारीरिक पोषण के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। प्रारम्भिक 15 वर्ष तक प्रकृति अपने नियंत्रण से वीर्य एकत्रित करती है। किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते वीर्य पकने लगता है और पुरुष में बाह्य तथा आन्तरिक परिवर्तन प्रारम्भ हो जाते हैं। अण्डकोषों से बहिःर्स्राव भी प्रारम्भ हो जाता है। अण्डकोषों के अन्तःस्राव से पुरुष में पुरुषत्व प्रकट होता है। ब्रह्मचर्य का अभिप्राय, शरीर क्रियाविज्ञान की दृष्टि से इन जनन ग्रन्थियों को स्वस्थ रखना है। जनन ग्रन्थियों में जीवन बढ़ता रहता है। इसके संयम से आयु और स्वास्थ्य दोनों को लाभ होता है। यदि इन ग्रन्थियों का अन्तःस्राव होता रहे और शरीर में खपता रहे तो शरीर के अंगों का विकास होता है।
वीर्य को नष्ट करने वाला नरकगामी होता है, जीवनभर रोगी, अभाग्यशाली और दुःखी रहता है। वीर्य अत्यन्त अनमोल वस्तु है। इसी के संचय से मनुष्य देवता बनता है। वीर्य के अभाव से मनुष्य की प्रत्येक प्रकार की उन्नति रुक जाती है। वीर्य चारों पुरुषार्थों का मूल है, मुक्ति देने वाला है। प्रकृति चाहती है कि वीर्य के द्वारा मनुष्य को दृढ़, मजबूत और पुरुषार्थी बनावे, मेधाशक्ति की अभिवृद्धि करे, दीर्घ जीवन, उत्साह, स्वास्थ्य प्रदान करे, आत्मा को बलवान बनावे। 25 वर्ष की आयु तक वीर्य कच्चा रहता है किन्तु इसके अनन्तर ज्यों-ज्यों वीर्य पकने लगता है, मनुष्य अपने आपको जीवन शक्ति से पूर्ण समझता है। जो व्यक्ति मन, वचन, काया से दृढ़तापूर्वक ब्रह्मचर्य पालन करता है, उसी का वीर्य परिपक्व होता है। अंग-अंग सौन्दर्य से परिपूरित हो उठते हैं, मुख तथा कपोलों पर एक अभिनव आत्मा दृष्टिगोचर होने लगती है, वीर्य की परिपक्वता से पूर्व, उसका अपव्यय करने से युवक आजीवन अकर्मण्य, पौरुषहीन और हीनत्व की भावना ग्रन्थि से पूर्ण बनता है।
वीर्य एक ऐसी पूँजी है जिसे बरबाद कर आप बाजार में खरीद नहीं सकते, जिसके अपव्यय से आप ऐसे गरीब बनते हैं कि प्रकृति तक आपके ऊपर दया नहीं करतीं, आरोग्य लुट जाता है, आयु क्षीण हो जाती है आपको एक नियमित प्रमाण में ही वीर्य की पूँजी मिलती है। यह भी आपके अपने संयम, पाचन, भोजन, व्यायाम का परिणाम होता है, इसके लिए आपको स्वयं मेहनत करती होती है। कोई आपको यह पूँजी उधार नहीं दे सकता, दया करके कोई यह अमूल्य पदार्थ आपको दान नहीं दे सकता। इसकी भिक्षा नहीं माँगी जा सकती। अतः सावधान! अपनी इस संचित पूँजी को सम्हाल कर खूब सावधानी से व्यय कीजिए, वीर्य नाश कर मृत्यु की परेशानी की ओर, रोग-शोक की ओर न जाइये। वीर्य-रक्षा द्वारा धन, मान, पद, प्रतिष्ठा, बुद्धि, वैभव, दीर्घायु, सम्पन्नता का आनन्द प्राप्त कीजिए। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक जिम्मेदारियाँ उठाने के लिए ब्रह्मचारी बनिये।
जम जाती है फिर खुजली प्रारम्भ हो जाती है, तत्पश्चात् छोटी-छोटी फुन्सियाँ हो जाती हैं और हाथ अपने आप गुप्त अंगों का स्पर्श करता है। अनजान में ही बालक को उत्तेजना का साधन मिल जाता है।
बालक-बालिकाओं का सहशिक्षा हानिकर है। स्कूल और कालेजों में सहशिक्षा से हानि अधिक हुई है। छिपे-छिपे विद्यार्थी घृणित से घृणित पाप करने के लिए तैयार हो जाता है। कच्ची आयु में लड़के-लड़कियों की संकल्प-शक्ति इतनी दृढ़ नहीं होती कि वे अपनी अप्राकृतिक कामोत्तेजना को संकल्प से दृढ़तापूर्वक शमन कर दें, इस उत्तेजना को शान्त करने के लिए अस्वाभाविक उपायों का अवलम्बन करने लगते हैं।
हमारा आजकल का भोजन इतना अप्राकृतिक हो गया है कि उससे कामवासना कुमारी अवस्था में ही जागृत हो जाती है। मनुष्य जैसा भोजन करता है, वैसा ही बन जाता है। राजसी भोजन से शृंगार रस उत्पन्न होता है। कामवासना उद्दीप्त हो जाती है। राजसी भोजन कौन-कौन से हैं। अत्यन्त उष्ण, कडु़वा, तीखा, नमकीन, मिठाइयाँ, तेल से तले पदार्थ, गरिष्ठ वस्तुएँ, जैसे पकौड़ी, कचौड़ी, मालपुआ, मिष्ठान्न, खट्टा, चरपरा, लाल मिर्च से भरा भोजन, प्याज, लहसुन, माँस, अण्डा, शराब, चाय, काफी, सोडा, लेमन, पान, तम्बाकू, गाँजा, भाँग इत्यादि राजसी भोजन हैं। इनके प्रयोग से नवयुवक का भी मन चंचल हो जाता है। मिर्च, मसाले, खटाई कामोत्तेजक पदार्थ हैं। आज की दुनिया में इन भोजनों का बोलबाला है। आज फैशनेबल जगत में बीड़ी, सिगरेट का जितना प्रचार है, शायद उतना कभी नहीं हुआ। छोटे-छोटे बच्चे बीड़ी फूँकते दिखाई देते हैं, पान खाते हैं, सिनेमा के भद्दे गाने गाते फिरते हैं, कुचेष्टाएँ करते फिरते हैं, अनुचित प्रेम सम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टाएँ करते हैं। यह सब कुछ अज्ञान में होता है। छोटे बालक पाप आचरण से अनजाने में ही भावी सुख, स्वास्थ्य, आयु की जड़ें खोखली कर डालते हैं। वीर्य नाश का फल उन्हें उस समय तो विदित नहीं होता, कुछ आयु बढ़ने पर मोह का पर्दा दूर होता है, वे अपने अज्ञान के लिए पश्चाताप करते हैं। प्रारम्भ का कुसंग, छिपे पाप आचरण, जननेन्द्रिय का असंयम उन्हें गड्ढे में गिराता है। वे जीवन पर्यन्त नहीं सम्हल पाते। रीढ़ में हमेशा दर्द बना रहता है, गठिया सताने लगता है, स्नायु सम्बन्धी रोग फलते हैं। मृगी तथा अन्य मानसिक रोग हो जाने से मानसिक प्रगति बिल्कुल रुक जाती है। ऐसे बूढ़े नवयुवक आज गली-गली में चूरन, चटनी, माजून, वीर्य वर्द्धक गोलियाँ ढूँढ़ते फिरते हैं। अब भी समाज में कहीं-कहीं बाल विवाह प्रचलित है। इसके कारण बालक-बालिकाओं का बड़ा अनैतिक पतन हो रहा है।
प्रत्येक माता-पिता का कर्तव्य है कि किशोरावस्था समाप्त होने से पूर्व किशोर को इस परिवर्तन के रहस्य को धीरे-धीरे समझा दे। यह न समझे कि बालक स्वयं ही इन बातों को समझ लेगा। उसे सन्मार्ग पर चलाने का कार्य पवित्र और उत्तरदायित्व पूर्ण है। शिक्षक भी यथासम्भव निष्प्रयोजन बातों, गन्दे लड़कों, अश्लील पुस्तकों से अपने विद्यार्थियों की रक्षा करें, स्त्रियों में अधिक न बैठने दें, नशीली चीजों से बचावें, सिनेमा के भूत से दूर ही रहने की शिक्षा दें। वीर्यनाश से होने वाले भयंकर रोगों के बताने में जरा भी संकोच न करें। इसमें शर्माना, लजाना या वीतराग रहना मानो भावी नागरिकों का सर्वनाश करना है। यौवन से पूर्व ही प्रस्तुत पुस्तक में वर्णित ब्रह्मचर्य रक्षा के अनमोल नियमों से उन्हें भली भाँति परिचित करा देना चाहिए।
वीर्य रक्षा और पुनरुत्थान के अनूठे नियम —
(1) सात्विक संकल्प—
क्या गृहस्थ, क्या कुमार यदि यह अत्यधिक वीर्यपात का शिकार होकर रोगग्रस्त हो चुका है, सद्संकल्प से पुनः आत्म सुधार के मार्ग का पथिक बन जाता है। ‘‘विश्वासः फलदायक’’ आत्मोन्नति में विश्वास तथा दृढ़ संकल्प पुनरुत्थान के प्रधान तत्त्व हैं। आप आन्तरिक मन से संकल्प कीजिए कि विषयभोग, वीर्यनाश, कामोद्रेक, वासना की पूर्ति; ये स्वास्थ्य, सदाचार, प्रकृति के विरुद्ध हैं। स्त्री प्रसंग करना कफ़न की तैयारी करना है। व्यभिचार, हस्तमैथुन, गुदा मैथुन, कुसंग, क्षण-क्षण निर्बल, निस्तेज, दुःखी तथा अल्पायु बनाने वाले हैं। वीर्य के एक बिन्दु का नष्ट करना मानों अपनी जीवन शक्ति को गन्दे नाले में फेंकना है। सभी अप्राकृतिक वीर्य नाश के मार्ग शरीर की कोमल नसों को निर्बल करने वाले शरीर की चमक-दमक कान्ति का नाश करने वाले हैं। अतः प्रत्येक तर्क से आप आन्तरिक मन को समझाइए कि वह कामोपभोग में प्रवृत्त न हो, न वैसी बातें करे, न सोचे। पवित्र संकल्प कीजिए कि आप पुण्यात्मा, सदाचारी, वीर्यवान् बनेंगे, जीवन की सर्वांगीण उन्नति करेंगे, बुद्धि तथा मन को शिव संकल्प, शुद्ध विचार, कल्याणकारी कामों में लगायेंगे और मन, वचन, कर्म द्वारा अद्भुत दैवी शक्ति प्रकट करेंगे।
शुभ संकल्प उन पुष्ट विचारों का नाम है जिनमें कूट-कूटकर विश्वास भरा हो। यदि आप हृदय से चाहते हैं कि निम्न जीवन की भूमिका से उठकर उच्च आध्यात्मिक जीवन पर चलें, तो उसके लिए दृढ़ संकल्प कर लीजिए। अपने संकल्प तथा विचारों से हम नेष्ट या श्रेष्ठ बनते हैं। यदि गुप्त रूप से मन में आन्तरिक गुप्त मन में कोई दबी हुई वासना या कुकल्पना छिपी रहे, तो वह भी साधक का पतन करने के चारों ओर उसी प्रकार वातावरण निर्माण करते हैं। मन में सद्संकल्प को सजाना, आन्तरिक मन में दृढ़ता से जमाना वीर्य रक्षा का प्रथम सोपान है।
पुण्य संकल्पों में पाप संकल्पों से कहीं अधिक शक्ति है। पाप स्वयं निर्बल है, वह असत्य है, खोखला और निर्जीव है। उसमें स्थायित्व नहीं, ठहराव नहीं। अतः पुण्य-संकल्प स्वभावतः ही बुरे विचार, कुकल्पना दुश्चिन्ताओं को परास्त करेंगे। पापमय भावना पुण्य संकल्प के समक्ष ठहर नहीं सकती। भगवान ने स्वयं कहा है-‘तुम्हारी यह चेष्टा कभी निष्फल न होगी। तुम्हारा अवश्य उद्धार होगा।’ आपके पुण्य संकल्प निश्चय ही पापमय वासना को दग्ध कर देंगे। कुबुद्धि अज्ञान और कुविचारों को परास्त करेंगे। दुःस्वप्नों का नाश करेंगे। आपके हृदय में एक अन्तःज्योति है, ईश्वर का एक मंदिर है, अन्तरात्मा की एक आवाज है, उसे विकसित कीजिए। उस दैवी ज्योति को जाग्रत कीजिये। यह विवेक जागृति ही उन्नति का राजमार्ग है। इस अन्तर्ज्योति के जाग्रत होने से कामवासना, रतिप्रसंग, विषयोरभोग से स्वयं वैराग्य हो जायेगा। यह अन्तर्ज्योति चैतन्य शक्ति है, अन्तर्बल है। आज से ही दृढ़तापूर्वक संकल्प कीजिए-‘‘मैं कभी निंद्य वासना से सने हुए अपवित्र विचारों, गंदी कल्पनाओं की तरंगों को हृदय में ग्रहण नहीं करता। मैं प्रत्येक स्त्री को माता या भगिनी के रूप में देखता हूँ। इन्द्रियाँ मेरे वश में है, मैं पूर्ण ब्रह्मचारी हूँ। वीर्य की रक्षा करता हूँ। शुभ सोचता हूँ, शुभ कर्म करता हूँ। कामवासना मनुष्य का पतन करने वाली है। वह विध्वंसक है। अतः मैंने उसे जड़ मूल से उखाड़ फेंकने का निश्चय किया है। मैं इस शुद्ध विचार द्वारा ही वीर्यरक्षा कर सकता हूँ। बिन्दु को साधने वाला सप्त सिंधुओं को अपनी मुट्ठी में कर सकता है। सम्पूर्ण संसार में ऐसी कोई स्थिति नहीं जिसे ब्रह्मचारी अपने वश में न कर सकता हो। वीर्य रक्षा के इस संकल्प में निश्चय ही मेरी विजय होगी।’’
यह तत्व गाँठ बाँध लीजिये कि मनुष्य गन्दे और निंद्य विचारों से पापात्मा और शुद्ध विवेक पूर्ण दृष्टि से पुण्यात्मा बनता है। अतः आप हृदय मंदिर में पवित्रता, प्रेम, प्रसन्नता, उत्साह, निर्भयता, सभ्यता और शान्तिदायक सद्विचारों का आवाहन कीजिए। कामुक भावना स्वयं दग्ध हो जायेगी।
तपाने से स्वर्ण आदि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध हो जाता है, वैसे ही प्राणायाम करने से मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं।’’ प्राणायाम से मन की अवस्था शान्त और स्थिर हो जाती है और चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इस अवस्था में ब्रह्मचारी को जो आनन्द होता है, वह अवर्णनीय है। यदि आप ब्रह्मचर्य स्थिर रखना चाहते हो तो प्राणों पर काबू करने के लिये प्राणायाम अवश्य कीजिये।
प्राणायाम से अनेक लाभ हैं। मन और चित्त की वृत्ति का निरोध होकर ज्ञान प्राप्त होता है, आयुष्य की वृद्धि होती है, सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के शरीरों का विकास होता है, इन्द्रियों पर बहुत शीघ्र विजय प्राप्त होती है, वीर्य ऊर्ध्वगामी और अमोघ हो जाता है, धारणा शक्ति का विकास, दिव्य बुद्धि की प्राप्ति और विषय-वासना का नाश होता है। शारीरिक विकार दूर होकर मन हलका हो जाता है।
प्राणायाम तीन प्रकार का होता है—
पूरक, कुम्भक और रेचक। पूरक अर्थात् शरीर में शुद्ध वायु पूर्ण रूप से भरना। शुद्ध वायु के भरने से रक्त पवित्र होता है, प्राणवायु से नवजीवन प्राप्त होता है। कुम्भक का अर्थ है—फेफड़ों में भरी हुई वायु को स्थिर रखना और रेचक का अभिप्राय है हवा को धीरे-धीरे बाहर निकालना। इन तीनों क्रियाओं का मतलब यही है कि हम श्वास-प्रश्वास की क्रियाओं को करें, फेफड़ों में धीरे-धीरे हवा भरें। उसे कुछ देर तक अन्दर रक्खें, स्थिर रखें और तत्पश्चात धीरे-धीरे बाहर निकालें। इन क्रियाओं से दूषित वायु बाहर निकलेगी और शुद्ध वायु से फेफड़े अपना कार्य अच्छी तरह कर सकेंगे। नासिका के एक स्वर से वायु भरना और दूसरे से निकालना भी अत्युत्तम है। पूरक, कुम्भक और रेचक तीनों मिलकर प्राणायाम हुआ। यह क्रिया बार-बार होनी चाहिए।
प्राणायाम से आत्मबल बढ़ता है और विचारों से सात्विक भावनाएँ उठने लगती हैं, मस्तिष्क की थकान दूर हो जाती है। आत्मज्योति जाग्रत होने लगती है और वीर्य शुद्ध बनता है। प्राणायाम से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। अतः दीर्घायु, निरोग ब्रह्मचारी और सामर्थ्य सम्पन्न बनने के लिये प्राणायाम की प्रचंड शक्ति को अपनाइये।
उद्योगी बनिये—
आलस्य जीवन का मैल है। काम में आने वाला औजार चमकदार रहता और अधिक चलता है। उसी भाँति जो ब्रह्मचारी सदा उद्योग में प्रवृत्त रहता है, व्यर्थ गप-शप में, निन्दा, पर छिद्रान्वेषण में अपना समय नहीं लगाता, वह काम वासना को दमन कर सकता है। ऐसे उद्योगी व्यक्ति के पास वासना पूर्ति के लिये समय ही कहाँ? आलसी व्यक्ति को कामदेव पटक-पटक कर मारता है। किन्तु जो सदा सुकर्मों में प्रवृत्त रहता है, आलस्य को मार भगाता है, वह निरन्तर प्रगतिवान् रहता है। निरुद्योगी पुरुष कभी ब्रह्मचर्य धारण नहीं कर सकता, सततोद्योगी अपनी कांति, सुगन्ध से सबका मन मोह सकता है। उद्योग से नीच वासनाएँ स्वयं दब जाती हैं।
ब्रह्मचारियो! अपने जीवन का एक पल भी व्यर्थ बर्बाद न करो। कुछ-न करते रहो। आलसी मस्तिष्क शैतान का पिटारा बन जाता है। उद्योगी के पास आलस्य नहीं फटक सकता। वह जगत् का कल्याण भी कर सकता है, साथ ही समाज सेवा, जनता में धर्म प्रचार भी पर्याप्त रूप से कर सकता है। वह निकम्मा न रहे, अपने जीवन के प्रत्येक पल का सदुपयोग करे, उद्योगी बने।