क्षत्रियों का ऐतिहासिक महत्व

शौर्यंतेजा धृतिर्दाक्ष्यं युद्वे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभाववश्रच् क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
गीता
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में से न भागना, दान देना और स्वाभिमान – ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं


भारत में वर्ण व्यवस्था की शुरुआत के पहले से ही क्षत्रियों के अस्तित्व की जानकारी उपलब्ध है। ऋग्वेद में अनेकों स्थान पर ‘‘क्षत्र‘‘ एवं क्षत्रिय शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद में क्षत्रिय शब्द का प्रयोग शासक वर्ग के व्यक्तित्व का सूचक है। यहां पर ‘‘क्षत्र‘‘ का प्रयोग प्रायः शूरता एवं वीरता के अर्थ में हुआ है। जिसका अभिप्राय लोगों की रक्षा करना था तथा गरीबों को संरक्षण देना था। यहां क्षत्रिय शब्द का प्रयोग राजा के लिये किया गया है। अतः समाज में क्षत्रियों का एक समूह बन गया जो शूर, वीरता और भूस्वामी के रूप में अपना आधिपत्य स्थापित किया और शासक के रूप में प्रतिष्ठित हुये।

उत्तर वैदिक काल तक क्षत्रियों को राजकुल से संबंधित मान लिया गया। इस वर्ग के व्यक्ति युद्ध कौशल और प्रशासनिक योग्यता में अग्रणी माने जाने लगे। यह समय क्षत्रियों के उत्कर्ष का समय था। इस काल में क्षत्रियों को वंशानुगत अधिकार मिल गया था तथा वे शस्त्र और शास्त्र के ज्ञाता भी बन गये थे। इस प्रकार राजा जो क्षत्रिय होता था वह राज्य और धर्म दोनों पर प्रभावी हुआ। पुरोहितों पर राजा का इतना प्रभाव पड़ा कि वे राजा का गुणगान करने लगे तथा उनको महिमा मंडित करने के लिये उन्हें दैवी गुणों से आरोहित किया और उन्हें देवत्व प्रदान किया तथा अपनी शक्ति के प्रभाव से राजा को अदण्डनीय घोषित किया गया।
राजपद एवं राजा की प्रतिष्ठा के साथ क्षत्रियों की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई। वृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि क्षत्रिय से श्रेष्ठ कोई नहीं है। ब्राह्मण का स्थान उसके बाद आता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि राज्य शक्ति से सम्मिलित क्षत्रिय जो ब्राह्मणों के रक्षक और पालक हैं सामाजिक क्षेत्र में श्रेष्ठ स्वीकार किये गये। ब्राह्मण की श्रेष्ठता का आधार उनका बौद्धिक एवं दार्शनिक होना था। इसका हास हुआ और क्षत्रिय इन क्षेत्रों में भी अग्रणी हुये। राजा जनक, प्रवाहणजबलि, अश्वपति, कैकेय और काशी नरेश अजातशत्रु ऐसे शासक थे, जिनसे शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने ब्राह्मण आते थे। पौरोहित्य, याज्ञिक क्रियाओं, दार्शनिक गवेषणाओं में भी क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के एकाधिकार को चुनौती दी। इन परिस्थितियों में क्षत्रियों ने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को अस्वीकार किया। महाभारत में तो यहां तक कहा गया कि ब्राह्मणों को क्षति से बचाने के कारण ये ‘‘क्षत्रिय‘‘ कहे गये। इस प्रकार क्षत्रियों ने शस्त्र और शास्त्र दोनों के ज्ञाता हो अपनी श्रेष्ठता स्थापित की।

इस पूर्ण भू भारत के चप्पा-चप्पा भू को रक्त से सींचने वाले क्षत्रिय वंश के पूर्वज ही तो थे। इनकी कितनी सुंदर समाज व्यवस्था, कितनी आदर्श परिवार व्यवस्था, कितनी निष्कपट राज व्यवस्था, कितनी कल्याणकारी अर्थव्यवस्था और कितनी ऊंची धर्म व्यवस्था थी। आज भी क्षत्रिय वंश और भारत को उन व्यवस्थाओं पर गर्व है। यह व्यवस्थाएँ क्षत्रिय वंश द्वारा निर्मित, रक्षित और संचालित थीं। इसके उपरांत विश्व साहित्य के अनुपम ग्रन्थ महाभारत और रामायण इसी काल में निर्मित हुए। गीता जैसा अमूल्य रत्न भी इसी वंश की कहानी कहता है। जिसका मूल्यांकन आज का विद्वान न कर सका है और न कर सकता है। इन दोनों में क्षत्रिय वंश के पूर्वजों की गौरव गाथाएँ और महिमा का वर्णन है। जिन्होंने विश्व विजय किया था और इस भूखंड के चक्रवर्ती सम्राट रहे थे। महाभारत का युद्ध दो भाइयों के परिवार का साधारण गृह युद्ध नहीं था। वह धर्म और अधर्म का युद्ध था। जो छात्र धर्म के औचित्य और स्वरूप को स्थिर रखने का उदाहरण था।

16 कला के अवतार श्री कृष्ण

परम् ब्रह्म परमात्मा के रूप में जिस भगवान कृष्ण की भक्ति का भागवत में वर्णन किया गया है, वे 16 कलाओं से परिपूर्ण भगवान कृष्ण भी तो हमारे पूर्वज थे। यह जाति अति आदर्श वान, उच्च निर्भीक और अद्वितीय है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्य, और उत्पीड़न के सामने झुकना, नतमस्तक होना नहीं जानती तथा वह पराजय व पतन को भी विजय और उल्लास में बदलना जानती है। रघुवंशियों के गौरव गाथा और उज्ज्वल महिमा का वर्णन रघुवंश में दिया गया है। इसे पढ़ने पर मन आनंदित और आत्मा पुलकित हो उठती है।

अयोध्या पति श्री राम रघुवंशी

परम् पिता परमेश्वर अयोध्या पति श्री राम रघुवंशी भी तो हमारे पूर्वज थे। उनके गौरव व बड़प्पन की तुलना संसार में किसी से नहीं की जा सकी। यहीं कहीं बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रवर्तक और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले क्षत्रिय पुत्र भगवान बुद्ध और क्षत्रिय पुत्र महावीर ही तो थे। जिन्होंने उस समय देश को अहिंसा का पाठ पढ़ाया। अतः इस वसुन्धरा में क्षत्रिय जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति विद्यमान नहीं है, जिसके पीछे इतना साहित्यिक बल, प्रेरणा के स्त्रोत और जिनकी गौरवमई गरिमा एवं शौर्य का वर्णन इतने व्यापक और प्रभावपूर्ण ढंग से हुआ हो। अपने सम्मान और कुल गौरव की रक्षा के लिए वीरांगनाओं ने अग्नि स्नान (जौहर) और धारा (तलवार) स्नान किया है। मैं यह मानने के लिए कभी तैयार नहीं हूँ कि जिस जाति और वंश के पास इतनी अमूल्य निधि और अटूट साहित्यिक निधि हो वह स्वयं अपने पर गर्व नहीं कर सकती।

सतयुग का इतिहास हमें वैदिक वाङ्मय के रूप में देखने को मिलता है

वैदिक और उत्तर वैदिक साहित्य में तत्कालीन जीवन दर्शन समाज व्यवस्था आदि का सांगोपांग चित्रण मिलता है। त्रेता और द्वापर युगों के इतिहास पर समस्त पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत उसी इतिहास के दो अमूल्य ग्रंथ है। महाभारत काल के पूर्व का हजारों वर्षों का इतिहास क्षत्रिय इतिहास मात्र है। महाभारत काल के पश्चात लगभग डेढ़ हजार वर्ष का इतिहास भारतीय इतिहास की दृष्टि से अंधकार का युग कहा जा सकता है, पर यह बताने में हमें तनिक भी संकोच नहीं है कि उस समय का समस्त भारत और आस-पास के प्रदेशों पर क्षत्रियों का सार्वभौम प्रभुत्व था।

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