गांधी जी भारतीयता की कसौटी के रूप में:संदीप

एक बड़ा आलेख उनके लिए जो गांधी जी को वास्तव में जानने के इच्छुक हैं।

बुद्ध और गांधी निश्चय ही पूरी दुनिया में भारत की पहचान के दो सबसे बड़े प्रतीक हैं इस चीज के बावजूद के भारत में गांधी विरोधियों की संख्या गाँधी को समझने वालों से बहुत बड़ी है क्
कारण जो भी हो , अशिक्षा , लंबी मानसिक गुलामी , नागरिकता की भावना की भीषण कमी और इसके अनिवार्य उत्पाद के रूप में दक्षिणपंथ का सहज़ उभार। एक विद्वान लेखक ( जिनका नाम भूल रहा हूँ ) लिखते हैं कि –

‘आज के अंधे नेता (और लोग भी) जिन्होंने कभी हाथी नहीं देखा, गांधी रूपी हाथी के पांव को छूकर खम्बा, पूंछ को छूकर रस्सी या कान को छूकर सूप इत्यादि समझते हैं।’

गांधी को इसी तरह समझा गया है। कम्युनिस्टों के लिए गांधी पूंजीपतियों का ‘दलाल’ था और पूंजीपतियों की निगाह में ‘सर्वहारा का नायक।’ मुस्लिम कट्टरपंथियों के लिए वह ‘हिन्दू सम्प्रदायवादी’ था और हिन्दू कट्टरपंथियों के लिए ‘मुस्लिमपरस्त।’ दलित चिंतकों को वह वर्ण व्यवस्था और जातिप्रथा का पोषक नजर आता है और उनके अछूतोद्धार को वे ढकोसला बताते हैं। दलितों को महज वोटबैंक मानने वाले लोग उसे आंबेडकर विरोधी बताते नहीं थकते। कुछ बुद्धिविलासियों का दावा है कि वह खोखला, पाखंडी, मूलतः डरपोक और चालाक किस्म का आदमी था तो कुछ उसे ‘चतुर बनिया’ मानते थे। कुछ लोगों को उसे आजादी का नायक मानने में ऐतराज है।कुछ को सख्त आपत्ति है उसे ‘राष्ट्रपिता’ क्यों कहा जाता है। कुछ अन्य ने खोज की है कि वह ‘शैतान की औलाद’ था। एक दल गांधी को अपनी जायदाद समझता है और उसे एक ट्रेडमार्क की तरह इस्तेमाल करता है तो दूसरा दल गांधी और गोडसे की एक साथ जय बोलकर अपने राजनैतिक हित साधता है।

सबके अपने-अपने स्वार्थों के बहुरंगी चश्में हैं। गांधी का इन विविध व्याख्याओं से कुछ लेना-देना नहीं। गांधी अपने सादगीपूर्ण जीवन की तरह सहज-सरल से लगते हैं। इसलिये हर ऐरा-गैरा उन पर जजमेंट पास करना अपना अधिकार समझता है। परंतु वे कई परतों वाले एक बहुआयामी और जटिल ऐतिहासिक चरित्र हैं। जिसके चश्में में सत्य का सर्वथा शुद्ध और पारदर्शी शीशा लगा होगा, जिसे धैर्यपूर्वक गांधी को देखने समझने का समय होगा उसे ही गांधी का सच्चा रूप दिखाई देगा।

और इसके लिए कम से कम 10 वर्ष चाहिए। उनके लिखे , उन पर लिखे और उनके पत्र व्यवहार को पढ़कर वास्तविक गांधी की तलाश एक श्रमसाध्य प्रक्रिया है जो हर कोई नही कर सकता। मेरे प्रिय लेखक सुशोभित ने ऐसी मेहनत की और आज वे गांधी को समझकर एक प्यारी सी पुस्तक भी लिख चुके हैं। वे अपने एक ताज़े लेख में लिखते हैं –

” महात्मा गांधी पर एक दक्षिणपंथी मित्र की वह टिप्पणी देखकर मैं चकित तो नहीं हुआ, किंतु सोच में अवश्य डूबा। मित्र का आरोप था कि महात्मा गांधी यथास्थितिवादी थे और ठोस निर्णय नहीं ले पाते थे (क्या ही अचरज है कि महात्मा पर ठीक यही आरोप आम्बेडकरवादी और धुर वामपंथी भी लगाते हैं)। मैं सोचने लगा कि वे महात्मा गांधी से किस प्रकार के ठोस-निर्णयों की अपेक्षा करते हैं? वे चाहते हैं कि औपनिवेशिकता के प्रश्न पर गांधीजी मदन, भगत और सुभाष जैसी रैडिकल निर्णयशीलता दिखलाते और मुसलमानों के प्रश्न पर तिळक और सावरकर जैसी। किंतु क्या वे यह भी चाहते कि वर्ण-व्यवस्था के प्रश्न पर गांधी पेरियार और आम्बेडकर जैसी निर्णयशीलता दिखलाते? इस एक बिंदु पर आकर सभी परिप्रेक्ष्य गड़बड़ हो जाते हैं।

मित्रों की महात्मा गांधी से यह शिकायत है कि उन्होंने बम-बंदूक़-पिस्तौल से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ निर्णायक लड़ाई नहीं की। उन्होंने वैसा रास्ता क्यों नहीं चुना, इसका उत्तर उन्होंने 1908 में ही हिन्द स्वराज में अत्यंत पारदर्शिता के साथ दे दिया था। किंतु उनसे अपेक्षा यह की जाती है कि पानीपत के जैसी किसी निर्णायक लड़ाई में वे भारत के सेनापति की तरह अंग्रेज़ों को परास्त करते और नरमुण्डों की माला पहनकर अट्‌टहास करते। बाद उसके, मुसलमानों के प्रश्न पर वो कौन-सी नीति अपनाते? बँटवारे के प्रश्न पर मित्रों की महात्मा गांधी से यह अपेक्षा है कि वे एक-एक मुसलमान को भारत से बाहर खदेड़ देते, जबकि यह सैंतालीस के गांधी तो क्या, आज के महाबली भी नहीं कर सकते हैं। किंतु इनके इतर भारत की जो बुनियादी समस्याएँ हैं, उनके प्रति वो महात्मा गांधी से किस प्रकार के रवैये की अपेक्षा रखते हैं? इस पर भी कोई दक्षिणपंथी मित्र अगर प्रकाश डाले तो श्रेयस्कर होगा कि यदि वो गांधीजी के यथास्थितिवाद से आहत होते हैं तो क्या वो गांधीजी को वर्ण-व्यवस्था के हितपोषक के रूप में देखकर संतुष्ट होते या सामाजिक-क्रांति के अग्रदूत के रूप में उनकी कल्पना करते? क्योंकि- प्रसंगवश- मैं तो जब दक्षिणपंथियों के नायकों की सूची देखता हूँ तो उसमें मुझको कोई सामाजिक-क्रांति का नायक या सुधारक नहीं दिखलाई देता। पूछा जाना चाहिए कि तब यथास्थितिवादी कौन है?

कल्पना कीजिये अगर भारत में कभी तुर्कों-मंगोलों या यूरोपीय औपनिवेशिकों का आगमन नहीं होता, और ग्यारहवीं सदी की यथास्थिति बहाल रहती, तब उस कथित स्वर्णयुग में भारत-देश अपने दोषों के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराता? क्योंकि दोषों की कोई कमी नहीं थी। होती तो ढाई हज़ार साल पहले गौतम बुद्ध प्रासंगिक नहीं हुए होते। भारत की अनेक बीमारियों के मूल में जाति-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवाद, एक विचित्र क़िस्म की आनुष्ठानिकता, पाखण्ड और कर्मकाण्ड, आकाशवृत्ति, आलस्य, आत्ममुग्धता, क्षेत्रवाद और थोथा जातीय गौरव है। महात्मा गांधी को यथास्थितिवादी कहने वाले इन सबके प्रति उनसे किस प्रकार के रवैये की अपेक्षा रखते हैं?

वास्तव में, गोखळे-तिळक द्वैत से लेकर जिन्ना-सावरकर और नेहरू-पटेल द्वैत तक- जिसमें त्रिकोण की तीसरी भुजा की तरह आम्बेडकर दिखलाई देते हैं- के बीच एक गांधी ही थे, जो भारत-देश की नियति के प्रति एक रचनात्मक, संश्लिष्ट और व्यापक दृष्टि रखते थे। गांधी के धैर्य की कोई सीमा नहीं थी जबकि वे खण्डित-दृष्टि रखने वाले अधीरों के बीच खड़े थे। गांधी जानते थे- और इकलौते वे ही यह जान पाए थे- कि जाति, समुदाय, भाषा, प्रान्त में बँटा यह महादेश विखण्डन और गृहयुद्ध के लिए जितना तत्पर है, उतना एकत्व और समरसता के लिए नहीं, और एक महान-प्रेरणा ही उसे एक सूत्र में पिरो सकती है। यह प्रेरणा एक वैसी भारतीय-चेतना में निहित थी, जिसके मूल में उग्र राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक दर्प या जातिगत श्रेष्ठता नहीं, बल्कि उजले चरित्र वाली आध्यात्मिक-नैतिकता थी।

महात्मा गांधी उस तरह से आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे, जिस तरह से कोई केंद्र में सत्ता-परिवर्तन की चाह रखता है, जैसी प्रवृत्तियां आज की राजनीति में भी जस की तस चली आई हैं। वे बुनियादी इकाइयों से बदलाव की शुरुआत करना चाहते थे और उनके यहाँ सबसे बुनियादी इकाई स्वयं व्यक्ति था। स्वराज और सर्वोदय कोई पारलौकिक व्यवस्थाएँ नहीं थीं, जो किसी महानायक के द्वारा ऊपर से देश पर आरोपित की जातीं। इसके बनिस्बत इन्हें हरेक व्यक्ति के भीतर से निकलकर देश में व्याप जाना था। यह एक असम्भव स्वप्न था और महात्मा गांधी यह भली प्रकार जानते थे, इसके बावजूद उन्होंने इसके लिए स्वयं को होम किया, क्योंकि इससे कम पर राज़ी होना भारत की आत्मा के साथ समझौता करने जैसा था।

यह एक ऐसी व्यापक और विशिष्ट राष्ट्रीय-चेतना थी, जो ना नेहरू में दिखती है ना आम्बेडकर में, ना तिळक में दिखती है ना सावरकर में। जिसे गांधी का यथास्थितिवाद या समझौतावाद कहा जाता है, वह वास्तव में उनका अगाध धीरज और गहरी समझ है। क्योंकि उनसे बेहतर इस बात को कौन समझता था कि क्रोध, कुंठा, आवेश में लिए गए निर्णय कभी भी सत्यपूर्ण और अहिंसक नहीं हो सकते और गांधी इन्हीं दो मूल्यों की अहर्निश उपासना किया करते थे। यह महास्वप्न किसी वैसी क्रांति से नहीं पाया जा सकता था, जिसकी कल्पना इंक़लाब और उसके विरोधी दोनों ही आज करते पाए जाते हैं। उनका कार्यक्रम दीर्घकालीन था और उनके अपने जीवनकाल में निपटने वाला नहीं था, लेकिन आप पाएंगे कि उनकी दृष्टि में इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प था भी नहीं।

जब हम ऊपर से थोपे गए कथित महानायकों से ऊब जावेंगे, चरित्र की उज्ज्वलता को देखने योग्य एक निरंजन-दृष्टि विकसित कर सकेंगे और सत्ता व उत्क्रांति जैसी चीज़ों को एक व्यापक-परिप्रेक्ष्य में देख सकेंगे, तब जाकर हम समझेंगे कि आधुनिक भारत के इतिहास अगर कोई एक व्यक्ति यथास्थितिवादी नहीं था, तो वो महात्मा गांधी थे।

गांधी एक बहुत महान रूपांतरण की ओर भारत को ले जाना चाहते थे। जबकि उनके जो समकालीन बहुत निर्णयशीलता से भरे दिखलाई देते हैं, वो उनकी तुलना में एक पूर्वनिर्धारित व्यवस्था को- फिर चाहे वह वाम-प्रणीत हो या दक्षिण-प्रणीत, पश्चिमी हो या सनातनी- भारत में प्रतिष्ठित कर निश्चिंत हो जाना चाहते थे। अपनी मृत्यु की पूर्व-संध्या पर महात्मा गांधी केवल कांग्रेस के विघटन पर चिंतन नहीं कर रहे थे- जैसा कि आज दक्षिणपंथियों के द्वारा कुप्रचारित किया जाता है- बल्कि वे एक ऐसी केंद्रीकृत राज-प्रणाली के प्रति अपने संशय को प्रकट कर रहे थो, जो समाज में गुणात्मक बदलाव लाए बिना- एक चक्रवर्ती सम्राट की शैली में- उस पर एक व्यवस्था को आरोपित करना चाहती थी। हज़ार साल में भी यह व्यवस्था कभी सफल नहीं हो सकती थी, ना हो सकी है- जैसा कि आप आज अपने वर्तमान में देख सकते हैं। जिस व्यक्ति ने सत्य के निरंतर प्रयोगों को अपना जीवन-आधार बनाया हो, वह यथास्थितिवादी भला कैसे हो सकता है? यथास्थितिवादी तो वो हैं, जो अपने तात्कालिक-हितों से परे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य को देखने में सक्षम नहीं होते।

महात्मा गांधी की परख करने के लिए बहुत गम्भीर, पारदर्शी, निष्कलुष चेतना और मर्मबेधी-तलस्पर्शी दृष्टि की आवश्यकता है बंधु, अपनी अधीरताओं और उग्रताओं से आप कभी उन्हें उलीच नहीं पाओगे, आज के दिन बस इतना ही स्मरण रखियेगा। इति। “…….

कबीर पर एक ग्रुप चलाने वाले मेरे मित्र बहुत तल्खी से एक प्रासंगिक बात उठाते हैं-

“तुम खोखले हो या मक्कार यह खुद तय करो । गाँधी के सामने शास्त्री को रखते हो,मैं कहता हूँ चलो गाँधी छोड़ो शास्त्री को ही जीवन मे उतार लो । तुम गाँधी के सामने अम्बेडकर को रखते हो,मैं कहता हूँ चलो गाँधी को छोड़ो अम्बेडकर को ही मान लो । तुम गाँधी पर हमले सुभाष के पीछे छिप कर करते हो,मैं कहता हूँ गाँधी छोड़ो यार, सुभाष को ही मान लो । तुम गाँधी के सामने भगत सिंह को रखते हो,मैं फिर कहता हूँ गाँधी को छोड़ो भगत सिंह को ही मान लो,मगर नही,तुम्हे इनमे से किसी को नही मानना है, क्योंकि इन्हें मानने से इंसान बन सकते हो । इनमे से हर एक ने नफरत के खिलाफ एकता पर ज़ोर दिया,इनमे से हरएक ने हिन्दू मुसलमान को एक रखने का प्रयत्न ही किया है ,नफरत के खिलाफ होकर मानवता पर ही ज़ोर दिया है ।

कट्टर हिन्दू हो या कट्टर मुसलमान,उनकी आंख में गाँधी चुभते हैं, क्योंकि उनके खूनी मंसूबों पर गाँधी पानी डाल देते हैं । मेरे नज़दीक़ चाहे कोई दोस्त हो या दुश्मन अगर वह गाँधी से चिढ़ता है, नफरत करता है, तो मैं मानकर चलता हूँ की अपनी जरूरत पर यह मेरी पीठ में गोली मार देगा या सीने पर भी मार सकता है, वह चाहे कितना अच्छा दोस्त क्यों न हों । गाँधी मेरे लिए नफरत का लिटमस टेस्ट हैं ।

गाँधी से नफरत करके भला कोई कैसे समाज से प्रेम कर सकता है । यह बात अगर झूठी होती,तो गाँधी की आंख बंद करते ही करोणों घरों के चूल्हे गम में बुझ न जाते । जाकर देखना,दो तीन पीढ़ी ऊपर,अपने ही घर मे,अपने ही पुरखों को,उन्होंने गाँधी को पलकों पर बैठाया था । वह मूर्ख नही थे,वह देश से प्रेम करते थे,मानवता से प्रेम करते थे और देश-मानवता से प्रेम करने वाला कभी भी गाँधी से नफरत नही कर सकता ।

कोई गाँधी को माने या न माने,गाली दे या गुणगान करे । गाँधी हम सबकी पहुँच के बहुत आगे निकल चुके हैं, धरती के कण कण में,तुम नही याद करोगे तो दुनिया याद करेगी । जहाँ प्रेम होगा, वह गाँधी को याद करेगा । गाँधी किसी के मोहताज न ज़िन्दगी में थे और न ही ज़िन्दगी के बाद भी.”……….

खरी खरी लिखने वाले अताह तापस लिखते हैं-

“गांधीजी को समझने के लिए आइंस्टाइन के बराबर का आईक्यू चाहिए! मानसिक गुलामी करनेवालों के लिए उन्हें समझना नामुमकिन है। बापू के जीवन के बारे में सोचते हुए मुझे पाउलो कोइल्हो की किताब अल्केमिस्ट का तत्व अधिक स्पष्ट होता है कि हम भेड़ नहीं, इंसान हैं। खाना – पीना और बसेरा मिल जाना मात्र जिंदगी नहीं है, जैसे भेड़ें रहती हैं।

गांधी का विरोध करनेवालों की जिंदगी पर कभी गौर कीजिएगा। उन्हें मान – अपमान से फर्क नहीं पड़ता। उनके लिए जीवन किसी की इनायत का टुकड़ा होता है। वे भेड़ों की तरह हांके जाने को सहजता से स्वीकार लेते हैं और तर्क नहीं करते। वे इसे व्यवहारिकता करार देते हैं – “हम तो ऐसे ही हैं भैया” !

सोचिए यह कितना बुरा है कि आपको भेड़ की तरह गुज़र – बसर करना पड़ रहा है, और आप मालिक की बताई राह पर घास चरते हुए अपना ऊन, दूध और अंततः मांस देने के लिए तैयार हैं। क्या मतलब ऐसे जीने का जिसमें सोने की जंजीर गले में बंधी हो और हैसियत सारमेय की हो।

अभी कुछ दिनों पहले मेरी एक महिला मित्र ने एक पहचान के युवक को बिना रीढ़ का इंसान कहा था। पहले मैंने उन्हें गलत माना, लेकिन चिंतन पर पाया कि मेरी वे मित्र 100 फ़ीसदी सही हैं। गुलामों की तरह सर गड़ाए रहनेवाले अपनी जिंदगी में क्या ही हासिल कर पाएंगे? वे तो स्वतंत्रता से सोच भी नहीं सकते, बोल क्या पाएंगे? और जब आजादी से बोल नहीं पाएंगे, तो एक आजाद देश में उनकी स्थिति भेड़ से अलग कैसे हो सकती है!

महात्मा ने कभी ज्ञान नहीं झाड़ा। इतिहास नहीं बांचा। मजबूरियों की गिनती नहीं करते रहे। वे सच्चाई से भागे नहीं, उससे साक्षात्कार करना सीखा। अपने सत्य का साक्षात्कार करना सबसे बड़ी बहादुरी है और अपनी वास्तविकता से दूर भागना सबसे बड़ी कायरता।
गांधी बहुत अच्छे वक्ता नहीं थे, परन्तु कर्म से अपने विचार स्थापित करते आए जो चिरकाल तक बने रहेंगे।

मैं उन लोगों से दूर रहता हूं जिनमें भेड़ की मानसिकता छिपी है, जिन्हें हांके जाने पर कोई आपत्ति नहीं है। मैं अपने अंदर हमेशा गांधी की प्रतिमूर्ति रखता हूं ताकि इंसान बना रहूं। उन्होंने देश को तो आजाद कराया ही, मुझ जैसे न जाने कितने लोगों को उनके जीवन से मानसिक स्वतंत्रता का अधिकार मालूम हुआ। आप क्या बोलते हैं, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आप कैसे जीते हैं! आपके जीने का तरीका आपकी पहचान बनता है।

गांधीजी का जीवन ही उनका संदेश है! “

भाई समर अनार्य गाँधी व भगतसिंह के मुद्दे पर जवाब देते हुए लिखते हैं कि-

“भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को तय तारीख़ से 6 दिन पहले ही फाँसी दी जा चुकी है। पूरे देश में भयानक ग़ुस्सा है। ‘गान्ही बाबा’ तक लपेटे में हैं।

कांग्रेस सम्मेलन के लिए कराची पहुँचे हैं- मालीर स्टेशन पर- लाल कुर्ता पहने नौजवान भारत सभा के युवकों ने काले कपड़े से बने फूलों की माला उन्हें भेंट की है। ध्यान दें, फेंकी नहीं है, हमला नहीं किया है- भेंट की है। दुखी, भीतर से टूटे हुए गांधीजी ने स्वीकारी है- कहा है ‘काले कपड़े के वे फूल तीनों देशभक्तों की चिता की राख के प्रतीक थे.’

25 मार्च को कांग्रेस के अधिवेशन में सरदार पटेल बोलते हैं। ग़ुस्से से भरे नौजवान बोलने नहीं देते। फिर गांधी नेहरू को आगे करते हैं- वे नेहरू जो भगत सिंह और साथियों से मिलने जेल गये थे- भगत सिंह ने आख़िरी पत्रों में युवाओं से जिनके रास्ते पर चलने का आह्वान किया था। नेहरू ने प्रस्ताव रखा है। सभा में असहज सही खामोशी छा गई है।

फिर किशन सिंह उठे हैं। भगत सिंह के पित। भगत के आदर्शों की बात की है। रुलाइयों की आवाज़ें 10 मोहर्रम की मजलिस के भी पार चली गई हैं। फिर किशन सिंह ने सभा से गांधी के रास्ते पर चलने का आह्वान किया है।

26 मार्च, 1931 को कराची अधिवेशन में भगत सिंह को बचाने की कांग्रेस और अपनी कोशिश पर बोले हैं- सभा में नौजवान भारत सभा के सदस्य भी बड़ी तादाद में हैं, नौजवान भारत सभा के सचिव दीवान चमनलाल तक।

अचानक किसी ने ललकारा है- ‘आपने भगत सिंह को बचाने के लिए किया क्या?’

गांधी फिर बोलते हैं। पूरी सभा शांत है।

गांधी वायसराय इर्विन को लिखी अपनी आख़िरी चिट्ठी की बात करते हैं जिसमें उन्होंने लिखा था:

“जनमत चाहे सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है. जब कोई सिद्धांत दांव पर न हो तो लोकमत का मान रखना हमारा कर्तव्य हो जाता है. …मौत की सजा पर अमल हो जाने के बाद तो वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता. यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी सी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूंगा कि इस सजा को, जिसे फिर वापस नहीं लिया जा सकता, आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें. …दया कभी निष्फल नहीं जाती.’

गांधी मगर एक बार भी वह बात नहीं बोलते जो उनका सबसे बड़ा बचाव हो सकती थी- होती।

गांधी चाहते भी तो भगत सिंह को नहीं बचा सकते थे। भगत सिंह ने मरते दम तक माफ़ीबाज सावरकर की तरह दया याचिका दी ही नहीं- उल्टा युद्ध बंदी के बतौर गोली से उड़ाने की माँग की। प्रिवी काउंसिल तक ऐसे हालात में सजा माफ़/कम कर ही नहीं सकती थी।

इर्विन ने ख़ुद अपनी विदाई के भाषण में इसका ज़िक्र किया, गांधी जैसे अहिंसक के भगत सिंह को बचाने के लिए जान लगा देने के फ़ैसले पर आश्चर्य जताने के साथ असफल रहने पर दुख भी व्यक्त किया!

और इस पूरे दौर सावरकर नाम के ब्रिटिश दलाल पेंशनर से लेकर संघियों तक ने कभी मुँह तक नहीं खोला!” ……

वैसे मैंने समय समय पर गाँधी जी पर खूब लिखा है और गांधी जी पर उठने वाले हर प्रश्न का तथ्यात्मक उत्तर दिया है, शायद इतना कि इसकी एक अच्छी भली पुस्तक बन जाये। मैंने उनकी 150 वीं जयंती पर जो कुछ भी लिखा था उसे उसी क्रम में आप सभी के लिए पेश कर रहा हूँ-

आज महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती है और देश उनके जन्म के बाद सबसे अधिक गांधी विमुख है। सत्य के मुकाबले असत्य , अहिंसा के स्थान पर घृणा , सादगी की जगह आत्मप्रचार ….सत्ता व समय के मूल्य बन चुके हैं। बुद्धिजीवी या तो डिप्रेशन में हैं या फिर अपराधी घोषित किये जा चुके हैं। सत्याग्रह व स्वराज पर अपराधियों का पहरा हो चुका है । …..ऐसे में गांधी विचार की सबसे अधिक जरूरत है तो गांधी को बस पाखाने व कूड़े से जोड़ दिया गया है। जैसे बताया जा रहा हो बस तुम्हारी इतनी ही औकात है , इससे ज्यादा की हमसे अपेक्षा मत करो!

ऐसे में काफी कुछ लिखना चाहता था पर मुझे लगा कि पहले उन मुद्दों को दोबारा रखूँ जिस पर पहले कुछ कह चुका हूँ । पेश ए खिदमत है उनके अंश-

1-समकालीन विश्व में गाँधी जी की प्रासंगिकता

( गाँधी जी की 150 वीं जयंती पर विशेष )

भारत के दो महान विचारकों का सर्वाधिक वैश्विक प्रभाव रहा है वे हैं बुद्ध और गांधी जी । दोनों सत्य और अहिंसा के प्रहरी रहे हैं। इनमें से गांधी जी के प्रति सभी तरह के कट्टरपंथी तबकों की खास कुदृष्टि रही है। चाहे वह हिन्दू कट्टरपंथी हों या मुस्लिम अथवा वामपंथी या अम्बेडकर वादी…. ये सभी गांधी जी से घृणा करते हैं क्योंकि गांधी जी का दर्शन प्रेम, अहिंसा, सहिष्णुता , समरसता के भारतीय आदर्शों पर आधारित है पर हर तरह का कट्टरपंथी विचार किसी न किसी के प्रति घृणा के विचार पर आधारित है। हिन्दू कट्टरपंथी मुस्लिमों-ईसाईयों-दलितों , मुस्लिम कट्टरपंथी सभी तरह के काफिरों , वाम कट्टरपंथी कथित बुर्जुआ लोगों और अम्बेडकरवादी कट्टरपंथी सवर्णों के प्रति घृणा प्रदर्शित करके अपने विचार को आगे बढ़ा सकते हैं ….ऐसे में प्रेम और अहिंसा से पगा गांधी विचार उनके आड़े आ जाता है, और चूंकि गांधी ने अपना कोई कल्ट स्थापित नहीं किया तो वे बड़े आसानी से इन विचारधाराओं के निशाने पर आते रहते हैं और इससे किसी की ” आस्था आहत नहीं होती “….खासकर संघी गांधी से विशेष खिन्न रहते हैं क्योंकि गांधी दुनिया को हिंदुत्व का ऐसा पाठ देते हैं जो वसुधैव कुटुम्बकम की प्राचीन भारतीय आदर्श से परिचालित होता है। गांधी पूना समझौते के बाद हिन्दू धर्म को विभाजन से बचाने वाले महानायक बनकर उभरते हैं और ईश्वर अल्ला तेरे नाम और वैष्णव जन जैसे गीत जनगीत बन जाते हैं। इससे मुस्लिम-ईसाई-दलित घृणा के रथ पर सवार बौने चितपावन ब्राह्मणों के संघ को सबसे ज्यादा दिक्कत आती है तो वे अपने लाखों मुखों से प्रतिदिन गांधी विरोध के सैकड़ों झूठ प्रसारित करने में लग जाते हैं और आज के डिजिटल युग मे इंटरनेट पर ऐसे करोड़ों झूठ पड़े गंधा रहे हैं और भारतीय शिक्षा प्रणाली की असमर्थता ने हमारे करोड़ों युवाओं को भी इस असह्य बदबू ने अपने आगोश में ले लिया है ( यहाँ तक 10 साल तक मुझसे दूर रही मेरी बेटी अनन्या भी इस दुर्गंध से दुष्प्रभावित हो चुकी है )……इसलिए भारतीय विचारों व भारतीय आत्मा के इस सबसे महान आत्मा के बारे में नए सिरे से आमलोगों को परिचित कराने की सबसे बड़ी जरूरत है वरना समुदायों के बीच घृणा की राजनीति हमारे देश व समाज को कहीं का नहीं छोड़ेगी!

 आज मेरे हिसाब से हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति , पर्यावरण का नाश, राजनीति का प्रदूषण , गरीब अमीर के बीच बढ़ती खाई, परिवार और समुदाय का विघटन , गाँव और कृषि का विनाश , मूल्यहीन और फलहीन शिक्षा, गंदगी , बढ़ते रोग ..... जैसी तमाम चीजों से भारत ही नहीं पूरी दुनिया आक्रांत है। उपभोक्ता वाद और उदारीकरण ने मानवता के ऊपर व्यापार को वरीयता दे रखी है। इसी व्यापार ने ( खासकर खनिज तेल , हथियारों आदि के व्यापार ने ) इराक , सीरिया , अफगानिस्तान, यमन, नाइजीरिया , लीबिया जैसे अनेक देशों को या तो नष्टप्राय कर दिया है या फिर ऐसी कोशिश हो रही है। गाँधी जी का कहना था कि " यह धरती हमारी ज़रूरतें पूरी कर सकती है हमारे लोभ नहीं " .....पर लालच में अंधे होकर हम धरती धन को नष्ट करने में जुट गए हैं। कालिदास की तरह जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं। यदि हम गांधी जी के स्वराज का सही अर्थ समझ सकें, जिसका वास्तविक अर्थ है आत्मनियंत्रण तो हम सिर्फ आवश्यकता भर लें और अपनी जरूरतें सीमित करना भी सीख लें , यही मूल मंत्र होगा अपनी धरती को बचाने का।  दुनिया के विभिन्न राष्ट्रों, धर्मों , समुदायों के बीच हिंसक तनाव ने युद्ध और आतंकवाद को जन्म दिया है। यदि हम गांधी विचार के अनुसार धर्म के उत्स को जान सकें और अहिंसा के विचार को अपना सकें तभी इन कुप्रवृत्तियों को रोका जा सकेगा। हथियार से लड़ा जाने वाला आतंकवाद के विरुद्ध कोई युद्ध स्थायी परिणाम नहीं दे सकेगा। हमें जानना होगा कि अहिंसा कायरता नहीं बल्कि वीरता की पराकाष्ठा है। यह अहिंसा ही हमारे समाज, देश और फिर विश्व को घृणा से पूरित हिंसा से बचा सकती है। हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा के रूप में देने पर दोनों पक्ष हिंसा अनंतकाल तक झुलसते हैं पर कोई हल नहीं निकलता। कश्मीर जैसे विवादों को भी अंततः ऐसे ही हल किया जा सकेगा। कश्मीरी लोगों को समझना होगा कि अब भारत को तोड़ना संभव नहीं है और भारतीय लोगों को भी कश्मीरी लोगों को दिल मे जगह देनी होगी। ....भारत की सबसे बड़ी समस्या है दुष्ट लोगों का शासन पर प्रभुत्व! यदि भारत के लोगों को राजनीति में धर्म की गांधी जी विचारधारा समझ मे आ जाये तो अधर्मी राजनेता लोगों से दूर हो जाएंगे। थॉमस पिकेटी,डेविड हार्वे , स्पिलिट्ज जैसे अर्थशास्त्री आय की असमानताओं को दुनिया की शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। गाँधी के आर्थिक विचार भले ही कुछ लोगों को अप्रासंगिक दिखें पर उनमें असमानता से लड़ने की अभूतपूर्व ताकत है। खेती, पशुपालन, बागवानी, शिल्प कर्म , कुटीर उद्योग आदि पर आधारित गांधी वादी मॉडल रोजगार और विषमता से लड़ने में आज भी सबसे बड़ा हथियार हो सकता है। वंदना शिवा, नाना जी देशमुख, कमला देवी चटोपाध्याय जैसे अनेक लोगों ने गांधी विचार से प्रेरित होकर ऐसे तमाम सफल प्रयोग भी किए हैं। आज भी हज़ारों की संख्या में गांधीवादी पर्यावरण, रोजगार, शिल्पकर्म , शिक्षा आदि क्षेत्रों में निःस्वार्थ तरीके से सक्रिय हैं। नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर , आँग सान सू की जैसे अनेक अनुयायी विश्व भर में गांधी विचार की अलख जगा रहे हैं। आज जब सत्ता गांधी जी को महज एक सफाई कर्मी बना देने पर तुली हुई है , हमें गांधी जी के विचारों के मर्म को जानकर बदलाव लाने होंगे। हमें गांधी को महज कॉंग्रेस से जोड़ने की जड़ प्रवित्तियों से बचना होगा और अपनी अगली पीढ़ी के लिए, अपनी धरती के लिए गांधी विचारों को स्वयं धारण करना होगा और अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी इसके लिए तैयार करना होगा। 

यही गांधी जी को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

2- .गांधीजी अगर 1915-16 में भारत न आने का फैसला करके द. अफ्रीका में अपने फीनिक्स आश्रम में ही रह जाते तब??…सबसे बड़ा अंतर यह पड़ सकता था कि भारत का आम आदमी आज़ादी की लड़ाई से इतना नज़दीकी न बना पाता, लड़ाई सभा-गोष्ठियों तक सीमित रहती। हाँ बाद में नेहरू और सुभाष दो करिश्माई नेता थे जो लोकप्रिय थे पर गांधी की महात्मा छवि की अलौकिकता ने आम भारतीय को जिस डोर से बांधा था वह किसी के लिए भी कल्पनातीत थी। इससे भी बड़ी बात थी कि गांधी के बिना भारत में हिन्दू धर्म के कई टुकड़े हो जाते। मूल निवासी संघ, द्रविड़, सिख राष्ट्रीयताएं तो होती हीं भारत के अन्य टुकड़े भी हो सकते थे क्योंकि गांधी की अनुपस्थिति में पटेल वकालत ही कर रहे होते, वे राजनीति में शायद ही होते। होते भी तो गुजरात स्तर पर। मुझे लगता है गांधी जी की अनुपस्थिति में वाम पक्ष और दक्षिण पंथी दोनों और शक्तिशाली होते। तब कम्युनिस्ट क्रांति की संभावना भारत में बढ़ जाती। सुभाष और नेहरू भारत के दो साम्यवादी चेहरे होते। भारत को स्पेन,अमेरिका, चीन की तरह के लंबे गृहयुद्ध का भी सामना करना पड़ सकता था जिनमे लाखो लोग मारे जाते। आज़ादी के बाद भारत में सोशल डेमोक्रेट सरकार होती जिसका रूढ़िवादी दलों से कड़ी टक्कर होती। कांग्रेस अगर होती भी तो उस पर हिन्दू रूढ़िवादी हावी होते। गोपीनाथ बारडोलोई के नेतृत्व में असम और राजगोपालाचारी के नेतृत्व में द्रविड़नाडु भारत के दो करीबी पड़ोसी हो सकते थे। मास्टर तारा सिंह या कोई भी अन्य नेता खालिस्तान का राष्ट्रपति होता। ……अन्य ऐसी कई आशंकाएं उठ रही हैं, गांधी की केंद्रीय अनुपस्थिति की कल्पना करके पर समयाभाव है। कुछ ऐसी बातों पर फोकस करूँ जो आमतौर पर अफ़वाह के रूप में संघ, लीगी और वामपंथियों ने फैला कर रखी हैं।..1) गांधी जी जिस तरह का भारत चाहते थे उससे लीग, संघ, वामपक्ष, मूल निवासी राजनीति आदि को खत्म हो जाने या अप्रासंगिक हो जाने का खतरा था। इसलिए ये लोग उनका विरोध करते थे और अंततः संघी लोगों ने उनकी हत्या ही कर दी।इस तथ्य के बावजूद कि हिन्दू धर्म को उन्होंने जिस तरह की टूट से बचाया उसे 100 गोलवरकर और सावरकर मिलकर भी नहीं बचा सकते थे। 2)गांधी जी के बारे में सबसे बड़ा झूठ पाकिस्तान और विभाजन के बारे में फैलाया गया है। यह उन संघियों की हीन भावना और अपराधबोध ने कराया जो अंग्रेजों के तलवा चाटने के आदती थे और जिनके वजह से जिन्ना को पाकिस्तान बनाने का तर्क मिल जाता था। सावरकर द्विराष्ट वाद के समर्थक थे और मुस्लिम लीग के साथ मिलकर उन्होंने सरकार बनाई थी। उन्होंने 7 लाख सैनिकों की भर्ती ब्रिटिश सेना में कराई थी। ये सैनिक ही नेताजी की आज़ाद हिन्द फ़ौज से लड़े थे।संघियों में अकेले सावरकर ही आज़ादी की लड़ाई में लड़े थे वह भी माफ़ी मांगकर जब बाहर आये तो ब्रिटिश एजेंट हो गए। इन जनाब ने कहा था कि खून की आखिरी बूँद देकर विभाजन रोका जायेगा। पर फिर ललकार कर बिल मे घुस गए, गांधी जी ने भी कहा था कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा , तो उसदिन के बाद जब जिन्ना ने अपनी बात ज़बरन मनवा ली गांधी दंगा ग्रस्त क्षेत्रों में शांति के लिए घूमते रहे, बाद में उन्हें एक अनैतिक झूठ के सहारे संघियों ने मारने की कोशिश की सफल भी रहे पर तब लोगों को सच पता था इसलिए संघ नेस्तनाबूद हो गया कई वर्षों तक के लिए बाद में उसनेगांधी के लिए दोहरी नीति अपनाई, फोटो भी लगाओ और गालियां भी देते रहो और उनकी विरासत को स्वच्छता अभियान तक सीमित कर दो, वे फ़िलहाल सफल हैं। विवेक पस्त लग रहा है…

3- ..वस्तुतः गांधी एक सीधे साधे आम भारतीय मन का प्रतिनिधित्व करते थे। सच्चाई के प्रति उनकी असंदिग्ध निष्ठा थी, पर वे जड़ों से नहीं कटना नहीं चाहते थे, इसलिए वे सुधारवादी इतने दूर तक ही हो पाए जितने जड़ों से न कट जाएँ। कथनी और करनी में उनके जैसा न्यूनतम अंतर रखने वाला उनके बराबर का व्यक्ति आधुनिक युग में कोई दिखता नहीं है। …..गांधी यह सोचते थे कि नैतिक आभा खोने की ही वजह से भारत पददलित स्थिति में पहुंचा है। इसलिए उनका स्वराज(हिन्द का) आत्म-नियंत्रण और त्याग के भारतीय रास्ते से जुड़ा था। वे चाहते थे कि भारत भारत नैतिक शक्ति बने और इस मामले में पुनः विश्व का नेतृत्व करे। वे सबसे बड़ा खतरा मूल्यों के हनन को मानते थे, सत्य एवं अहिंसा इसीलिए उनकी कसौटी थी। सत्य उनके लिए सृजन की शक्तियों का प्रतीक था, तो अहिंसा उस तक पहुंचने का मार्ग। वस्तुतः एक बिंदु पर जाकर वे एक हो जाते थे। वे मानते थे ये इंसानियत के सबसे बड़े मूल्य हैं। सत्य-निष्ठा, करुणा, कर्तव्य निष्ठा, ईमानदारी ….जैसे सभी मूल्य अन्ततः इन्ही से निकले हैं। एक पत्र में उनसे अलबर्ट आइन्सटीन ने प्रश्न किया कि आपको प्रेम और सत्य में से एक को चुनना ही पड़े तो आप किसे चुनेंगे। उन्होंने लिखा अल्बर्ट “मैं सत्य को ही चुनूँगा क्योंकि जो सत्य के साथ है वह प्रेम के विरुद्ध हो ही नहीं सकता।” वे हर हाथ को काम मिलने तथा गरीबी बेकारी दूर करने पर सबसे अधिक चिंतन करते थे। इसी का नतीजा था वे कार्य एवं श्रम विभाजन पर आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था के पक्ष में थे यदि उससे अस्पृश्यता और गैर बराबरी निकाली जा सके। पर वे यह न सोच सके कि श्रम विभाजन में निचले पायदान पर खड़े लोगों की स्थित कोई वरदान नहीं है, और कथित उच्च वर्ण कर्म के आधार पर वर्ण विभाजन को कभी सफल होने नहीं देगा। टैगोर जैसे महान मानवता वादी कवि तक सवर्ण चेतना से मुक्त न थे जिसे बाद में गांधी ने महसूस किया, पर वे अंततः वर्ण एवं जाति रहित हिंदुत्व का खाका नहीं सुझा सके। हालाँकि सामाजिक अलगाव ख़त्म करने के उनके प्रयास बहुत ईमानदार थे। समरसता के उनके प्रयास भारत को जोड़ने के तहत था। उनका मानना था कि सभी को अपने धर्म का पालन करते हुए दूसरे धर्मों का सम्मान करना चाहिए। वे इसी मार्ग द्वारा हिन्दू धर्म को बुराईयों से मुक्त करते हुए उसे मज़बूत करना चाहते थे। आंबेडकर से उनका मुख्य मतभेद यही था। भीम राव गांधी की समरसता को ब्राह्मणवाद का कवच मानते थे। वे जातिप्रथा, वर्ण धर्म के साथ ही हिन्दू धर्म के भी आलोचक थे। वे गाँव को जाति एवं जड़ता का घर मानते थे, पर गांधी की भारतीयता का आधार ही गाँव था। वे भारत की जड़ें गाँव में तलाशते थे और मानते थे कि हिंदुत्व और ग्रामीण संस्कृति भारत की समन्वित-समावेशी संस्कृति के आधार हैं, शक्ति हैं, जिन्हें ख़त्म नहीं होना चाहिए……वस्तुतः गांधी भारत को भारत जैसा बनते देखना चाहते थे , जबकि अन्य समकालीन नीति नियंताओं के सामने अमेरिका-रूस-जापान जैसे मॉडल सामने होते थे। यही शेष लोगों और गांधी के बीच का अंतर था।

4- गाँधी उस तरह के प्रखर बौद्धिक न थे जिस तरह के टैगोर, डॉ आंबेडकर और नेहरू थे, पर जीवनुभवों और ईश्वर पर गहन विश्वास ने उन्हें एक गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान की थी….इसके निर्माण में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों( खासकर गीता) , रस्किन, थोरो, टॉलस्टॉय आदि का योगदान था। राम उनके आराध्य थे, जिनकी प्रजावत्सलता(रामराज्य के रूप में) उनका आदर्श थी।हालाँकि गांधी अराजकता वादी थे और वे राज्य को आवश्यक बुराई मानते थे। ऐसा इसलिए भी था कि उस समय का अंग्रेज परस्त तबका तंत्र को ही सबकुछ मानता था और समुदाय को घास पात समझता था। यह तबका मानता था कि तंत्र का धीमा एवं सोफेस्टिकेटेड तरीका ही श्रेष्ठ है, पर गांधी लोकतंत्र के प्राचीन भारतीय तरीके से प्रभावित थे, जो ग्राम केंद्रित लघु गणराज्यों का विकेंद्री कृत तंत्र था।……गांधी जी के विचारों का आधार सत्य था। सत्य को वे सृजन से जोड़ते थे और ईश्वर से भी। वे उसे धर्म का आधार भी मानते थे। सत्य पर दृढ़ रहकर अन्याय के प्रतिकार को उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया जो दुनिया में उनका सबसे बड़ा उत्पाद सिद्ध हुआ। मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, आंग सान सू की, वंगारी मथाई, बिशप डेसमंड टूटू, सुन्दरलाल बहुगुणा, बाबा साहब आम्टे, विनोबा भावे….जैसे तमाम महान एक्टिविस्ट सत्याग्रह के हथियार से समाज और राष्ट्र परिवर्तन के लिए कटिबद्ध थे। सत्याग्रह का रास्ता अहिंसा का रास्ता था। अहिंसा वीरों का रास्ता था। उनका साफ़ कहना था कि हिंसा और कायरता में से चुनना हो तो मैं हिंसा चुनूँगा। अहिंसा का उनका रास्ता अहिंसा परमो धर्मः से प्रेरित था जो उपनिषदों से प्रेरित था। जो लोग अहिंसा को भारत की पराजय का कारण समझते और बताते हैं वे ऐसे षड्यंत्रकारी लोग हैं जो विषमतायुक्त और विभक्त भारतीय समाज पर पर्दा डालना चाहते हैं और अपनी करतूतों को छिपाना चाहते हैं वरना शांतिवादी भारत के महानतम शासक अशोक का साम्राज्य भारतीय शासकों में सबसे बड़ा, सबसे अधिक लोक कल्याण कारी और शांतिपूर्ण था। और पृथ्वी राज चौहान, दाहिर, बालाजी विश्वनाथ हों या सिराजुद्दौला अहिंसा की वजह से नहीं फूट की वजह से हारे थे। न ही सोमनाथ के कुढ़मगज़ 50000 हथियारबंद पुजारी ही अहिंसक थे जो हज़ारों किमी से आये कुछ हज़ार हमलावरों से इसलिए नहीं लड़े कि अंतिम समय तक उन्हें उम्मीद थी कि शंकर जी प्रकट होकर इस म्लेच्छ का वध जरूर करेंगे। पर जब गजनवी ने गदा से शिवलिंग तोड़ दी तो वे सब के सब बेहोश हो गए।…..गांधी जी श्रम की सर्वोच्चता और आखिरी आदमी के उत्थान के लिए सर्वोदय के विचार को आगे बढ़ाना चाहते थे। वे कहते थे कि एक नाई का काम एक डॉक्टर के काम के समान ही महत्त्व पूर्ण है। उन्होंने अपना प्रसिद्द जंतर देते हुए कहा कि जब भी आप कोई कार्य करें यह सोच कर करें कि इससे आखिरी आदमी के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। इसी सर्वोदय के प्रतीक के रूप में उन्होंने चरखे का प्रतीक चुना। वस्तुतः यह ब्रिटिश सभ्यता के विरुद्ध भारतीय स्वाव लंबन, श्रम और विरोध का प्रतीक था क्योंकि अंग्रेजों ने सबसे अधिक नुकसान भारतीय स्वाव लंबिता की परम्परा को ही पहुँचाया था।

5-
….हिन्दस्वराज में गांधी पूरब और पश्चिम के विमर्श में भारतीयता का पक्ष दिखाते हैं…..आत्मत्याग, संयम, अपरिग्रह और सादगी के आदर्श पूरब के पहचान रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटियों के लिए गांधी का संघर्ष जितना वाह्य था उतना ही आंतरिक था। गिरिराज किशोर ने पहला गिरमिटिया में इस आत्मसंघर्ष का बहुत आधिकारिक चित्रण किया है जो बाद में मेकिंग ऑफ़ महात्मा फ़िल्म का आधार बनी। गांधी जी भारत की परतंत्रता को पूरब की सभ्यता के पराभव के रूप में लेते थे और हिंदुस्तान को एकजुट करके पश्चिम को एक सांस्कृतिक प्रतिउत्तर देना चाहते थे। वे इस बात को गहराई से महसूस करते थे कि जो भारत 1750 तक यूरोप से बड़ी अर्थव्यवस्था था वह 100 सालों में इतना दीन और पराजित मानसिकता का क्यूँ कर हो गया?…..उन्होंने भारतीयों की पराजित मानसिकता को पढ़ लिया और उन्होंने महसूस किया कि अंग्रेजों ने न केवल भारत को राजनीतिक तौर पर जीता है बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी बढ़त बना चुके हैं। इस बढ़त को ख़त्म किए बगैर भारत आज़ाद नहीं हो सकता। उन्होंने भारतीयों में आत्मविश्वास, प्रतिरोध तथा उत्सर्ग की भावना भर भर दी। गांधी की दक्षिण अफ़्रीकी संघर्ष ने दुनिया के महानतम साम्राज्य के खिलाफ खड़े एक निडर योद्धा की छवि को घर-घर पहुंचा दिया। ऊपर से भारतीय ऋषियों-मुनियों वाली उनकी सादगी ने उनको एक अलौकिक छवि प्रदान की, ऐसी कि आदिवासी संघर्ष के दौरान यह बात फ़ैल गई कि गांधी टोपी पहनने से गोली असर नहीं करेगी। …..गांधी जी ने स्वदेशी को अपने संघर्ष का आधार बनाया पर यह स्वदेशी जागरण मंच वाली स्वदेशी न थी, महज़ एक जड़ लिस्ट मात्र जो देश में बनी और विदेश में बनी चीजों का फर्क बताती हो, उनकी स्वदेशी थी जमीन और लोक चेतना से जुड़ी चेतना। जैसे चिकित्सा में उनकी स्वदेशी भावना से सम्बंधित भारत में बनी दवाएँ न थीं बल्कि वह प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियाँ थीं जिनका प्रयोग सदियों से भारतीय लोग करते चले आ रहे थे। वाणी और आहार का संयम भी इसमें शामिल था। लोक से जुड़ी चेतना की वजह से ही वे ग्राम केंद्रित “भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति” पर जोर देते थे। ग्राम स्वराज, पंचायती राज जैसे विचार इसी परिप्रेक्ष्य में थे। वे पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों विचारों को अतिवादी मानते थे। पूंजीवाद में शोषण, गैर बराबरी और साम्यवाद में हिंसा उन्हें निंदनीय लगती थी। इस लिए वे एक मिश्रित विचार ट्रस्टी शिप को लेकर आए जिसमें पूँजी पतियों को अपना कारोबार एक ट्रस्ट की तरह श्रमिकों की मदद से चलाना होता, हालाँकि यह एक आदर्शवादी और नैतिक विचार था, पर इतना नैतिक बल बिड़ला भी नहीं दिखा सके जो गांधी के सबसे करीबी थे। आधुनिक सभ्यता और मशीनों के खिलाफ गांधी के विचारों को नेहरू तक ने वैष्णव कूप मंडूकता के रूप में लिया। जबकि वे इसके खिलाफ इसलिए थे क्योंकि यह लोगों से रोजगार छीन लेती थी।स्वदेशी, ग्राम्योदय और ट्रस्टीशिप द्वारा वे अंग्रेज ताकत का मुकाबला करने की सोचते थे, इला भट्ट, कुरियन, कमला देवी चटोपाध्याय, कुमारप्पा, विनोबा, नाना जी देशमुख आदि ने उनकी सोच को आज़ाद भारत में भी आगे बढ़ाया। वे दुनिया से गरीबी, बेरोजगारी और भूख से विनाश हेतु सादे जीवन और उच्च विचारों के कायल थे। उनका मानना था कि दुनिया की अधिकांश समस्याएं इंसानी लालच की वजह से पनपी हैं। उन्होंने इस प्रवित्ति पर कहा कि यह धरती हमारी जरुरत पूरा कर सकती है, हमारे लोभ नहीं। वस्तुतः यही सूत्र धरती को बचाने के रास्ते की ओर जाता है। वे साधन एवं साध्य दोनों की पवित्रता में विश्वास करते थे। उनका दृढ़ता से मानना था कि गलत साधनो से प्राप्त साध्य हमेशा अशुभ परिणाम लाने वाले होते हैं। इसीलिए वे राजनीति को धर्म यानी कर्तव्य,नैतिकता और मूल्यों से अनिवार्य रूप से जोड़ना चाहते थे। नेहरू और जिन्ना जैसे स्टेटमैन इसका अर्थ न समझकर इसे प्रतिगामी चीज मानते थे। वे आस्थावान वैष्णव थे। और आत्यंतिक रूप से धार्मिक भी, पर उनकी धार्मिकता भारतीय संत परम्परा के सर्वधर्म समभाव पर आधारित थी। वे अच्छी तरह से दक्षिण अफ्रीका में देख चुके थे कि सत्ता कैसे फूट डालती और राज करती है। वे देख रहे थे कि कैसे अंग्रेज भारत को बाँट रहे हैं। जाति-धर्म-क्षेत्र-प्रजाति-भाषा की दीवार खड़ी कर रहे हैं। गांधी यह भांप चुके थे और दक्षिण अफ़्रीकी प्रयोग से सीख भी चुके थे कि निडरता, अहिंसा और एकता युक्त सत्याग्रह ही अंग्रेजों का सही जवाब है। गांधी आजीवन यही लड़ाई लड़ते रहे, और इसी मुद्दे पर कट्टरवाद के शिकार भी हो गए।

6- .. ..ऐतिहासिक व्यक्ति मुर्गे या बटेर नहीं हैं जो कि हम उन्हें वेबलॉग्स की दुनिया में लड़वाकर, एक दूसरे के विरुद्ध खड़े करें और उनकी भद पिटवाकर फिर खुद चटखारे लें।पर छिछोरी विचारधाराएं यही करती हैं। दो से ढाई लाख छिछोरे वेतनभोगी हैं इतिहास और विचारधाराओं को बिगाड़ने की परियोजना में।…इनका सबसे बड़ा आरोप यह होता है कि गांधीजी ने भगत सिंह को फाँसी से बचाया क्यों नहीं?…छिछोरे स्वयं उत्तर देते हैं कि अहिंसा की रक्षा हेतु!….छिछोरों का फिर निष्कर्ष होता है गांधी को राष्ट्र से ज्यादा अपने सिद्धांत प्यारे थे। यह छिछोरा राष्ट्रवाद सिर्फ राष्ट्रवादी लंपट पैदा कर सकता है। क्योंकि यह सफ़ेद झूठ पर आधारित है। अव्वल तो गांधी कोई जज नहीं थे और न वायसरॉय जो उनके कहने से भगत सिंह छूट जाते। वैसे भगत सिंह खुद छूटना नहीं चाहते थे वे सावरकर की तरह कायर भी नहीं थे कि माफ़ी मांगें और गिड़ गिड़ायें। …पर इतिहास गवाह है गांधी जी ने इरविन से इस बारे में गंभीर प्रयास किए थे, पर जो अंग्रेज खुद गांधी को निबटाना चाहते थे वे उनकी बात क्यों मानते। गांधी वांग्मय के भाग 45 में पृष्ठ 333-334 पर गांधी जी की मार्मिक चिट्ठी है जो भगत सिंह को मुक्त करने के बारे में है। पृष्ट 354 पर इरविन का उत्तर है। पर यह सब छिछोरे क्यों देखेंगे। एक सामान्य समझ की बात है कि भगत सिंह के पक्ष में खुलकर बोलने से गांधीजी को अपार लोकप्रियता हासिल होती , पर इससे हिंसा को बढ़ावा मिलता पर भगत सिंह को कोई लाभ नहीं होता। इसलिए गांधीजी ने अपना नैतिक रास्ता चुना , उन्होंने भगत सिंह की रिहाई की बात भी उठाई पर हिंसा का समर्थन भी नहीं किया। बाद में भगत सिंह ने भी अहिंसा को भारत की समस्या का हल बताया था।…..2)छिछोरे, सुभाष को लेकर भी गांधी जी को कटघरे में खड़ा करते हैं। गोया गांधी जैसे सत्ता के खेल में शामिल हों ….पर हमारे देश में अफवाहों को इतिहास का हिस्सा बना दिया है संघियों ने। कांग्रेस में 1925 के बाद नेहरू और सुभाष धूमकेतु की तरह उभरे। भगत सिंह ने भी 1928 इन दोनो की तुलना की थी और नेहरू को नए भारत की उम्मीद बताया था और सुभाष को आत्मप्रचारक कहा था। गांधी जी के सबसे निकट पटेल थे जो सुभाष के कट्टर विरोधी थे , यहाँ तक कि उनसे मुकदमा भी लड़ चुके थे, भाई की संपत्ति को लेकर। पटेल के खुले विरोध के बावजूद गांधी जी ही 1938 में सुभाष को अध्यक्ष पद पर लाये। नेहरू भी सुभाष के पक्ष में थे। बावजूद इसके कि सुभाष 1922 से ही गांधीवादी पद्धति के विरोधी थे और आर्थिक और राजनैतिक रूप से साम्यवादी थे। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सुभाष ने एक भव्य परेड आयोजित की जिससे रुष्ट होकर गांधी ने उसे सर्कस की उपमा दी। राजनैतिक प्रस्ताव भी गांधी जी की योजना के विपरीत थे। यहीं मूल्यों और लक्ष्यों को लेकर मतभेद आरम्भ हुए। जो 1939 में चरम पर पहुँच गए। गांधी इस बार पटेल को अध्यक्ष चाहते थे पर पटेल जानते थे कि पार्टी में नेहरू-सुभाष की ताकत अधिक है। इसलिये वे नहीं लड़े। अंततःएक अनजान से तमिल नेता सीतारमैया भिड़े और गांधी भी उन्हें पार नहीं लगा सके क्योंकि नेहरू सुभाष साथ थे। नेहरू से सुभाष के मत भेद हिटलर, मुसोलिनी और तोजो के साथ को लेकर उपजे क्योंकि वे मानते थे कि ये सभी भारत के लिए नया खतरा बन जाएंगे। पर सुभाष के आदर्श हिटलर-मुसोलिनी-स्टालिन ही थे। आश्चर्य जनक रूप से सुभाष के इन क़दमों का गांधीजी ने अपेक्षा कृत कम विरोध किया, जिसको लेकर वे अंग्रेज अखबारों के निशाने पर रहे। इसीलिए सुभाष ने अपने प्रसिद्द सिंगापुर भाषण गांधीजी को समर्पित करते हुए उन्हें बापू कहा। उनके न रहने पर नेहरू ने आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुकदमा लड़ा। हालाँकि उनके बारे में अफवाहों का शमन करने के लिए पटेल के आदेश पर नेताजी के परिवार पर निगरानी भी कराई।..हे छिछोरों आप उस महान नेता को बक्श दें। घृणित राजनीति से बाज आएं। जरा अकल पर जोर दें, सोचें कि नेता जी जैसा जुझारू देश भक्त यूँ छिप कर चोरों जैसा क्यूँ रहता, कारण कैसा भी रहता। वे डरपोक न थे जैसा नेहरू को दोषी सिद्ध करने के चक्कर में छिछोरे उन्हें बनाना चाहते हैं।

7- भगत सिंह के मुद्दों पर संघी और कम्युनिस्ट मिलकर दुष्प्रचार करते पाए जाते हैं..संघी मानसिकता के चवन्नी छाप फिल्मकारों ने भी गाँधी की यह छवि प्रसारित की….अ…भगत सिंह की हिंसा नीति खुद भगत सिंह को भी मजबूरी और तात्कालिक जरुरत लगती थी…भगत सिंह एक कट्टर साम्यवादी थे जिन्होंने जीवन में २ बड़े काम किए थे…लेकिन वे दोनों काम सामूहिक थे..असेम्बली में बम फेंकना और सांडर्स की हत्या करना….निश्चय ही वे महान थे किन्तु शहीद ए आज़म??…फिर सूर्यसेन क्या थे?…चंद्रशेखर आजाद जो इस गुट के नेता थे क्या थे?….आज़ादी के वे अनाम सिपाही जिन्होंने लाखों के संख्या में अपना जीवन निछावर कर दिया वे क्या थे….वस्तुतः कुछ छुद्र मानसिकता के लोगों ने गाँधी को भगत सिंह के सामने जानबूझकर खड़ा किया है….दोनों की अपनी विचारधारा थी…दोनों निःस्वार्थ भाव से देश के लिए लगे थे…विरोध दूसरों का खड़ा किया हुआ है…गाँधी और ब्रिटिश सरकार के बीच पत्र व्यवहार से स्पष्ट है( जैसा कि नेहरुकी आत्मकथा में भी उल्लेख है) कि गाँधी ने सरकार से अंतिम दम तक फांसी टालने को कहा था…पर जो सरकार स्वयं गाँधी को मरने का इंतजार करती थी वह उनकी बात क्यूँ मानती?…ऊपर से स्वयं भगत सिंह ने अपने भाई व चाचा को चिट्ठी लिखकर फांसी न रुकवाने और माफीनामे की अपील न करने को कहा था…ये मेरा मत नहीं है…यह दस्तावेजों के रूप में सुरक्षित पर गोएबल्स जो 5.६का था…बड़े ही शांत ढंग से कहता था कि मैं 5.१०का हूँ..और उसके मरने के बाद उसे 5.१० ही कहा गया……तब भी जब पोस्टमार्टम के दस्तावेज में वह 5.६ ही लिखा गया था…..यह होता है अफवाह का असर….

इससे बड़ा कुतर्क और अश्लील आरोप नहीं हो सकता कि गाँधी का कोई आन्दोलन सफल नहीं रहा….यह संघी कुतर्क की इन्तेहा है…भगत सिंह ने देश आजाद करा लिया तभी गिरफ्तारी दी….., हेडगेवार ने बचपन में लड्डू खाने से इंकार करके ही आज़ादी दिलाई…सुभाष की आजाद हिन्द फ़ौज तो अंग्रेजों को हराकर पूरा भारत जीतते हुए दिल्ली पहुँच गई थी क्या?……………गाँधी न होते तो देश के आम आदमी की रीढ़ कभी न बन पाती…गाँधी भारतीय प्रतिरोध के प्रतीक थे..इसलिए सुभाष ने उन्हें राष्ट्रपिता कहा…यह तमीज उनलोगों में विकसित ही नहीं हो सकती थी…जो अंग्रेजों के टट्टू थे…और रीढ़विहीन थे…वस्तुतः हम गाँधी-भगत सिंह-सुभाष का मूल्यांकन उस प्रतिरोध की कीमत लगाकर करें…आज़ादी इन सभी के प्रयासों का परिणाम थी…

ऐसे तमाम प्रश्न हर भारतीय के मन में होंगे पर आम भारतीय इनके उत्तर इंटरनेट व अफवाहों में खोजने लगा है। यही वजह की वह गांधी और अंततः भारतीय आत्मा से दूर होता जा रहा है। भारतीय आत्मा की खोज गांधी , बुद्ध , महावीर , शंकर , कबीर , अम्बेडकर की जानी चाहिए थी लेकिन तमाम लोगों ने प्रोपेगैंडा मशीन के प्रभाव में अपना नया राष्ट्रपिता तलाश लिया है….ऐसे में यह समय और भी संकटग्रस्त हो गया है और वास्तव में गांधी की वास्तविक जरूरत भी बढ़ती जा रही है कठिन समय के घने होने के साथ ही।

Share it via Social Media