गीता ज्ञान के माध्यम से भगवान कृष्ण ने बताया किस तरह इंसान कर सकता है ईश्वर के दर्शन

दैनिक इंडिया न्यूज लखनऊ:आप सबने अपने मन में परम पिता परमात्मा की कोई न कोई छवि बनाई हुई है। यही छवि किसी पेंटिंग या मूर्ति के रूप में भी सामने आती है। परमात्मा के निराकार, निर्गुण स्वरूप की कल्पना करना हमारे लिए कठिन है, इसलिए हम उसे आंखों से देखने की कोशिश करते हैं। हम भगवान को एक भौतिक या सगुण रूप देने का प्रयास करते हैं।

प्रभु को देखने का सही तरीका क्या है?

साकार या निराकार?

वेदों के अनुसार निराकार का मतलब, जिसमें से सारे आकर निकले हो वही निराकार है ,जिसने सारे आकर को निर्गत किया हो वही निराकार ब्रह्म है।

भगवद‌्गीता, अध्याय 11 श्लोक 8 में भगवान कृष्णअर्जुन से कहते हैं, ‘न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।’ यानी, तुम इन भौतिक नेत्रों से मेरे ब्रह्मांडीय रूप को नहीं देख सकते, इसलिए मेरे राजसी ऐश्वर्य को निहारने के लिए मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूं। भगवान कृष्ण कहते हैं कि उनकी दिव्यता को देखने के लिए भौतिक आंखें कभी सक्षम नहीं हो पाएंगी। हमें उसे दिव्य दृष्टि से देखने की जरूरत है। भगवद‌्गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को यह दिव्य दृष्टि दी। प्रारंभ में अर्जुन भगवान को अपनी धारणाओं के आधार पर देखता है। धीरे-धीरे वह मन में बनाए सभी रूपों को तब तक ईश्वरमें विलीन होते देखने लगता है, जब तक कि केवल एक अलौकिक अग्नि ही शेष रह जाती है। हजार सूर्यों की चमक के बराबर यह तेज अर्जुन को चकाचौंध और भौंचक्का कर देता है।

अर्जुन की ही तरह हम इंद्रियों की सीमित धारणाओं से दुनिया को देखते हैं। एक चमगादड़ इंफ्रा-रेड दृष्टि से जो देखता है, वह मानव आंख के लिए असंभव है। इसी तरह ईश्वर को संकीर्ण दृष्टि से देखना उसके वैभव को सीमित करना है। फिर भी सब अपने-अपने चश्मे से ईश्वर को देखते हैं। जैसा धारणाओं का लेंस, वैसे ही दिखते हैं भगवान। परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को देखने के लिए सबसे पहले क्षितिज का विस्तार करना सीखना चाहिए और आंतरिक दृष्टि से दुनिया को देखना चाहिए। भौतिक आंखों से बाहरी रंग-रूप ही देख पाते हैं, जबकि आंतरिक दृष्टि से देखना बंधी-बंधाई धारणाओं को एक स्वरूप में विलीन कर देना है। यह प्रेम, सहानुभूति और करुणा पैदा करना है। यह दूसरे के अनुभव को अपने रूप में शामिल करना है।

दुखियारों की पीड़ा से दुखी होने और उनके सुख का जश्न मनाने वालों की खुशी महसूस करना है। यह प्रकृति की ऊर्जा से जुड़ना और उसकी तरंग से खुद में कंपन महसूस करना है। जिस क्षण आप प्रतिध्वनि से मेल खाने लगते हैं, उसी क्षण से भीतर का प्रकाश फूटने लगता है। आप आस-पास और भीतर की हर चीज के लिए भक्ति और प्रेम से भरने लगते हैं। यही वह समय होता है, जब आप ईश्वर को उनके वास्तविक रूप में देखने के लिए दिव्य प्रकाश से धन्य हो जाते हैं।

हर जगह दैवी गुणों की तलाश करें। जब किसी चीज में सुंदरता देखते हैं, तो भगवान को देख रहे होते हैं। प्रेम, करुणा और मित्रता ईश्वर के ही रूप हैं। क्या आपके अंदर ये गुण नहीं हैं? प्रेम और करुणा से भर जाएं। ईश्वर को महसूस करने का यह सबसे आसान तरीका है। जीवन को इस दिव्यता से भर लें। भगवद‌्गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि उन्हें सच्चे, योग के ईश्वर, देवताओं के देवता के रूप में देखना कितना मुश्किल है। केवल शुद्ध भक्ति ही इस दृष्टि को प्राप्त करती है। यदि कभी भी भगवान को देखना चाहते हैं, तो उन्हें भक्ति की दृष्टि से देखें।

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