नवरात्र साधना का मूल उद्देश्य

वाचस्पति त्रिपाठी / दैनिक इन्डिया न्यूज

नवरात्र – साधना के अनुष्ठान को करने का उद्देश्य प्रत्येक साधक के लिए एक ही होता है और वो साधना के शिखर को स्पर्श करने का, स्वयं की साधना को समग्रता से जोड़ देने का होता है। ध्यान से देखें तो हम पाएँगे कि प्रत्येक गायत्री परिजन की जो मूल अभीप्सा है, केंद्रीय खोज है- वो इसी शिखर को प्राप्त करने की है।

वैसे भी प्रत्येक गायत्री परिजन को जब पूज्य गुरुदेव का शिष्य उनका अनुगामी बनने का अवसर मिला है तो फिर हमारे लिए जीवन का एकमात्र उद्देश्य साधना ही हो जाता है; क्योंकि इसी एक उद्देश्य के लिए पूज्य गुरुदेव ने अपनी जीवनयात्रा को समर्पित किया ।

सारांश में कहें तो हमारे लिए साधना के अतिरिक्त अन्य कोई निर्दिष्ट पथ है भी नहीं और उस साधना के पथ पर जो विशिष्टतम पुरुषार्थ एक साधक के द्वारा संपन्न हो सकता है-उसे ही हम अनुष्ठान कहकर के पुकार सकते हैं।

किसी गंभीर, दुष्कर प्रारब्ध कर्म को काटने के लिए हमें सामान्य से थोड़ी ज्यादा साधनात्मक ऊर्जा लगाने की आवश्यकता होती है और उस विशिष्ट ऊर्जा के उपार्जन के लिए जो पुरुषार्थ हमारे द्वारा संपन्न होता है-वही साधनात्मक अनुष्ठान कहलाता है।

अनुष्ठान के माध्यम से साधक उन कर्मभोगों को काटने की व्यवस्था बनाते हैं, जो आज बीज रूप में उनके कर्माशय में समाहित हैं और यदि समय रहते उनको काटने की, उनका शमन करने की व्यवस्था नहीं बनाई गई तो एक दिन वे कर्मबीज – वृक्ष रूप में परिणत हो सकते हैं। उनके वृक्ष रूप में परिणत होने से तात्पर्य उनका दृश्य रूप में, घटनाक्रमों में बदल जाने से है।

जैसे यदि किसी व्यक्ति के बैंक एकाउंट में 1 करोड़ रुपये हों तो उसे 2 लाख रुपये का व्यवसाय करने में कोई विशेष चिंतन करने की जरूरत नहीं पड़ती, वैसे ही यदि हमारे पास आध्यात्मिक ऊर्जा का संचित भंडार है तो उससे जीवन की यात्रा सुगम हो जाती है।

आध्यात्मिक ऊर्जा के उस भंडार को भरने के लिए किए जाने वाले पुरुषार्थ की तुलना ही नवरात्र- अनुष्ठान से की जा सकती है। नवरात्र साधना का उद्देश्य ही साधक को साधनात्मक ऊर्जा के संचित भंडार से भर देना है।

जब हम नवरात्र – अनुष्ठान के क्रम को संपन्न करते हैं तो कुछ तथ्यों को गंभीरतापूर्वक समझ लेना जरूरी हो जाता है। पहला यह कि हम पद्धति क्या अपनाएँ, हमारी प्रक्रिया क्या हो, हमारा तरीका क्या हो ? क्योंकि बाहर के जगत् की प्रगति और विकास क्रम तो स्पष्ट है, परंतु आंतरिक जगत् में ये इतना स्पष्ट न होने के कारण कई बार मन में प्रश्न उभरता है कि क्या करें ? कैसे करें ? क्या साधना करने का तरीका बदलें ? मंत्रजप का तरीका बदलें या फिर स्थान में कोई परिवर्तन करें ?

ऐसे प्रश्नों का मन में उठना स्वाभाविक है, पर इसका उत्तर एक ही है कि ऐसे में हमें तरीके बदलने के बजाय अपनी सोच को बदलने की आवश्यकता है। ऐसा इसलिए; क्योंकि नवरात्र- अनुष्ठान का उद्देश्य करने की जगह बनने से है। ऐसा इनसान बनने से है, जिसको फिर कुछ भी करने पर सफलता मिलनी असंदिग्ध हो जाती है।

जिन लोगों ने भी इतिहास में अपना स्थान बनाया है— उनको कभी ये पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ी कि वे क्या करें ? बस ! वे श्रेष्ठ इनसान बनते गए और फिर जो कुछ भी हो करते गए, वो भी श्रेष्ठ होता गया।

संसार का साधारण-सा नियम है कि यदि हम पारस बन जाते हैं तो जो हम छूते हैं, वो भी सोना बन जाता है। अनुष्ठान का प्रथम सूत्र यही है कि करने से ज्यादा बनना हमारी साधना का उद्देश्य होना चाहिए। हम हीरा बन जाते हैं तो जौहरी हमें ढूँढ़ ही लेता है।

हमारा उद्देश्य अपने व्यक्तित्व की गुणवत्ता को बढ़ाना होना चाहिए। खदान में से जो धातुएँ निकलती हैं, वो तो कच्ची होती हैं, पर जब वे परिशोधन की प्रक्रिया से गुजरकर शुद्ध बन जाती हैं तो उनका मूल्य बढ़ जाता है साधना का उद्देश्य परिशोधन की प्रक्रिया से स्वयं को गुजारकर अपने व्यक्तित्व के मूल्य को बढ़ा लेना है।

सरल शब्दों में कहें तो साधना का उद्देश्य शक्तियों का अर्जन, अपनी गुणवत्ता का अभिवर्द्धन करना है। यहाँ ये याद रखने की बात है कि चाहे हम उद्देश्य कुछ भी रखें, प्रारब्ध कर्म काटने को रखें या गुणवत्ता के अभिवर्द्धन को रखें- ये स्पष्ट रखना जरूरी है कि चीजों को पकने देने के लिए यदि समय जरूरी है तो व्यक्तित्व को परिपक्व होने के लिए भी समय देना जरूरी हो जाता है।

इसीलिए अनुष्ठान-साधना के लिए एक निश्चित समयावधि रखी गई है। इस समय की सीमा को सुनिश्चित करने के पीछे का कारण यह कि दिन-प्रतिदिन के कर्मभोगों को तो नित्य के पूजा क्रम से काट पाना संभव हो जाता है, परंतु एक बड़े कर्मभोग को काटने के लिए एक निर्धारित साधनावधि की आवश्यकता पड़ती है। यह समयावधि कर्म-प्रारब्ध की विशालता के आधार पर नियत की गई है।

इसके बाद मंत्रों को करने का क्रम आता है, जिनको करने के पीछे का विज्ञान घर्षण का विज्ञान है; जिसके माध्यम से एक विशिष्ट ऊर्जा को जन्म देने का क्रम संपन्न किया जाता है।

जैसे जब दो धातुएँ आपस में टकराती हैं तो उनके परस्पर टकराने से चिनगारियाँ निकलती हैं, वैसे ही जब साधक मंत्र का उच्चारण करते हैं तो उनके बोलने के क्रम से एक विशेष ऊर्जा को जन्म मिलता है, जो पूरे शरीर में अंगों, नाड़ियों, तंतुओं के माध्यम से गतिमान हो जाती है और जब यह जाकर विभिन्न अंगों-उपांगों से टकराती है तो प्रभाव निकलकर के आता है ?

मंत्र का प्रभाव इस आधार पर निकलता है कि मंत्रों के संचरण व उनके अंगों से टकराने पर एक तो विस्फोट होता है, जो ऊर्जा के चक्र को जन्म देता है और दूसरा वह एक तप का निर्माण करता है।

ऊर्जा तो इस आधार पर निकलती है कि मंत्र का शब्द जिस अंग से टकराया, उसकी संरचना कैसी है और इस आधार पर यह एक प्राण ऊर्जा प्रदान करती है, पर उसकी लयबद्धता, एक विशेष भाव को जन्म देती है, जो उस मंत्र के छंद के कारण आता है।

चूँकि मंत्रों का गठन शब्दों के पुनर्गठन से हुआ है, इसलिए शब्दों की शक्ति उनके विस्फोट से आती है। जैसे बम के फूटने पर धमाका भी होता है और ऊर्जा भी निकलती है, वैसे ही मंत्रों के शब्द ध्वनि भी करते हैं और एक नूतन ऊर्जा को भी जन्म देते हैं।

मंत्र के शब्दों को हम अक्षर कहकर के पुकारते हैं – जिसका अर्थ है अविनाशी, जिसको हम कभी नष्ट नहीं कर सकते। इसीलिए गायत्री मंत्र को कहे हुए कई सहस्राब्दियाँ बीत गईं, पर उसकी ऊर्जा को आप आज भी महसूस कर सकते हैं। इन मंत्राक्षरों का उद्देश्य मानवीय चेतना को झकझोर कर उसे उसके जीवन के उद्देश्य का स्मरण कराना होता है। इस आधार पर किया गया मंत्रजाप विशिष्ट परिणामों को जन्म देने वाला होता है। इस बार की नवरात्र- साधना एक ऐसे ही विशिष्ट उद्देश्य को लेकर के आई है, ताकि इसको करने के साथ ही हम अपने जीवन के उद्देश्य को भी प्राप्त कर सकें और उस संभावना को साकार कर सकें, जो नवरात्र- साधना का मूल आधार कही जा सकती है।

स्रोत – युग निर्माण योजना

Share it via Social Media

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *