भाग्यवाद का नाम लेकर अपने जीवन में निराशा का स्थान कहाँ?

दैनिक इंडिया न्यूज लखनऊ

भाग्यवाद का नाम लेकर अपने जीवन में निराशा निरुत्साह के लिए स्थान मत दीजिए। आपका गौरव निरन्तर आगे बढ़ते रहने में है। भगवान् का वरद-हस्त सदैव आपके मस्तक पर है। वह तो आपका पिता अभिभावक, संरक्षक, पालक सभी कुछ है। उसकी अकृपा आप पर भला क्यों होगी ? क्या यह सच नहीं है कि उसने आपको यह अमूल्य मनुष्य शरीर दिया है। बुद्धि दी है, विवेक दिया है। कुछ अपनी इन शक्तियों से भी काम लीजिए, देखिए आपका भाग्य बनता है या नहीं ? भाग्य सदैव पुरुषार्थ का ही साथ देता है।

दुर्भाग्य के प्रमुख कारण मनुष्य के मनोविकार हैं। इन्हीं से जीवन बर्बाद होता है। काम, क्रोध, लोभ तथा मोह आदि के द्वारा ही मनुष्य का जीवन अपवित्र बनता है। संक्षेप में इसी को ही दुर्भाग्य की संज्ञा दी जा सकती है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह इन्द्रिय, मन और बुद्धि की अस्वच्छता को शुद्ध बनाने का सदैव अभ्यास करता रहे, इससे वह भविष्य सुन्दर बना सकता है। अनावश्यक वस्तुओं के अधिक से अधिक संचय को ही भाग्य नहीं कहते। वह मनुष्य जीवन में अच्छाइयों का विकास है, इसी से उससे शाश्वत सुख और शान्ति की उपलब्धि होती है। सत्कर्मों का आश्रय ही एक प्रकार से सौभाग्य का निर्माण करता है।

कर्म चाहे वह आज के हों अथवा पूर्व जीवन के उनका फल असंदिग्ध है। परिणाम से मनुष्य बच नहीं सकता। दुष्कर्मों का भोग जिस तरह भोगना ही पड़ता है, शुभ कर्मों से उसी तरह श्री—सौभाग्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। यह सुअवसर जिसे उपलब्ध हो, वही सच्चा भाग्यशाली है और इसके लिए किसी दैव के भरोसे नहीं बैठना पड़ता। कर्मों का सम्पादन मनुष्य स्वयं करता है। अतः अपने अच्छे-बुरे भाग्य का—निर्णायक भी वही है। अपने भाग्य को वह कर्मों द्वारा बनाया-बिगाड़ा करता है। हमारा श्रेय इसमें है कि सत्कर्मों के द्वारा अपना भविष्य सुधार लें। जो इस बात को समझ लेंगे और इस पर आचरण करेंगे उनको कभी दुर्भाग्य का रोना नहीं रोना पड़ेगा।

युगदृष्टा पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी के लेख से साभार संकलित

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