पौराणिक मान्यता पर आधारित मनोभावों के उल्लास का पर्व होली

डॉ- विजय कुमार मिश्र, दैनिक इंडिया न्यूज,दिल्ली:होली के उल्लासमय वातावरण में मनुष्य व प्रकृति दोनों का सुप्त आंतरिक अहलाद, उत्साह, स्फुरणा बाहर निकलता है और वातावरण को खुशियों से सराबोर कर देता है। यह पर्व मानवीय प्रवृत्ति एवं प्रकृति प्रवाह दोनों के परिष्कार से जुड़ा है, तभी तो होली के आगमन पर लोगों के मनों में वर्ष भर से दबी कुंठाये भस्मीभूत, निर्बीज होने को मचल उठती हैं। सम्पूर्ण समाज एक स्वर से बोल पडता है कि अब बस,जो होना था हो, ली,आगे का जीवन कुंठाओं में नहीं,खुशियों से बिताना है। हिंदू पंचांग के अनुसार संवत्सर के अंतिम महीने फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होलिका दहन व उसके दूसरे दिन होली खेली जाती है। यह एक प्रकार से नये संवत्सर के स्वागत व खुशी का पर्व है।

                        

होली समूह मन के निर्माण का पर्व है। समूह मन में उल्लास,सद्संकल्पों, सद्भावों के विकास का पर्व है। इस पर्व पर होलिका जैसी दुष्ट एवं भ्रष्ट मानसिकता प्रहलादी भक्ति के समक्ष जलकर राख होने को विवश हो जाती है। होली के उल्लास से जुड़कर सामाजिक समरसता व अपनत्व जैसे सामाजिक उत्तरदायित्व को स्वीकार करने का पर्व है। समाज की अभिनव रचना में बाधक होलिका रूपी विध्वंसकारी शक्तियों, कुरीतियों, मूढ़मान्यताओं] अंध विश्वास, व्यसनों, कुविचारों,दुर्भावों, द्वेष- पाखण्ड आदि को सामूहिक उल्लास के सहारे भस्मीभूत- नेस्तनाबूत करने के सामूहिक संकल्प का पर्व है होली।
आज का मानव अपने क्रिया कलापों से अपने जीवन के हर रंग को बदरंग करने पर तुला है। श्रेष्ठ विचारों की जगह वह ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य से भरने लगा हैं। सम्बन्धों की मधुरता की जगह कटुतापन, उपेक्षा, उपहास जीवन में घोल रहा है, सरसता,सहजता की जगह डराने की प्रवृत्ति घुस पड़े, अश्लीलता, संकीर्णता, जातिवाद का नंगानाच व्यक्तिगत, सामाजिक व राष्ट्रीय जीवन को कठिन बनाने लगे तो कोई क्या करें।


आज समाज में ऐसे घटते मूल्यों के प्रति समाज को सचेत करने एवं संवेदनशीलता, विनम्रता,शालीनता, शिष्टता का जागरण करना,जीवन से निराशा,हताशा, उदासीनता दूर भगाना होली का संदेश है।

होलिकादहन को नवान्नेष्टि यज्ञपर्व भी कहा जाता है। इस दिन खेतों से पककर आए हुए नए अन्न को होलिकादहन की अग्नि में हवन कर प्रसाद लेने की परम्परा है। इस प्रकार होलिकादहन करके हम सब अच्छे भावों के साथ नवसंवत्सर की तैयारी करते हैं। होली पर्व के साथ समयानुसार ऐसे अनेक पौराणिक आख्यान जुड़ते गए। पर भक्त प्रहलाद, हिरण्यकशिपु व होलिका से संबंधित वर्णन सर्वमान्य है, कहते हैं हिरण्यकशिपु राक्षसों का राजा था। वह अहंकारवश स्वयं को ईश्वर मानने लगा और भगवान विष्णु से मन में बैर व प्रतिस्पर्धा रखता था। उसने अपने राज्य में भगवान की पूजा पर रोक लगा दी ,पर उसका पुत्र प्रहलाद जन्म से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। वहीं हिरण्यकशिपु की बहन होलिका नित्य अग्निस्नान करती थी, पर वरदान के चलते जलती नहीं थी। इसीलिए हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका को प्रहलाद को लेकर अग्निस्नान का आदेश दिया। पर प्रहलाद तो सुरक्षित बच गये, जबकि होलिका जलकर भस्म हो गई। इस प्रसिद्ध पौराणिक आख्यान आगे चलकर होलिकादहन का आधार बना। वैसे होलिका हमारे अंदर के विकारों का प्रतीक है और प्रहलाद भक्ति, प्रेम व सद्भाव का प्रतीक है।


होलिकादहन के दूसरे दिन लोग खुशियां मनाते हैं। जिसमें विभिन्न रंगों के गुलाल, अबीर आदि का प्रयोग किया जाता है, लोग एक-दूसरे के साथ खुशियां मनाते हैं। इसीलिए होली रंगों का त्योहार भी कहलाता है। खुशियां बिखेरने और ऊँच-नीच, जात-पांत के भेदभाव से मुक्ति का पर्व है होली। लेकिन समय के साथ इसमें विकृतियों का समावेश हुआ। जैसे प्राकृतिक रंग से होली मनाने के स्थान पर कैमिकल व कीचड़ का प्रयोग करना। पर्व के दिन नशीली चीजों को ग्रहण करना,अश्लीलता व फूहड़पन जैसी हरकतों ने होली को मलिन किया है। हुड़दंगों का फायदा उठाकर समाज में सिर उठाती अमानवीय विकृतियाें जैसी असहनीय घटनाएं त्योहार पर लगे दाग हैं, जो इसे बेरंग बनाते हैं। बहुत से लोग इसी कारण अपने घरों से नहीं निकलते और पर्व में अपनी सामूहिक सहभागिता से बचते हैं। हमें होली जैसे पर्व को इनसे मुक्त करने की आवश्यकता है।


इसके लिए हम सबको रंग के स्थान पर मेंहदी] हल्दी-बेसन, कत्था व हल्दी मिश्रण, लाल चंदन पाउडर,नीले गुड़हल के फूलों के बुरादों का पाउडर, टेसू के फूलों का उपयोग करना नैसर्गिक प्रकृति से जोड़ने में सहायक होगा। इससे देश का पर्यावरण समृद्ध होगा। प्राकृतिक रंगों से सुशोभित होली खेलने से हमारी चिंताएं और तनाव दूर हो सकेंगे, मन में प्रफुल्लता आएगी। जीवन से फूहड़ता मिटाने में सहायता मिलेगी। इसी तरह गाये जाने वाले गीतों में प्रकृति के गीतों को जोड़ा जा सकता है। यदि होली में हम सब इन प्रयोगों को अपना सके] तो इससे हमारी आस्थाओं व मान्यताओं को मजबूती मिलेगी, सामाजिक मर्यादा का विकास होगा और आने वाली पीढ़ी हुड़दंग से मुक्त होली का आनन्द ले सकेगी। आइये! हम सब मिलकर होली को नव प्रयोगो के साथ पुनः सनातन परम्परा के गौरव से जोड़ने का संकल्प लें। जिससे पर्व के बहाने जनमानस स्वयं के अंतर उल्लास के सहारे समाज को खुशहाल रख सके। सामाजिक समरसता का वातावरण बनें और अंततः जीवन का प्रत्येक क्षण स्वतः होलिकोत्सव का पर्याय बन सके। आखिर होली प्राकृतिक वातावरण के बीच मनोभावों के उल्लास का ही तो पर्व है।

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