प्राणायाम: जीवन का अभिन्न अंग और साधना का गहन रहस्य

दैनिक इंडिया न्यूज़ लखनऊ: प्राचीन भारतीय योग और साधना पद्धतियों में प्राणायाम का एक महत्वपूर्ण स्थान है, जिसे साधकों के जीवन में अद्वितीय महत्व प्राप्त है। ‘गायत्री महाविज्ञान’ के गहन रहस्यों पर आधारित इस संवाद में प्राणायाम के अद्भुत प्रभावों और उसकी पवित्रता पर विस्तृत चर्चा की गई। पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के द्वारा रचित इस ग्रंथ ने प्राचीन परंपराओं और आधुनिक जीवन के बीच एक महत्वपूर्ण सेतु का निर्माण किया है, जो साधकों को आत्म-उन्नति और शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के सर्वोच्च स्तर पर पहुँचाने में सहायता करता है।

प्राणायाम का महत्व और इसकी वैज्ञानिकता

प्राणायाम, जिसे सन्ध्या के तीसरे कोष के रूप में भी जाना जाता है, केवल सांसों का नियंत्रण ही नहीं है, बल्कि यह एक शक्तिशाली साधना है, जो साधक के भीतर गहन परिवर्तन लाने में सक्षम है। इस प्राचीन प्रक्रिया के माध्यम से, साधक न केवल अपने शारीरिक स्वास्थ्य को सुधार सकता है, बल्कि मानसिक स्थिरता, आध्यात्मिक विकास, और चैतन्यता के उच्चतम स्तर तक पहुँच सकता है।

गायत्री महाविज्ञान के अनुसार, सृष्टि की संरचना दो प्रमुख तत्वों पर आधारित है—जड़ और चैतन्य। जहाँ जड़ तत्व भौतिक शरीर और बाहरी जगत से संबंधित है, वहीं चैतन्य तत्व आत्मा, मानसिक शक्तियों और प्राण से संबंधित है। प्राणायाम के अभ्यास से साधक अपने चैतन्य तत्व को जाग्रत कर सकता है, जिससे आत्म-तेज, शूरता, दृढ़ता, पुरुषार्थ, महानता, और सहनशीलता जैसे गुणों का विकास होता है।

प्राणशक्ति और आत्म-विकास का संबंध

प्राणशक्ति, जो साधक की आत्मिक ऊर्जा का स्रोत है, का जीवन में अत्यधिक महत्व है। इसके माध्यम से साधक अपने भीतर के नकारात्मक गुणों को समाप्त कर सकता है और एक स्थिर, संतुलित, और सकारात्मक जीवन जी सकता है। जिन व्यक्तियों में प्राणशक्ति की कमी होती है, वे सामान्यतः डरपोक, दब्बू, कायर, और अस्थिर होते हैं, जबकि प्राणशक्ति की अधिकता से आत्म-तेज और आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।

इस प्रक्रिया को सफलतापूर्वक निष्पादित करने के लिए, प्राणायाम का नियमित अभ्यास आवश्यक है। प्राणायाम के चार मुख्य भाग—पूरक, अन्तः कुम्भक, रेचक, और बाह्य कुम्भक—का सही ढंग से पालन करने से साधक अपने जीवन में असाधारण परिवर्तन ला सकता है।

प्राणायाम की प्रक्रिया और सावधानियाँ

प्राणायाम के अभ्यास के दौरान मेरुदण्ड का सीधा और सावधान रखना अनिवार्य है। इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना नाड़ियों के माध्यम से प्राणशक्ति का प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए रीढ़ की हड्डी को सीधा रखना आवश्यक है। यदि मेरुदण्ड झुका हुआ हो, तो प्राण की धारा मूलाधार तक पहुँचने में बाधित होती है, जिससे साधक को प्राणायाम का पूरा लाभ नहीं मिल पाता।

प्राणायाम के चार चरणों में से प्रत्येक का अपना महत्व है:

  1. पूरक: इस चरण में साधक को नासिका द्वारा धीरे-धीरे सांस अंदर खींचनी चाहिए और ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। इस दौरान यह भावना होनी चाहिए कि वह ब्रह्मांडीय ऊर्जा को अपने भीतर खींच रहा है।
  2. अन्तः कुम्भक: इस चरण में सांस को अंदर रोककर ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ मंत्र का जप करना चाहिए। यह विचार करना चाहिए कि भीतर खींची गई प्राणशक्ति शरीर के प्रत्येक अंग में ऊर्जा का संचार कर रही है।
  3. रेचक: सांस को बाहर छोड़ते समय ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ मंत्र का जप किया जाता है। इस दौरान साधक को यह भावना करनी चाहिए कि भीतर की सारी नकारात्मक ऊर्जा बाहर निकल रही है।
  4. बाह्य कुम्भक: सांस बाहर छोड़ने के बाद इसे कुछ समय के लिए रोककर ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ मंत्र का जप करना चाहिए, जिससे विवेक और ज्ञान का जागरण होता है।

साधना में प्राणायाम की भूमिका

प्राणायाम को साधना का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है, जो न केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है, बल्कि साधक को आत्म-साक्षात्कार की दिशा में भी अग्रसर करता है। पाँच प्राणायाम करने से शरीर में स्थित पाँचों प्राण—प्राण, अपान, व्यान, समान, और उदान—का व्यायाम, स्फुरण, और परिमार्जन होता है।

इस प्राचीन साधना को अपनाने से न केवल साधक का व्यक्तिगत जीवन समृद्ध होता है, बल्कि वह समाज में एक प्रेरक और आध्यात्मिक नेता के रूप में स्थापित हो सकता है। इसलिए, प्राणायाम को नित्य साधना में सम्मिलित करना जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए अत्यंत आवश्यक है।

उपसंहार

प्राणायाम, अपने गहन और वैज्ञानिक आधार के साथ, केवल एक श्वास तकनीक नहीं है, बल्कि यह एक अद्वितीय साधना है जो जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करती है। इसके नियमित अभ्यास से साधक न केवल अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को सुधार सकता है, बल्कि आत्म-ज्ञान और आत्म-विकास की दिशा में भी महत्वपूर्ण प्रगति कर सकता है। ‘गायत्री महाविज्ञान’ के सिद्धांतों पर आधारित इस प्राचीन प्रक्रिया का जीवन में समावेश करके, हम न केवल व्यक्तिगत स्तर पर, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं।

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