हरिंद्र सिंह दैनिक इंडिया न्यूज लखनऊ। एक ही वस्तु को दो तरह से देखा जा सकता है। गिलास आधा भरा हो, तो उसे सम्पन्न भी कह सकते हैं और अभावग्रस्त भी।
जितना भरा है, उतनी उसकी संपन्नता है और खाली जगह अभाव। अपनी दृष्टि दोनों में से जिस पक्ष को महत्व देगी, गिलास की स्थिति उसी आधार पर सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य स्तर की गिनी जाएगी।
चूँकि गिलास आधा भरा हुआ है, इसलिए अभावग्रस्त कैसे कहा जाए? चूँकि वह गिलास आधा खाली है, इसलिए उसे सौभाग्यशाली भी कौन कहे?
गिलास निर्जीव है, यह निर्णय करना अपना काम है कि उसे भाग्यवान कहें या अभागा? सुखी समझे या दुःखी? वस्तुएँ निर्जीव है, उनमें सुख है न दुःख।
जिन पदार्थों में अपनी चेतना नहीं, वे भला किसी चेतन प्राणी को किस प्रकार सुखी या दुःखी बना सकते हैं? मनुष्य अपने सोचने के ढंग की प्रतिक्रिया ही सुख या दुःख के रूप में प्रतिध्वनित देखता, सुनता है।
जैसी कुछ भली-बुरी अनुभूतियाँ हमें होती है, वस्तुतः वह अपने ही चिंतन और मनः स्तर का प्रतिफल, परिपाक, परिणाम है। अपने को जो उपलब्ध है, वह उतना अधिक है कि तथाकथित चौरासी लाख योनियों के जीवधारी उसे स्वर्गोपम और देवोपम ठहराते होंगे।
मनुष्यों में ही करोड़ों ऐसे होंगे, जो उस स्थिति के लिए तरसते होंगे, जिसमें हम रह रहे हैं। यदि उनकी दृष्टि से अपना मूल्यांकन करें तो प्रतीत होगा, कि अपनी सम्पन्नता सन्तोषजनक है और हम स्वर्गीय परिस्थितियों में रह रहे हैं।
( संकलित व सम्पादित अखण्ड ज्योति मार्च 1973 पृष्ठ 22 )