
दैनिक इंडिया न्यूज़ नई दिल्ली ।दिसंबर 13, 2024 को महाराष्ट्र के औद्योगिक इतिहास का एक ऐसा अध्याय लिखा गया, जिसने सत्ता, पूंजी और नीतिगत निष्पक्षता पर गहरे सवाल खड़े कर दिए। इस दिन मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने ड्रोनागिरी इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड से 5,286 एकड़ की अत्यंत मूल्यवान औद्योगिक भूमि का 74 प्रतिशत हिस्सा मात्र ₹ 2,200 करोड़ में खरीद लिया। यह जमीन नवी मुंबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे, जेएनपीटी बंदरगाह, मुंबई ट्रांस हार्बर लिंक और मुंबई–पुणे हाइवे के करीब स्थित है, जिससे इसका रणनीतिक महत्व और भी बढ़ जाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि इसका वास्तविक बाजार मूल्य ₹ 1 लाख करोड़ से कम नहीं, लेकिन सौदा “कौड़ियों के भाव” में निपटा दिया गया।
यह सवाल सिर्फ एक कॉर्पोरेट लेन-देन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मौजूदा सरकार की नीतियों, नियामक संस्थाओं की भूमिका और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के “विकास” के वादों की असलियत पर भी सीधा प्रहार करता है। जब इतनी महत्वपूर्ण भूमि का सौदा इस तरह किया जाता है, तो यह शक गहराता है कि कहीं यह सत्ता और पूंजी का गठजोड़ तो नहीं, जहां लाभार्थी चुनिंदा होते हैं और बाकी देश केवल तमाशा देखता है।
CIDCO, जो इस जमीन का मूल स्वामी था, ने पहले अधिकार (Right of First Refusal) की छूट वापस लेकर इस सौदे का रास्ता साफ कर दिया। सवाल यह है कि क्या यह निर्णय सार्वजनिक हित में था, या किसी निजी हित के लिए? जब इतनी बड़ी संपत्ति हस्तांतरित हो रही थी, तब क्या स्वतंत्र मूल्यांकन हुआ? क्या खुली नीलामी हुई? जवाब न के बराबर है। इस पूरे प्रकरण में पारदर्शिता नाम की चीज़ नज़र नहीं आती।
मोदी सरकार बार-बार “भ्रष्टाचार मुक्त भारत” और “सबका साथ, सबका विकास” की बातें करती है, लेकिन जब बात बड़े कॉर्पोरेट घरानों की आती है, तो नियमों को कैसे तोड़ा-मरोड़ा जाता है, इसका यह सौदा ज्वलंत उदाहरण है। यह वही सरकार है जो आम आदमी से ज़मीन अधिग्रहण के समय बाज़ार मूल्य का हवाला देकर मुआवज़ा घटाती है, लेकिन जब बारी बड़े उद्योगपतियों की आती है तो बाज़ार मूल्य को भूल जाती है।
एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ड्रोनागिरी इंफ्रास्ट्रक्चर का मालिकाना ढांचा और रिलायंस के साथ उसके संभावित व्यावसायिक संबंध पूरी तरह साफ नहीं हैं। आधिकारिक बयान में कहा गया कि यह “नो रिलेशन” डील है, लेकिन जब मालिकाना हिस्ट्री और जुड़े कॉर्पोरेट नेटवर्क को देखा जाता है, तो सवाल उठते हैं। अगर यह सच में पूरी तरह स्वतंत्र सौदा है, तो फिर इसकी प्रक्रिया को पूरी तरह सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि “मजबूत नेता” और “निष्पक्ष प्रशासक” की है, लेकिन ऐसे सौदे इस छवि को खोखला कर देते हैं। यह सिर्फ एक कॉर्पोरेट डील नहीं है, बल्कि यह इस बात का संकेत है कि भारत में आर्थिक नीतियां कैसे ताकतवरों के लिए बनाई और लागू की जाती हैं। जब प्रधानमंत्री अपने मंचों से “पारदर्शिता” और “जनहित” की बात करते हैं, तो ऐसे लेन-देन उस भाषणबाज़ी को मज़ाक बना देते हैं।
वास्तविक विकास तब होगा, जब नीतियां सिर्फ चुनिंदा कॉर्पोरेट घरानों के लिए नहीं, बल्कि सभी नागरिकों के लिए बराबर अवसर प्रदान करें। लेकिन मौजूदा दौर में लगता है कि सरकार का विकास मॉडल “दोस्तों” के लिए है, जिसमें बड़े उद्योगपतियों को सबसे पहले और सबसे बड़ा लाभ मिलता है। यह देश की लोकतांत्रिक और आर्थिक व्यवस्था दोनों के लिए खतरनाक संकेत है।
आज देश के लोग महंगाई, बेरोज़गारी और बुनियादी सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं, वहीं सत्ता के गलियारों में अरबों-खरबों की जमीनें बेहद कम कीमत पर ऐसे लोगों को दी जा रही हैं, जिनकी सत्ता तक सीधी पहुंच है। मोदी सरकार को जवाब देना होगा कि यह सौदा जनहित में था या फिर यह सत्ता और पूंजी के गठजोड़ का एक और उदाहरण है।
इतिहास गवाह है कि जब-जब संसाधनों का बंटवारा निष्पक्षता से नहीं होता, तब-तब सामाजिक असमानता और आर्थिक विषमता बढ़ती है। इस सौदे ने साबित कर दिया है कि भारत में अभी भी ताकतवरों के लिए अलग और कमजोरों के लिए अलग नियम हैं। सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी इस दोहरे मापदंड को खत्म करने के लिए तैयार हैं, या फिर यह “विकास” भी सिर्फ एक चुनावी नारा बनकर रह जाएगा।