
दैनिक इंडिया न्यूज़ ,नई दिल्ली। क्या आपने कभी अपनी दादी या नानी को अचार बनाते देखा है? ज़रा याद कीजिए — वो हमेशा मिट्टी या कांच के मर्तबान में ही अचार रखती थीं। सूरज की तपिश में पकने वाला वह अचार महीनों तक बिना बिगड़े स्वाद देता था। लेकिन आज का दौर तेज़ी और सुविधा का है — लोग मिट्टी के मर्तबान को बोझ समझकर प्लास्टिक के जार में अचार रख देते हैं, और यहीं से शुरू हो जाती है बीमारी की कहानी।
हालिया शोध और डॉक्टरों की राय के मुताबिक, प्लास्टिक के डिब्बों में रखा गया अचार आपके शरीर में ज़हर घोल सकता है। कई अध्ययन बताते हैं कि जब अचार जैसी अम्लीय चीज़ें (acidic food) प्लास्टिक से संपर्क में आती हैं, तो उससे “बिसफिनॉल-ए (BPA)” और “माइक्रोप्लास्टिक” जैसे हानिकारक रसायन निकलने लगते हैं। नेपाल और भारत में हुए परीक्षणों में पाया गया कि प्लास्टिक कंटेनरों में रखे अचार के नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा 51 से 58 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम तक पाई गई। यह वही प्लास्टिक कण हैं जो धीरे-धीरे हमारे शरीर में जमा होकर कैंसर, हार्मोनल असंतुलन, और पेट की बीमारियों को जन्म देते हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया और कई अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों में यह भी सामने आया कि फर्मेंटेड या ऑयली खाद्य पदार्थ जब लंबे समय तक प्लास्टिक में रखे जाते हैं, तो कंटेनर से निकलने वाले रसायन भोजन में घुल जाते हैं। यही कारण है कि पुराने समय के लोग मिट्टी और सिरेमिक के बर्तनों को प्राथमिकता देते थे — वे जानते थे कि प्रकृति में ही स्वास्थ्य का विज्ञान छिपा है।
डॉक्टरों का कहना है कि प्लास्टिक कंटेनर केवल सुविधा नहीं, एक धीमा ज़हर हैं। गर्मी, धूप और समय के साथ प्लास्टिक टूटता है, और उसका हर सूक्ष्म कण आपके भोजन में घुसता जाता है। यही अचार जब रोज़ के भोजन में शामिल होता है, तो शरीर उसे “स्वाद” समझकर निगलता है, लेकिन भीतर से धीरे-धीरे ज़हर फैलता है।
मेडिसन हॉस्पिटल के संचालक डॉ. सन इक़बाल का कहना है कि प्लास्टिक का असर सिर्फ अचार तक सीमित नहीं है — यह महिलाओं और लड़कियों के स्वास्थ्य के लिए तो और भी खतरनाक साबित हो रहा है। उन्होंने बताया कि जब प्लास्टिक के बर्तन या बोतलें गर्म और ठंडी होती हैं, तो उनमें से एस्ट्रोजन केमिकल्स निकलने लगते हैं। ये रसायन शरीर के हार्मोन संतुलन को बिगाड़ देते हैं, जिससे पीसीओडी, थायरॉइड, मोटापा और बांझपन जैसी समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं। डॉ. इक़बाल का कहना है कि “यह धीमा जहर है, जो रोज़मर्रा की आदतों में छिपा हुआ है — पानी पीने से लेकर अचार खाने तक, प्लास्टिक महिलाओं के हार्मोनल सिस्टम पर स्थायी क्षति पहुंचा रहा है।” उन्होंने यह भी चेताया कि अगर अब भी सतर्कता नहीं बरती गई, तो आने वाले वर्षों में हॉर्मोनल बीमारियाँ महामारी के रूप में सामने आ सकती हैं।
अब सवाल यह नहीं कि अचार कितना स्वादिष्ट है — सवाल यह है कि क्या वह सुरक्षित है?
मिट्टी, कांच या सिरेमिक के मर्तबान न सिर्फ परंपरा हैं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी सबसे सुरक्षित विकल्प हैं। यही कारण है कि चिकित्सक और शोधकर्ता एक सुर में कह रहे हैं कि अचार जैसे अम्लीय खाद्य पदार्थों को कभी भी साधारण प्लास्टिक जार में न रखें।
फिर भी सच्चाई यह है कि जनता और सरकार दोनों शोर हैं — और अपने आपको बीमारियों के हवाले धकेल रहे हैं।
जहां लोग सस्ती सुविधा के चक्कर में स्वास्थ्य को भूल बैठे हैं, वहीं सरकारें प्लास्टिक उत्पादों के बेतहाशा उपयोग पर आंख मूंदे बैठी हैं। सड़कों पर, दुकानों में, रसोई तक — प्लास्टिक अब ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है, लेकिन उसके दुष्परिणामों पर कोई गंभीर बहस नहीं।
अगर हमने अब भी चेतना नहीं दिखाई, तो आने वाली पीढ़ियां सिर्फ अचार का नहीं, अपने ही शरीर का स्वाद खो देंगी।
