21वीं सदी में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता:अभय

कहने को तो हमें अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता मिले हुए 74 वर्ष पूरे हो चुके हैं किंतु 1947 में जब देश आजाद हुआ था तब से आज 2021 तक हम कहां तक आजाद है इस पर प्रश्न चिन्ह अब तक लगा हुआ है
देश की आजादी के साथ हमें एक किताब मिली,वह शक्तिशाली किताब जिसने देश, इसकी परिभाषा,इसकी शासन व्यवस्था तथा देश के समस्त नागरिकों को मिलने वाले कुछ अधिकार तथा उनके कर्तव्य से परिचय कराया
संविधान नामक इस पुस्तक को देश का धर्म ग्रंथ कहना कतई अतिशयोक्ति ना होगा। इस धर्म ग्रंथ में देश के नागरिकों का उत्पीड़न होने से बचाने हेतु कुछ अधिकार लिखित है जिनमें से अनुच्छेद 19 में वर्णित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार नागरिकों को स्वतंत्र रूप से अपना मत प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता देता है
कहने को तो संविधान एवं इसके समस्त अनुच्छेदों की रक्षा करना एवं उनका अक्षरश पालन कराना सरकार यानी कि कार्यपालिका की प्रथम जिम्मेवारी है किंतु प्रायोगिक रूप में ऐसा होता प्रायः नहीं दिखता ।
आजादी के बाद मूल अधिकारों का सर्वप्रथम उल्लंघन आपातकाल के दौरान देखने को मिला था जोकि एक घोषित आपातकाल था तमाम नेताओं पत्रकारों विद्वानों को तत्कालीन सरकार ने कार्यपालिका की सहायता से जेल के अंदर डाल दिया विभिन्न पत्रिकाओं,समाचार पत्रों तथा टीवी चैनलों पर रोक लगा दी गई ; यह एक प्रत्यक्ष घटना थी जिसने पूरे देश को हिला कर रख दिया था यद्यपि उसके बाद दोबारा आज तक ऐसा प्रत्यक्ष रूप से तो देखने को नहीं मिला किंतु यदि हम पिछले एक दशक को ध्यान से देखें तो हमें ऐसा देखने को अवश्य मिला है की शासन प्रशासन के द्वारा विभिन्न अवसरों पर जनमानस की आवाज को दबाने का कुत्सित प्रयास किया गया।  इसका प्रारंभ पिछली सरकार में जब निर्भया हत्याकांड के फल स्वरुप लोगों का गुस्सा रोड पर फूटा था तब तत्कालीन सरकार के द्वारा बल प्रयोग करके लोगों की आवाज को दबाने का पूरा प्रयास किया गया,इतना ही नहीं बढ़ चुके भ्रष्टाचार के विरोध में जब लोगों ने आवाज उठाना प्रारंभ किया तो भी सरकार ने ऐसा ही कुछ कदम उठाया था ;यद्यपि इन दोनों घटनाओं का खामियाजा सत्तारूढ़ दल को अगले चुनाव में उठाना पड़ा और वह सत्ता से बाहर हो गए साथ ही साथ जनता ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया कि यदि उनकी आवाज नहीं सुनी जाएगी तो सत्तारूढ़ दल को वह आवाज सुनने लायक ही नहीं छोड़ेंगे।
एक नई सरकार बनी जोकि लोगों की बहुत सारी उम्मीदों के साथ बनी थी प्रारंभ में लोगों की सुनवाई सरकारी कर्मियों के काम करने के तरीके में बदलाव भी दिखा ई गवर्नेंस,मेक इन इंडिया जैसे नारे भी ऐसा लगा कि मानो फलित से होते दिख रहे हैं किंतु जैसे जैसे समय बीता सरकार तो बदल गई किंतु सरकार में बैठे लोग नहीं बदले फिर से वही रवैया अपनाया जाने लगा पहले कोई घटना रोकने में अपनी नाकामी को छुपाने का प्रयास उसमें न सफल होने पर लोगों को बरगलाने का प्रयास इस पर भी ना सफल होने पर लोगों की आवाज को दबाने का प्रयास स्थिति इतनी गंभीर हो चुकी है की सरकारी कर्मचारियों से यदि उनकी ड्यूटी के बारे में भी आपने सवाल पूछ लिया तो ऐसा लगता है कि उन्हें अपने शुद्ध परिष्कृत गालियों से संबोधित कर दिया हो वैसे किसी कार्य विशेष के लिए तो ना उन्हें अपना अधिकार क्षेत्र पता है ना अपनी शक्तियों का एहसास है नहीं वह कार्य करने में इच्छुक दिखाई देते हैं किंतु जैसे ही आप उनसे प्रश्न पूछते हैं उनको यह समस्त ब्रह्म ज्ञान न जाने कहां से प्राप्त हो जाता है जिसका प्रयोग वह आपकी आवाज को दबाने में करने लग जाते हैं I जहां एक और सरकार पूरी तत्परता एवं तन्मयता से जनता का विश्वास हासिल करने में प्रयासरत है वहीं दूसरी ओर सरकार के अधीनस्थ काम करने वाले लोक सेवक एवं सरकारी नौकर जनता के मालिक बनने की हर संभव कोशिश करते हुए दिखाई देते हैं। यदि हम केवल उत्तर प्रदेश की बात करें तो चाहे मामला उन्नाव का रहा हूं या हाथरस का या अभी हाल फिलहाल घटी लखीमपुर की घटना इस बात को प्रमाणित करती हैं की सरकार और जनता के बीच कहीं ना कहीं निर्वात की स्थिति है इन सभी घटनाओं में एक और बात जो उभय निष्ठ थी  वह यह कि सरकार ने त्वरित प्रभाव से संचार व्यवस्थाओं को संबंधित जनपदों में ठप कर दिया ऐसा प्रयास अंग्रेजों के इतिहास में लागू होने वाले एक कानून से है जिसे गैगिंग एक्ट के नाम से जाना जाता है और यदि सरकार की मंशा लोगों की आवाज दबाने की ही थी तो क्यों न इसे भी एक अघोषित आपातकाल की स्थिति मान लिया जाए। इन सभी घटनाओं में एक और बात जो उभय निष्ठ थी वह यह  कि सत्तारूढ़ पार्टी की मंशा  एवं चरित्र एकदम साफ है लेकिन इनके अधीनस्थ अपनी पुरा प्राचीन परंपराओं से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं जिसे सत्तारूढ़ दल को शीघ्र अति शीघ्र ठीक करने की आवश्यकता है अन्यथा निकट विधानसभा चुनाव में इसके प्रभाव पार्टी के सीटों पर अवश्य दिखाई देगा।
यह कैसी आजादी यह कौन सी आजादी जिसमें ना जनता स्वतंत्र है न पत्रकार स्वतंत्र हैं, स्वतंत्र है तो केवल सरकारी महकमा,राजनैतिक विभूतियां एवं उनसे जुड़े हुए करीबी लोग या चाटुकार। तमाम कोशिशों के बावजूद भी जनता या तो जागरूक हो नहीं पा रही या सरकार में बैठे लोग जनता को जागरूक होने नहीं देना चाह रहे क्योंकि उन्हें दिया पता है कि जैसे-जैसे जनता की जागरूकता बढ़ेगी उन सरकारी विभूतियों की अनैतिक असंवैधानिक शक्तियां सीमित होती चली जाएगी अतः बहस का विषय अधिकार एवं उन अधिकारों को दबाएं जाने वाले कारणों का ना होकर उन अधिकारों से कितने अधिक जनमानस को परिचित कराया जाए व उन अधिकारों का कितना अधिक सदुपयोग जनमानस कर सके इस पर होना चाहिए क्योंकि अधिकारों के साथ साथ ही जिम्मेदारियां भी सापेक्ष रूप से निरूपित होती हैं।
जय हिंद।

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