तालिबान और दारुल उलूम दोनों देवबंद विचारधारा को मानते हैं. इसी वजह से अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद दारुल उलूम भी चर्चा में हैं. उन्होंने एक निजी न्यूज़ चैनल के साथ चर्चा में अपनी बात रखी.
तालिबान से दारुल उलूम के जुड़ाव के सवाल पर उन्होंने कहा कि यह बिल्कुल जहालत की बातें हैं, नादानी की बाते हैं. लोग नहीं जानते हैं. उलेमा ने हिंदुस्तान की आजादी के लिए जो किरदार अदा किया है, उसकी तुलना किसी से नहीं हो सकती. 1915 में तुर्की और जर्मनी की सहायता से मौलाना हजरत शेखुद्दीन ने अफगानिस्तान के अंदर अंग्रेजों की मुखालफत के लिए आजाद हिंद नाम की भारत के लिए एक अस्थाई गवर्नमेंट बनाई थी. उस गवर्नमेंट में राजा महेंद्र प्रताप सिंह को सदर, मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली को उसका वजीर-ए-आजम और उबैदुल्लाह सिंधी को गृहमंत्री बनाया गया था.
इन सबने अफगानिस्तान में जाकर काम किया. उस वक्त वहां, बहुत सारे अफगानी उलेमा के पीछे-पीछे चल पड़े. मैंने पहले भी कहा है, जो लोग खुद को देवबंदी समझते हैं, यह वही लोग हैं जो शेखुद्दीन के फॉलोअर्स के वंशज हैं. अफगानिस्तान में देवबंदी मदरसे भी तभी बने. इन लोगों ने कभी दारुल उलूम आकर कोई तालीम हासिल नहीं की. मैं पूछता हूं कि कौन सी गवर्नमेंट हैं जिसने अफगानियों को वीजा देकर हमारे यहां पढ़ने के लिए बुलाया.
आगे उन्होंने कहा कि तालिबान की विचारधारा तो यह है कि वे गुलामी को कुबूल नहीं करते. हमारे पूर्वजों की विचारधारा भी यही थी. दारुल उलूम बना ही गुलामी की मुखालफत के लिए है. इसी विचारधारा पर चलते हुए इन्होंने रूस और अमेरिका की गुलामी की जंजीरों को तोड़ा. बाकी हमारा उनसे कोई ताल्लुक नहीं है. आजकल तो हम खत भी लिखते हैं तो वह सेंसर होता है. फोन पर बात करते हैं, वह भी रिकॉर्ड होती है. कोई यह साबित ही नहीं कर सकता कि दारुल-उलूम का कोई व्यक्ति तालिबानियों से बात करता है.
उन्होंने कहा कि कौन कहता है कि सिर्फ शरिया ही कहता है कि लड़के और लड़कियां साथ नहीं पढ़ सकते. हिंदुस्तान के अंदर कितनी यूनिवर्सिटी और कॉलेज हैं जो कोएड नहीं हैं. लड़कियों के अलग और लड़कों के लिए अलग कॉलेज हैं. तो क्या इन कॉलेजों की बुनियाद तालिबान ने रखी थी? क्या इन्हें स्थापित करने वाले सब तालिबान के बाप हैं? हिंदुस्तान में तालिबान की गवर्नमेंट है क्या?
हम किसी को दहशतगर्द नहीं मानते. तालिबानी भी दहशतगर्द नहीं हैं. अगर तालिबान गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद हो रहे हैं और तो इसे दहशतगर्दी नहीं कहेंगे. आजादी सबका हक है. अगर वह गुलामी की जंजीर तोड़ते हैं तो हम ताली बजाते हैं. अगर यह दहशतगर्दी है तो फिर नेहरु और गांधी भी दहशतगर्द थे. शेखुद्दीन भी दहशतगर्द थे.
वे सारे लोग जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ी वे सारे दहशतगर्द हैं. दूसरी बात फतवे को लेकर लोगों की समझ नहीं है. फतवे का मतलब सिर्फ और सिर्फ इतना है कि कोई हमसे जब पूछता है कि इस हरकत या मसले पर इस्लाम का हुक्म क्या है तो हम उसके सवाल का बस जवाब देते हैं. फतवे किसी को पाबंद नहीं बनाते। मानना न मानना आपकी मर्जी.