दैनिक इंडिया न्यूज, दिल्ली।पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं विचारों से मन प्रेरित होता है और मन के सहारे व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। जैसा मन वैसा मानव कहावत भी है। मन का कहीं न कहीं लगे रहना स्वाभाविक स्वभाव है,पर वह लगता व टिकता उसी में है, जहां उसे उसका स्वाद मिलता है। विचार ही हैं जो मन की न पसंद को पसंद में बदलने, उसे सही जगह टिकाने सही कार्यों में लगाने, सदगुणों से जोड़ने में भूमिका निभाते हैं। मानव में देवत्व भाव जगाकर धरती को ईश्वरीय इच्छा के अनुकूल बनाने की हमारे संतों,ऋषियों व गुरुओं की परम्परा रही है। इसीलिए हर युग में व्यक्ति के मन पर कार्य हुआ है। पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज ने भी विश्व जागृति मिशन के अपने करोड़ों साधकों और शिष्यों के व्यक्तित्व को दैवीय चुम्बकत्व से भरने के लिए विशेष अनुसंधान किये। हर व्यक्ति को उनके जीवन उत्थान एवं समाज निर्माण के लिए सात सूत्र फ्सेवा, सत्संग, सिमरन,स्वाध्याय, समर्पण, सहयोग एवं संतोष से जोड़ा। करोड़ों साधकों ने इन सूत्रें को दिनचर्या के अभ्यास में उतारा और जीवन को सफल और कुशल, सौभाग्यशाली बनाने के साथ साथ देवमय समाज गढ़ने में सफल हुए। आइये उतरते हैं इन सूत्रें की गहराई में—
सेवा संकल्प: यह पूज्य महाराज जी द्वारा अपने शिष्यों के लिए प्रथम सूत्र है। उनका कथन है कि व्यक्ति जिस भी स्तर का जीवन जी रहा हो, उसके द्वारा अपनी समृद्धि का एक अंश दूसरे जरूरतमंदों को ऊंचा उठाने में लगा देने का भाव सेवा है। इस दृष्टि से कुछ न कुछ सेवा हर एक को करनी चाहिए। जैसे हम पर्व-त्योहारों पर अपने व अपने बच्चों के लिए नये कपडे़ खरीदते हैं, तो एक सेट उस अभावग्रस्त के लिए भी खरीदें] जिसका कोई सहारा नहीं है। हम घर में जो आहार बनाते हैं, उसकी एक खुराक निकाल कर किसी जरूरतमंद की भूख अवश्य मिटायें। इससे अंतःकरण ईश्वर की निकटता अनुभव करने में सफल होता है।
यदि हम अपने लिए घर बनवाते हैं,तो ध्यान उन लोगों पर भी रहे] जिनके बच्चों के सिर पर क्षत नहीं है। जब जीवन में करुणभाव जगे और अंतःकरण में सेवा भावना में फूटने लगे] तो समझ लें कि सही साधना सम्पन्न हुई है। वैसे भी सही विविध से नियमित की गयी साधना से जीवन में देव भाव, देने का भाव, सेवा का भाव जगता ही है, तब सेवा उस व्यक्ति के अंतःकरण की आवश्यकता बन जाती है। ऐसा व्यक्ति पीड़ित-दुखी देखकर तड़प उठता है,फिर किसी न किसी के आंसू पोछे बिना वह रह नहीं सकेगा।
सिमरन: पूज्य महाराजश्री अपने शिष्यों को नियमित दिन के प्रथम पहर को सिमरन में लगाने हेतु प्रेरित करते आ रहे हैं। वे कहते हैं कि हर व्यक्ति सुख, आनन्द, प्रेम,सौभाग्,शांति,निश्चिंतता, सुविधा,निर्भयता भरा जीवन जीना चाहता है,ये सारी चीजें जहां से मिलती हैं, वह श्रोत हमारा परमात्मा है। सिमरन से मनुष्य को परमात्मा रूपी स्रोत से जुड़ने का अवसर मिलता है। सिमरन व्यक्ति को जीवन के मूल ड्डोत तक वापस ले जाने में सहायक बनता है। वैसे सिमरन परमात्मा के आसन पर बैठने की विधि भी है। साधकगण अपने देवत्व मार्ग पर बने रहने के लिए नित्य सिमरन करते हैं। तो ईश्वर की शक्तियां उसके अंतःकरण में बहने लगती हैं। अंदर प्रेम,दया, मित्रता,करुणा,सहयोग, सदभावना, दान,सेवा, ममता दूसरों के दुख से पसीजने जैसे भाव उठते हैं। जीवन में करुणा फूटती है, तो दुनियां का अपनत्व खिंचकर स्वयं की ओर आने लगता है। इसीलिए हमारी सनातन संस्कृति में नित्य ब्रह्ममुहूर्त में प्रातः 3 से 7 बजे के बीच अपने ईष्ट का ध्यान व गुरुमंत्र जप करते हुए सिमरन पूर्ण करने की परम्परा है। इससे जीवन में सुख,शांति, संतोष,सौभाग्य द्वार खुलते हैं।
सत्संग: अगला सूत्र है सत्संग। पूज्य महाराजश्री ने अपने सत्संग के सहारे इस धरा पर करोड़ों व्यक्तित्वों को संवारा है। असंख्यों की सोच बदल कर आंतरिक व वाह्य संसाधनों के सही उपयोग की उनमें दृष्टि व शक्ति जगाई। वे कहते हैं फ्सत्संग मन को नई ऊर्जा देता है, व्यक्ति में अंदर से बदलने की चेतना जगाता है। इंद्रिया, बुद्धि, मन सहित सम्पूर्ण शरीर के सकारात्मक नियोजन की क्षमता देता है। गलत विचरते मन को सही दिशा पर लाता है सत्संग। नित्य सिमरन के प्रति जागरूकता भी सत्संग से मिलता है। सिमरन से अंतःकरण में जागृत होने वाली ऊर्जा को सत्संग ही सही नियोजित करता है। सत्संग रूपी ज्ञान ही है जिससे जीवन की सम्पूर्ण पंखुड़ियां खिलती हैं, ऐसा साधक धन, नींद, परिवार में प्रेम और धन की सुगंधि सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
स्वाध्याय: पूज्य सुधांशु जी महाराज द्वारा दिया अगला महत्वपूर्ण सूत्र है स्वाध्याय। नियमित स्वाध्याय से व्यक्ति को अपने ज्ञान, कला, कौशल को समझने व उसे सही दिशा में क्रियाशील करने की प्रेरणा मिलती है। स्वाध्याय जीवन के प्रति गौरव बोध कराता है। पूज्य महाराजश्री कहते हैं फ्स्वाध्याय जीवन के गुणों को लोक व्यवहार से जोड़ने की दृष्टि देता है। व्यक्ति इस स्वाध्याय के सहारे जीवन के केंद्रक एवं परिधि के बीच सहज समन्वय स्थापित कर लेता है। स्वाध्याय आत्म दृष्टि,गुरु दृष्टि, ईश्वर दृष्टि जगाता है जिससे अंतःकरण में श्रेष्ठता-संवेदनशीलता फूटती है। तब जीवन व समाज में सर्वत्र परमात्मा की अनुभूति होने लगती है।
समर्पण: इसका संबंध समाज की श्रेष्ठ परम्पराओं को अनवरत बनाये रखने से है। जैसे एक पेड़ दुनियां से बिदाई लेने से पहले असंख्य बीज बोकर अपने जैसे असंख्य पेड़ तैयार कर जाता है, वैसे ही स्वाध्याय से साधक जब अपनी क्षमता से परिचित होता है] तो उसमें अपनी क्षमता वाले अनेक व्यक्तित्व खड़ा करने की प्रेरणायें अंदर से जगती हैं] यही है समर्पण भाव। तब एक कलाकार अपने जैसे अनेक कलाकार तैयार करने के लिए संकल्पित होता है, एक शिक्षक अच्छे शिक्षक, एक हुनरमंद अपने जैसे हुनर वालों को तैयार करता है, यही समर्पण का उद्देश्य है।
सहयोग: जीवन में सहयोग भावना परमात्मा का एक विशेष उपहार है। कहते हैं इस संसार को परमात्मा की बगिया मानकर जब कोई अपनी सामर्थ्य सेवा भावना के साथ लगाने लगता है, तो उसे गुरु व परमात्मा के आशीर्वाद के साथ-साथ लोक सम्मान, आत्मसंतोष एवं दैवीय अनुग्रह मिलने लगते हैं। वैसे भी मनुष्य का अंतःकरण स्वयं भी गदगद तब हो उठता है,जब उसकी क्षमता लोकहित में लगती है, और तब ही जीवन को संतोष मिलता है। क्योंकि दया, करुणा, प्रेम, उदारता, आत्मीयता, शांति, न्याय,सेवा, सहयोग, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, सदाशयता, संवेदनशीलता,ममता, स्नेह आदि हर मनुष्य के अंतःकरण में उस परमात्मा के गुण ही तो समाये हैं।
संतोष: जब मनुष्य परमात्मा प्रदत्त व आत्म उपार्जित उपलब्धियों जैसे समय, धन,संसाधन, प्रतिभा, पावर,पद, ज्ञान आदि को सेवा में लगाता है,तो उसका अंतःकरण अनन्त विभूतियों से भरने लगता है, वह संतोष अनुभव करता है। इस आत्म संतोष के सामने दुनियां के हर संसाधन अगण्य पड़ जाते हैं। जीवन में ऋषि- महापुरुष होने का गौरव जगता है। हमारे पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज के करोड़ों शिष्य-भक्त एवं स्वजन इन सूत्रें का अभ्यास अपने जीवन में करते हुए परमात्मा को पाने व अपने निज ड्डोत से जुड़ने के प्रयोग वर्षों से करते आ रहे हैं। विश्व जागृति मिशन का यह विराट विस्तार महाराज श्री के ऐसे प्रयोगकर्ताओं से भरा है। आइये! हम सब महाराजश्री के इन सप्तसूत्रें को आत्मसात करें और जीवन को सौभाग्यशाली और समाज को सेवामय बनायें।