श्रीकृष्ण का अमूल्य उपदेश: श्रीमद्भगवद्गीता और गुरु-परम्परा का महत्व

दैनिक इंडिया न्यूज़ ,लखनऊ, 19 अगस्त 2024: राष्ट्रीय सनातन महासंघ के राष्ट्रीय प्रवक्ता, आचार्य कृष्ण कुमार तिवारी ने हाल ही में एक बयान जारी किया जिसमें उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित गुरु-शिष्य परम्परा और उसके महत्व पर प्रकाश डाला। आचार्य तिवारी ने बताया कि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया यह दिव्य ज्ञान कैसे प्राचीन काल से गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से जीवित रहा है।

आचार्य तिवारी ने बताया, “भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय में कहा कि योग की यह परम्परा सबसे पहले सूर्यदेव को दी गई थी। इसके बाद यह ज्ञान मनु और फिर इक्ष्वाकु तक पहुंचा। इस प्रकार, यह ज्ञान गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी संचारित होता रहा है।”

उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 4.1 का हवाला देते हुए कहा:
“इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥”

आचार्य तिवारी ने समझाया कि समय के साथ यह दिव्य परम्परा लुप्तप्राय हो गई, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन को पुनः प्रदान किया। उन्होंने गीता के श्लोक 4.2 का संदर्भ देते हुए कहा:

“एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप॥”

इसके बाद उन्होंने अर्जुन के लिए भगवान श्रीकृष्ण के इस विशेष उपदेश की अहमियत पर जोर दिया। उन्होंने कहा, “श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह ज्ञान इसलिए प्रदान किया क्योंकि वह उनके भक्त और मित्र दोनों थे। गीता के श्लोक 4.3 में भगवान कहते हैं:

“स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥”

आचार्य तिवारी ने इस बात पर भी जोर दिया कि गीता का यह ज्ञान केवल भक्तों के लिए है और यह ज्ञान तीन प्रमुख श्रेणियों में बांटा गया है: ज्ञानी, योगी, और भक्त या ध्यानी। उन्होंने कहा, “भगवान श्रीकृष्ण ने इस ज्ञान का आधार गुरु-शिष्य परम्परा को बनाया और अर्जुन को इसका प्रथम पात्र माना। यह ज्ञान समस्त मानवता के लिए अमूल्य धरोहर है, जिसे आत्मसात कर जीवन को उन्नत बनाया जा सकता है।”

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