
हरिंद्र सिंह दैनिक इंडिया न्यूज़, लखनऊ।यह गर्व का विषय है कि आज भारत की प्राचीन योग विद्या को वैश्विक स्तर पर “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह न केवल भारत की सांस्कृतिक विरासत की स्वीकार्यता है, बल्कि एक ऐसी जीवन पद्धति का सम्मान है, जिसने तन, मन और आत्मा की एकता का मार्ग दिखाया है। परंतु इसी उत्सव और विस्तार के बीच एक गहरी विडंबना भी छिपी है – आज योग को उसकी पूर्णता में नहीं, बल्कि केवल उसकी शारीरिक छाया में देखा और प्रस्तुत किया जा रहा है।
आधुनिक समय में योग स्टूडियो, फिटनेस क्लब, सोशल मीडिया और व्लॉग के ज़रिए जो ‘योग’ प्रचारित हो रहा है, वह अधिकांशतः केवल आसनों तक सीमित रह गया है। शरीर को मोड़ना, पसीना बहाना और आकर्षक मुद्राओं में फ़ोटो खिंचवाना ही आज की पीढ़ी के लिए योग बन गया है। जबकि वास्तविकता यह है कि योग मात्र शरीर साधना नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार की यात्रा है। यह केवल व्यायाम नहीं, बल्कि जीवन को संपूर्ण रूप से रूपांतरित करने की पद्धति है।
योग के इसी गूढ़ स्वरूप को समझने के लिए ऋषि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित “अष्टांग योग” का अवलोकन आवश्यक है। ‘अष्टांग’ शब्द का अर्थ है – आठ अंगों वाला मार्ग। ये आठ अंग हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनका उद्देश्य व्यक्ति को चित्त की वृत्तियों से ऊपर उठाकर आत्मबोध की दिशा में ले जाना है। पतंजलि के योगसूत्र का प्रसिद्ध सूत्र है – “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” – अर्थात् योग वह है जो चित्त की वृत्तियों का निरोध करे।
योग की यात्रा यम और नियम से आरंभ होती है। यम – जैसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – समाज में अनुशासन और नैतिकता की भावना जाग्रत करते हैं। नियम – जैसे शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान – व्यक्ति को आत्मविकास के पथ पर प्रशस्त करते हैं। ये दोनों चरण योग की नैतिक और मानसिक नींव हैं, जिन्हें आज की योग शिक्षा में लगभग भुला दिया गया है।
इसके पश्चात् आता है आसन, जो आज योग का सबसे प्रचारित रूप है। लेकिन पतंजलि के अनुसार, आसन वह है जो स्थिर और सुखद हो – “स्थिरसुखमासनम्”। यह किसी जटिल प्रतियोगिता की मुद्रा नहीं, बल्कि साधक को ध्यान के योग्य स्थिति में लाने का साधन है। इसके बाद प्राणायाम आता है – जिसका अर्थ केवल सांस रोकना या छोड़ना नहीं, बल्कि प्राणशक्ति का संयम और संतुलन है। यह मन को स्थिर और ऊर्जा को परिष्कृत करने का एक माध्यम है।
प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – ये उच्चतर अंग हैं। प्रत्याहार में इंद्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर भीतर की ओर केंद्रित किया जाता है। धारणा में मन को किसी एक विचार, मंत्र या प्रतीक पर स्थिर किया जाता है। ध्यान उस एकाग्रता की गहराई है, जबकि समाधि उस स्थिति की चरम अवस्था है जहाँ साधक आत्मा में विलीन हो जाता है। यही योग का परम लक्ष्य है – आत्मसाक्षात्कार और मोक्ष।
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कसरत और योग में बुनियादी अंतर है। कसरत का उद्देश्य शारीरिक बल, स्नायु विकास और सौंदर्य होता है। वहीं योग का लक्ष्य भीतर की यात्रा, चित्त की शुद्धि और आत्मा से एकात्मता है। कसरत शरीर से शुरू होकर शरीर पर ही खत्म हो जाती है, जबकि योग शरीर से प्रारंभ होकर आत्मा तक पहुँचता है। योग बाहरी प्रदर्शन नहीं, भीतरी परिवर्तन की साधना है।
आज की आधुनिक जीवनशैली, भौतिक स्पर्धा और तकनीकी जटिलताओं ने मानव को मानसिक रूप से अत्यंत असंतुलित बना दिया है। तनाव, अवसाद, अनिद्रा और आत्मघात की प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं। ऐसे में अष्टांग योग न केवल एक समाधान है, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए जीवन की पुनर्रचना का मार्ग है। यह केवल स्वास्थ्य सुधार का उपाय नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण और आत्मोत्थान का साधन है।
आवश्यकता इस बात की है कि योग को केवल एक ‘फिटनेस प्रोग्राम’ या ‘बॉडी योगा’ तक सीमित न रखा जाए। स्कूलों, महाविद्यालयों, प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थानों और सामाजिक संगठनों में योग को उसके मूल रूप में सिखाया जाए – यम और नियम के साथ। सरकार, शिक्षा नीति निर्माता, मीडिया और योग संस्थानों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वे योग को उसके वास्तविक स्वरूप में जनमानस तक पहुँचाएँ।
जब तक योग को जीवन की संपूर्णता के रूप में नहीं अपनाया जाएगा, तब तक यह केवल एक ‘कसरत’ बनकर ही रह जाएगा – और उसकी आत्मा खोती जाएगी। योग केवल सजावट नहीं, साधना है। यह ‘दिखने’ के लिए नहीं, ‘होने’ के लिए है। अतः हमें योग को ऋषियों के दिखाए मार्ग पर पुनर्स्थापित करना होगा – भीतर की यात्रा के एक प्रकाशपथ के रूप में। तभी योग, योग रहेगा – और उसकी दिव्यता, उसकी शांति, और उसका मोक्षदायक स्वरूप हमारी जीवन यात्रा का आधार बनेगा।