
दैनिक इंडिया न्यूज़, लखनऊ। रविवार के दिन तिल का तेल खाना और लगाना वर्जित बताया गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खंड (अध्याय 27, श्लोक 29-38) में कहा गया है कि इस दिन तिल का तेल शरीर पर लगाने से पाप का उदय होता है और भोजन में इसका उपयोग स्वास्थ्य तथा आध्यात्मिक दृष्टि से उचित नहीं माना गया। इसी प्रकार, मसूर की दाल, अदरक तथा लाल रंग का साग भी रविवार को वर्जित हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण खंड (अध्याय 75, श्लोक 90) में लिखा है कि इन पदार्थों का सेवन रविवार को करने से रोग और दोष उत्पन्न होते हैं। रविवार के दिन कांसे के पात्र में भोजन करना भी निषिद्ध कहा गया है क्योंकि कांसा इस दिन शरीर के दोषों को बढ़ा सकता है। अतः शास्त्रीय निर्देशों के अनुसार रविवार को अन्य धातुओं के पात्रों का उपयोग भोजन हेतु करना चाहिए।
स्कंद पुराण में रविवार को बिल्ववृक्ष की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है। कहा गया है कि इस दिन बिल्ववृक्ष की पूजा करने से ब्रह्महत्या जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। चातुर्मास्य के दिनों में विशेष सावधानी रखनी चाहिए। इस समय तांबे और कांसे के पात्रों का उपयोग न करके अन्य धातुओं के पात्रों में भोजन करना तथा पलाश के पत्तों की पत्तल पर भोजन करना पापनाशक तथा पुण्यदायी माना गया है।
रविवार के दिन सूर्य गायत्री का पूजन अत्यंत श्रेयस्कर बताया गया है। देवीभागवत महापुराण तथा स्कंद पुराण में लिखा है कि चाहे किसी के जीवन में स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ हों, बौद्धिकता की कमी हो या निर्धनता की समस्या हो, सूर्य गायत्री मंत्र का जप और सूर्य का पूजन इन सभी समस्याओं को दूर करता है। इससे व्यक्ति के जीवन में तेज, ओज, बुद्धि और समृद्धि का संचार होता है।
देवीभागवत महापुराण में बताया गया है कि मनुष्य प्रतिदिन जाने-अनजाने में कोई न कोई पाप कर ही देता है। पैदल चलते समय भी चींटियाँ, कीट आदि दबकर मर जाते हैं। इन अज्ञात पापों से मुक्ति पाने के लिए प्रतिदिन गायत्री मंत्र का जाप करने का विधान बताया गया है। कहा गया है कि प्रातःकाल संध्या के समय एक माला जाप करने से रात्रि का पाप नष्ट होता है और संध्या समय एक माला जाप करने से दिन का पाप नष्ट हो जाता है। साथ ही, यदि कोई व्यक्ति तीनों संध्याओं (प्रातः, मध्यान्ह, संध्या) में विधिपूर्वक जाप करता है और प्रतिदिन 30 माला /तीन हजार मंत्र-जाप का संकल्प लेकर शास्त्रीय नियमों को ध्यानपूर्वक जप करे, तो वह मनुष्य निष्पाप हो जाता है और देवताओं के समान तेजस्वी बनता है। गायत्री महाविज्ञान में भी उल्लेख आता है कि जो तीनों संध्याओं में गायत्री मंत्र का जप करता है और तीनों संध्याओं में सूर्य को अर्घ दे तो वह देवतुल्य हो जाता है। देवीभागवत महापुराण तथा अथर्ववेद में भी प्रमाणित किया गया है कि यदि कोई व्यक्ति गायत्री हृदय को धारण करता है, शॉप विमोचन के पश्चात जप करें जब के पश्चात गायत्री कवच पढ़े तो उसे 60,000 गायत्री मंत्रों के जप का पुण्यफल प्राप्त होता है। अर्थात, जितना अधिक संख्या में गायत्री मंत्र का जप किया जाएगा, उतना ही पापक्षय, बुद्धिशुद्धि और जीवन में तेजस्विता का विकास होगा।
यदि कोई व्यक्ति गायत्री मंत्र का जप निरंतर बढ़ाते हुए अपने जीवन में 12 पुरुषचरण (एक पुरुषचरण = 24 लाख जप) पूर्ण कर ले, तो उसके समस्त जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और उसकी कुंडली में जो भी दोष, बाधाएँ अथवा ग्रहबाधाएँ हैं, वे समाप्त हो जाती हैं। और यदि कोई 24 पुरुषचरण पूर्ण कर ले, तो वह ब्रह्म के समान तेजस्वी, ओजस्वी तथा भगवद् कार्यों में सहभागी होने का अधिकारी बन जाता है। इस प्रकार की साधना से न केवल व्यक्ति का वर्तमान जीवन सुधरता है, बल्कि वह अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए भी प्रेरणा स्रोत बनता है।
वाल्मीकि रामायण और विश्वामित्र गायत्री पुराण में उल्लेख है कि भगवान राम के वंश में जितने भी राजा हुए, उनके गुरु का नाम वशिष्ठ था। ‘वशिष्ठ’ का अर्थ है – जिसने 24 लाख के चार पुरुषचरण पूर्ण कर लिए हों। ऐसे व्यक्ति को ‘विशिष्ट’ की पदवी प्राप्त होती है और व्यवहार में उसे वशिष्ठ कहा जाता था। रघुकुल में जितने भी राजा हुए, वे गायत्री मंत्र की दीक्षा अवश्य लेते थे। इसकी प्रमुख शर्त यही मानी जाती थी कि गुरु ने स्वयं चार पुरुषचरण पूर्ण किए हों। पुराणों में कहा गया है कि जिससे भी मंत्र की दीक्षा ली जाए, उसके जीवन में कम से कम एक पुरुषचरण पूर्ण होना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होता है कि गुरु स्वयं साधना में सिद्ध हो और शिष्य को उचित ऊर्जा, आशीर्वाद तथा दिशा दे सके।
दरिद्रता-नाश के लिए गायत्री की ‘श्रीं’ शक्ति की उपासना करनी चाहिए। साधक को गायत्री मंत्र के अंत में तीन बार ‘श्रीं’ बीज मंत्र का सम्पुट लगाना चाहिए। साधना काल में पीत वस्त्र, पीले पुष्प, पीला यज्ञोपवीत, पीला तिलक तथा पौला आसन का प्रयोग करना चाहिए और रविवार को उपवास रखना चाहिए। शरीर पर शुक्रवार को हल्दी मिले हुए तिल तेल की मालिश करनी चाहिए और रविवार को उपवास का पालन करना चाहिए। साधना के दौरान पीतांबरधारी, हाथी पर चढ़ी हुई गायत्री का ध्यान करना चाहिए। गायत्री महाविज्ञान (पृष्ठ 102) में परम पूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने लिखा है कि रविवार के दिन यदि कोई व्यक्ति व्रत रखकर मां गायत्री का ध्यान पीतांबर धारण किए हुए, पीले हाथी पर सवार रूप में करे और लक्ष्मी गायत्री का जप करे, तो उसकी दरिद्रता की व्याधि समाप्त हो जाती है। ध्यान करते समय साधक को ऐसा अनुभव करना चाहिए कि मां पीतांबर वस्त्र धारण किए हुए हैं और पीले हाथी पर विराजमान होकर साधक पर कृपा की वर्षा कर रही हैं। इस उपासना से साधक के जीवन में स्थायी समृद्धि, सौभाग्य और आत्मशक्ति का विकास होता है।
परम पूज्य गुरुदेव आगे लिखते हैं कि यदि साधक गायत्री मंत्र के जाप में ‘श्रीं’ बीज मंत्र का सम्पुट जोड़ दे, तो यह साधना और भी अधिक फलदायी हो जाती है। ‘श्रीं’ बीज मंत्र स्वयं लक्ष्मी का स्वरूप है। अतः गायत्री मंत्र के पूर्व और पश्चात तीन बार ‘श्रीं’ का उच्चारण करने से साधक के जीवन में लक्ष्मी, ऐश्वर्य, सफलता और स्थायी धन का अभाव नहीं रहता। यह उपाय न केवल साधक की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करता है, बल्कि उसके भीतर की दरिद्रता के संस्कारों को भी नष्ट कर देता है। दरअसल, दरिद्रता केवल धन की कमी का नाम नहीं है, बल्कि यह मानसिक कमजोरी और दुर्बल सोच का भी परिणाम है। जब व्यक्ति गायत्री उपासना के साथ श्रीं बीज मंत्र का सम्पुट जोड़ता है, तो उसके भीतर की दुर्बलता दूर होती है और आत्मबल व आकर्षण का विकास होता है, जो सफलता और लक्ष्मी प्राप्ति के लिए अनिवार्य है।
इन शास्त्रीय व्यवस्थाओं और रहस्यों का पालन कर व्यक्ति न केवल अपने वर्तमान जीवन को पवित्र, उन्नत, ओजस्वी और समर्थ बना सकता है, बल्कि समस्त जन्मों के पापों से भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है। साथ ही, वह अपने जीवन का उद्देश्य प्राप्त कर समाज और राष्ट्र को प्रकाश देने वाला दीपक बन सकता है।
वाल्मीकि रामायण इस तथ्य को प्रतिपादित करती है कि गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों के भावार्थ को 24,000 श्लोकों के माध्यम से प्रकट किया। अर्थात, प्रत्येक अक्षर के भाव के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए एक हजार श्लोकों की आवश्यकता पड़ी। चारों वेदों ने भी गायत्री के प्रत्येक अक्षर पर प्रकाश डालते हुए दिव्य ज्ञान का विस्तार किया है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस की 30 कथाओं में गायत्री तत्व का विवेचन किया, क्योंकि गायत्री मंत्र भगवान की चेतना शक्ति का ही स्वरूप है। इसका न आदि है और न अंत; यह अनंत और अपरिमेय है। वास्तव में, गायत्री साधना के माध्यम से ही साधक उस अनंत ब्रह्मचेतना से जुड़ता है, जहां से संपूर्ण सृष्टि का प्राकट्य और संचालन होता है। जब कोई साधक निष्ठा, श्रद्धा और विधिपूर्वक गायत्री का जाप करता है, तो उसके जीवन में ज्ञान, शक्ति और शांति का ऐसा समन्वय स्थापित होता है, जिससे उसका व्यक्तित्व दिव्य तेज से परिपूर्ण हो जाता है। तभी तो शास्त्रों में कहा गया है – “गायत्र्याः परमं नास्ति मंत्रराजं सुगोपितम्।” अर्थात, गायत्री से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है; यह स्वयं मंत्रों की जननी है और इसके प्रत्येक अक्षर में अनंत ब्रह्मांडों की शक्तियाँ समाहित हैं।