सनातन के संस्कार ही राष्ट्र की आत्मा हैं

Harendra Singh Dainik India news Lucknow:आज भारत में एक नई भ्रांति सुनियोजित रूप से फैलाई जा रही है कि भगवान की पूजा-अर्चना, आराधना और उपासना से कोई विशेष लाभ नहीं होता। यह प्रचार किया जा रहा है कि गरीब को भोजन करा देने से अधिक पुण्य मिलेगा, जबकि मंदिर में प्रसाद चढ़ाना या शिवजी को दूध अर्पित करना व्यर्थ है। पहली दृष्टि में यह विचार मानवीय संवेदनाओं से प्रेरित प्रतीत होता है, परंतु गहराई से देखने पर यह सनातन की मूल परंपरा को आहत करने का एक सुनियोजित प्रयास है। क्योंकि हमारे सभी संस्कार, पूजा-पद्धतियाँ और धार्मिक आचरण केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि व्यक्ति और राष्ट्र निर्माण के बुनियादी सूत्र हैं।

हमारे शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि “यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्”— अर्थात यज्ञ, दान और तप, तीनों ही मनुष्य के लिए पवित्रता और उन्नति का साधन हैं। दान अवश्य महत्वपूर्ण है, परंतु दान को ही सब कुछ मान लेना और पूजा-उपासना की उपेक्षा करना अज्ञान है। रामचरितमानस में भी जब भगवान राम का जन्म हुआ, तो महाराज दशरथ ने नंदीमुख श्राद्ध करके पूर्वजों को तृप्त किया और रानियों से कहा कि दोनों हाथ खोलकर जितना संभव हो, उतना दान दो। यह घटना स्पष्ट करती है कि पूजा और दान, दोनों साथ-साथ चलकर ही धर्म की पूर्णता सुनिश्चित करते हैं।

लेकिन आज कुछ संगठित शक्तियाँ—चाहे वे क्रिश्चियन मिशनरी हों या तथाकथित आधुनिक विचारक—हिंदुओं के भीतर यह मानसिकता डाल रही हैं कि “पूजा से कुछ नहीं होता।” यह मानसिकता बेहद घातक है, क्योंकि मुसलमान चाहे कहीं भी हों, वे पाँच वक्त की नमाज़ से कभी विमुख नहीं होते। ईसाई अपने गिरजाघरों और प्रार्थना सभाओं से नहीं हटते। किंतु हिंदुओं को ही यह भ्रम दिया जा रहा है कि पूजा निरर्थक है। यदि आने वाली पीढ़ी इस भ्रम में पड़ गई तो वह न तो अपने संस्कारों से जुड़ी रहेगी और न ही धर्म की आत्मा से। यह स्थिति न केवल हिंदू समाज बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए संकट का संकेत होगी।

ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि हमारे पूर्वज, ऋषि-मुनि और देवी-देवता केवल धार्मिक प्रतीक नहीं थे, बल्कि वे राष्ट्र और संस्कृति के आदर्श थे। पूजा-पद्धति दरअसल वही वैज्ञानिक साधन है जिसके द्वारा व्यक्ति का आंतरिक शोधन होता है। प्रत्येक मंत्र, प्रत्येक हवन, प्रत्येक आरती के पीछे गहरा मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक आधार है। यदि हम इसे छोड़ देंगे, तो अपनी आत्मा से कट जाएंगे।

जर्मनी के प्रख्यात दार्शनिक जोहान गॉटलिब फ़िक्टे ने अपनी प्रसिद्ध कृति “Addresses to the German Nation” (1807–08) में शिक्षा की शक्ति पर गंभीर विचार करते हुए लिखा था:
“Education should aim at destroying free will so that after pupils are thus schooled they will be incapable throughout the rest of their lives of thinking or acting otherwise than as their school masters would have wished.”
अर्थात यदि किसी समाज को नष्ट करना हो, तो वहाँ शिक्षा को इस प्रकार विकृत कर दो कि स्वतंत्र चिंतन ही समाप्त हो जाए। यह विचार हमें चेतावनी देता है कि जब संस्कार और शिक्षा को खोखला कर दिया जाता है, तब राष्ट्र की जड़ें खोखली हो जाती हैं।

सनातन धर्म वस्तुतः एक विज्ञान है। ‘सनातन’ का अर्थ ही है श्री हरि कहते हैं अनन्तो हि परो ब्रह्मा, अनन्तं जीवनं स्मृतम्।
अनन्तः सनातनः सत्यः, अनन्तं शरणं मम॥

अहं आत्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥(भगवद्गीता 10.20)

आज हम पश्चिमी विज्ञान से आए शोध और रिसर्च को अंतिम सत्य मान लेते हैं, जबकि हमारे ऋषियों ने हजारों वर्ष पहले ही गहन प्रयोगों और तपस्या द्वारा वह सब कुछ खोज लिया था जिसे अब आधुनिक विज्ञान धीरे-धीरे प्रमाणित कर रहा है। योग, ध्यान, आयुर्वेद, ज्योतिष, यज्ञ—ये सब किसी अंधविश्वास की उपज नहीं, बल्कि अत्यंत वैज्ञानिक पद्धतियाँ हैं। दुर्भाग्य से हम अपने ऋषियों के ऋषभ को अनदेखा करते आए हैं, और यही कारण है कि आज हमें अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यदि हम फिर से अपने सनातन के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाएँ, तो न केवल अपने समाज बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक बन सकते हैं।

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