पुलिस को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाने की ज़रूरत
हरिंद्र कुमार सिंह
पुलिस व्यवस्था को आज नई दिशा, नई सोच और नए आयाम की आवश्यकता है। समय की मांग है कि पुलिस नागरिक स्वतंत्रता और मानव अधिकारों के प्रति जागरूक हो और समाज के सताए हुए तथा वंचित वर्ग के लोगों के प्रति संवेदनशील बने। देखने में यह आता है कि पुलिस प्रभावशाली व पैसे वाले लोगों के प्रति नरम तथा आम जनता के प्रति सख्त रवैया अपनाती है, जिससे जनता का सहयोग प्राप्त करना उसके लिये मुश्किल हो जाता है।
आज देश का सामाजिक परिवेश पूरी तरह बदल चुका है। हमें यह समझना होगा कि पुलिस सामाजिक रूप से नागरिकों की मित्र है और बिना उनके सहयोग से कानून व्यवस्था का पालन नहीं किया जा सकता। लेकिन क्या समाज की भूमिका केवल मूक दर्शक बने रहकर प्रशासन पर टीका टिपण्णी करने या कैंडल लाइट मार्च निकालकर या सोशल साइट्स पर अपना विचार व्यक्त करने तक ही सीमित है?
प्रत्येक समाज को नीति-नियंताओं पर इस बात के लिये दबाव डालना चाहिये कि उनके राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्रों में पुलिस सुधार को एक अनिवार्य मुद्दे के रूप में शामिल करें।
निष्कर्ष
हमारे सामने प्रायः पुलिस की नकारात्मक छवि ही आती है, जिससे उसके प्रति आमजन का अविश्वास और बढ़ जाता है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में पुलिस बल की शक्ति का आधार जनता का उसमें विश्वास है और यदि यह नहीं है तो समाज के लिये घातक है। पुलिस में संस्थागत सुधार ही वह कुंजी है, जिससे कानून व्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है। सभी तरह के गैर-कानूनी कार्यों पर नकेल कसी जा सकती है।
प्रश्न– ‘किसी भी लोकतांत्रिक देश में पुलिस बल की शक्ति का आधार जनता का उसमें विश्वास है और यदि यह नहीं है तो समाज के लिये घातक है।’ समीक्षा कीजिये।
पुलिस सुधारों के प्रति राज्यों में गंभीरता का अभाव
विदित है कि राज्य सरकारें कई बार पुलिस प्रशासन का दुरुपयोग भी करती हैं। कभी अपने राजनीतिक विरोधियों से निपटने के लिये तो कभी अपनी किसी नाकामी को छिपाने के लिये संभवत: यही मुख्य कारण है कि राज्य सरकारें पुलिस सुधार के लिये तैयार नहीं हैं।
राज्य सरकारें पुलिस सुधार के लिये कितनी संजीदा हैं, यह इस बात से समझा जा सकता है कि वर्ष 2017 में जब गृह मंत्रालय ने द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की 153 अति महत्त्वपूर्ण सिफारिशों पर विचार करने के लिये मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाया जिनमें पुलिस सुधार पर चिंतन-मनन होना था, तो इस सम्मेलन में अधिकतर मुख्यमंत्री अनुपस्थित रहे।
पुलिस सुधार के एजेंडे में जाँच व पूछताछ के तौर-तरीके, जाँच विभाग को विधि-व्यवस्था विभाग से अलग करने, महिलाओं की 33 प्रतिशत भागीदारी के अलावा पुलिस की निरंकुशता की जाँच के लिये विभाग बनाने पर भी चर्चा की जानी थी।
आज भी ज़्यादातर राज्य सरकारें पुलिस सुधार के मसले पर अपना रुख स्पष्ट करने को तैयार नहीं हैं। यह आनाकानी पुलिस सुधार को लेकर उनकी बेरुखी को ही दर्शाती है।
आवश्यक है न्यायालय का सहयोग
तमिलनाडु में व्यापारियों की पुलिस हिरासत में हुई मृत्यु से यह स्पष्ट है कि न्यायिक दंडाधिकारी ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मनुभाई रतिलाल पटेल बनाम गुजरात सरकार मामले में दी गई व्यवस्था के उलट काम किया है।
जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि रिमांड या उसकी समयावधि तय करते समय दंडाधिकारी न्यायिक कार्य का निर्वहन करता है। एक अभियुक्त की रिमांड पर निर्देश देना मौलिक रूप से एक न्यायिक कार्य है।
दंडाधिकारी एक अभियुक्त को हिरासत में रखने का आदेश देते समय कार्यकारी क्षमता में कार्य नहीं करता है, इस न्यायिक कार्य के दौरान दंडाधिकारी का स्वयं इस पर संतुष्ट होना अनिवार्य है कि क्या उसके समक्ष रखे गए तथ्य इस तरह की रिमांड के लिये आवश्यक है या इसे अलग तरीके से देखा जाना चाहिये, भले ही अभियुक्त को हिरासत में रखने और उसकी रिमांड बढ़ाने के लिये पर्याप्त आधार मौजूद हों।
भारतीय दंड संहिता की धारा 167 के अनुसार, अपेक्षित रिमांड का उद्देश्य यह है कि जाँच 24 घंटे की निर्धारित समयावधि में पूरी नहीं की जा सकती। यह दंडाधिकारी को इस तथ्य का पर्यवेक्षण करने की शक्ति देता है कि क्या रिमांड वास्तव में आवश्यक है? दंडाधिकारी के लिये यह अनिवार्य है कि रिमांड देते समय वह अपने विवेक का इस्तेमाल करे न कि सिर्फ यांत्रिक रूप से रिमांड के आदेश को पारित कर दे।
सर्वोच्च न्यायालय के लिये यह आवश्यक है कि वह अधीनस्थ न्यायालयों में होने वाली इस तरह की खामियों के मुद्दे को सुलझाए और उनकी ज़वाबदेही तय करे।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केंद्र सरकार को यह निर्देश जारी किया जाना चाहिये कि हिरासत में किसी अभियुक्त को चोट लगने या उसकी मृत्यु का उत्तरदायित्व संबंधित अधिकारी पर डालने संबंधी 10वें विधि आयोग की सिफारिश के अनुरूप भारतीय साक्ष्य अधिनियम में संशोधन जैसे उपयुक्त कदम उठाए जाए।
चूँकि पुलिस हिरासत में यातना के शिकार बनने वाले लोगों में अधिकांश समाज के आर्थिक या सामाजिक रूप से कमज़ोर वर्गों से संबंधित होते हैं, इसलिये अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार संसद से अत्याचार निवारण विधेयक को पारित कराने की दिशा में कदम उठाए।
सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय
जब किसी भी आयोग और समिति की रिपोर्ट पर कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं हुई तो उत्तर प्रदेश व असम में पुलिस प्रमुख और सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक रहे प्रकाश सिंह ने वर्ष 1996 में सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर अपील की कि सभी राज्यों को राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने के निर्देश दिये जाए।
इस याचिका पर एक दशक तक चली सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कई आयोगों की सिफारिशों का अध्ययन कर आखिर में 22 सितंबर, 2006 को पुलिस सुधारों पर निर्णय देते हुए राज्यों और केंद्र के लिये कुछ दिशा-निर्देश जारी किये।
राज्यों को निर्देश: इनमें पुलिस पर राज्य सरकार का प्रभाव कम करने के लिये राज्य सुरक्षा आयोग का गठन करने, पुलिस महानिदेशक, पुलिस महानिरीक्षक और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों का न्यूनतम कार्यकाल दो साल तय करने, जाँच और कानून व्यवस्था की बहाली का ज़िम्मा अलग-अलग पुलिस इकाइयों को सौंपने, सेवा संबंधी तमाम मामलों पर फैसले के लिये एक पुलिस इस्टैब्लिशमेंट बोर्ड का गठन करने और पुलिस अफसरों के खिलाफ शिकायतों की जाँच के लिये पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन करने जैसे दिशा-निर्देश शामिल थे।
केंद्र को निर्देश: सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को केंद्रीय पुलिस बलों में नियुक्तियों और कर्मचारियों के लिये बनने वाली कल्याण योजनाओं की निगरानी के लिये एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग के गठन का भी निर्देश दिया था, लेकिन अब तक इसका गठन नहीं हो सका है।
शिकायत के लिए स्वतंत्र अथॉरिटी
दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने गौर किया कि पुलिस दुर्व्यवहार के मामलों में जांच के लिए एक स्वतंत्र शिकायत अथॉरिटी होनी चाहिए।
चूंकि राजनीतिक कार्यकारिणी और आंतरिक पुलिस पर्यवेक्षण अथॉरिटी द्वारा कानून प्रवर्तन अथॉरिटीज के साथ पक्षपात किया जा सकता है, और संभव है कि स्वतंत्र और निर्णायक फैसला न लिया जा सके।
उदाहरण के लिए युनाइटेड किंगडम में पुलिस कंडक्ट पर एक स्वतंत्र कार्यालय है जिसके डायरेक्टर जनरल की नियुक्ति क्राउन द्वारा की जाती है और छह अन्य सदस्यों की नियुक्ति कार्यकारिणी और मौजूदा सदस्यों द्वारा की जाती है। इसका गठन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों की जांच करने के लिए किया गया है।दूसरा उदाहरण न्यूयार्क सिटी पुलिस का है, जिसके सिविलियन कंप्लेन रिव्यू बोर्ड में स्थानीय सरकारी निकायों और पुलिस कमीश्नर द्वारा आम नागरिक नियुक्त किए जाते हैं और ये पुलिस दुर्व्यवहार के मामलों की जांच करते हैं।
भारत में विभिन्न प्रकार के दुर्व्यवहारों की जांच करने के लिए कुछ स्वतंत्र अथॉरिटीज हैं। उदाहरण के लिए मानवाधिकार हनन के मामलों में राष्ट्रीय या राज्य मानवाधिकार आयोग से संपर्क किया जा सकता है, या भ्रष्टाचार की शिकायत के लिए लोकायुक्त से संपर्क किया जा सकता है।
फिर भी, दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने टिप्पणी की कि ऐसी स्वतंत्र पर्यवेक्षक अथॉरिटीज की कमी है, जो सभी प्रकार के पुलिस दुर्व्यवहारों से निपटने में विशेषज्ञता प्राप्त हो, और जिस तक पहुंच आसान हो।
इसके मद्देनजर मॉडल पुलिस एक्ट, 2006, जिसका मसौदा पुलिस एक्ट ड्राफ्टिंग कमिटी (2005) ने तैयार किया था, और सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देशों (2006) के अंतर्गत राज्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे राज्य एवं जिला स्तर पर शिकायत अथॉरिटीज का गठन करेंगे।
मॉडल पुलिस एक्ट, 2006
केंद्र सरकार ने नए मॉडल पुलिस कानून का मसौदा तैयार करने के लिए 2005 में पुलिस एक्ट ड्राफ्टिंग कमिटी (चेयर : सोली सोराबजी) बनाई। 1861 के पुलिस एक्ट की जगह यह नया कानून लाया जाना था। 2006 में कमिटी ने मॉडल पुलिस एक्ट सौंपा जिसे उसी साल सभी राज्यों में सर्कुलेट किया गया। 17 राज्यों ने (असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, मेघालय, मिजोरम, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तराखंड) इस नए मॉडल कानून के मद्देनजर नए कानून पारित किए या मौजूदा कानूनों में संशोधन कर लिया। मॉडल पुलिस एक्ट की मुख्य विशेषताएं परिशिष्ट में प्रस्तुत की गई हैं।
मॉडल पुलिस एक्ट के तहत राज्य अथॉरिटी में पांच सदस्यों होने चाहिए: उच्च न्यायालय का एक सेवानिवृत्त जज, किसी दूसरे राज्य के कैडर का डीजीपी रैंक का सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी, दूसरे राज्य का लोक प्रशासन में अनुभव प्राप्त सेवानिवृत्त अधिकारी, नागरिक समाज का सदस्य और 10 वर्ष का अनुभव प्राप्त न्यायिक अधिकारी या वकील या लीगल एकैडमिक। इस एक्ट में यह भी कहा गया है कि जिला स्तरीय अथॉरिटीज में सेवानिवृत्त जज, पुलिस अधिकारी, प्रैक्टिसिंग वकील इत्यादि शामिल होने चाहिए।
उल्लेखनीय है कि अगस्त 2016 तक 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (तेलंगाना को छोड़कर) में से दो राज्यों ने पुलिस शिकायत अथॉरिटीज के गठन से संबंधित कानून नहीं बनाए थे या अधिसूचनाएं जारी नहीं की थीं (जम्मू एवं कश्मीर और उत्तर प्रदेश)। बाकी के राज्यों में से कुछ ने राज्य अथॉरिटी का गठन नहीं किया है और कुछ ने जिला स्तरीय अथॉरिटीज का। नीति आयोग की एक रिपोर्ट यह भी प्रदर्शित करती है कि इन अथॉरिटीज की संरचना मॉडल पुलिस एक्ट, 2006 और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार नहीं की गई है।
उदाहरण के लिए बिहार और गुजरात की जिला स्तरीय अथॉरिटीज में सिर्फ सरकारी और पुलिस अधिकार हैं।31इसके अतिरिक्त कई राज्यों की अथॉरिटीज के पास बाध्यकारी सुझाव जारी करने का अधिकार नहीं है।