भगवत गीता में क्रोध के बारे में
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
भावार्थ:
विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
हम सब के मन में नौ प्रकार के भाव कभी न कभी परिस्थितिवश आते हैं, जिनमें से क्रोध भी एक है। परिष्कृत रूप में क्रोध शौर्य बन जाता है जो असाधारण ऊर्जा से भर देता है और मुश्किलों में यह विजय भी सुनिश्चित करता है। क्रोध का मनोविज्ञान समझने के लिए हमें अपेक्षाओं का गणित समझना होगा। जब भी क्रोध मन में पनपता है, उसके मूल में कोई अधूरी अपेक्षा होती है। कोई कार्य हमारे मन मुताबिक नहीं हुआ है। भयंकर क्रोध अक्सर मोह से संयुक्त गहन अपेक्षा से जन्म लेता है। इसलिए भगवत गीता में कहा गया है कि क्रोध से मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है। तदुपरांत बुद्धि नष्ट हो जाती है।
स्पष्टतः क्रोध मनुष्य की बुद्धि हर लेता है। क्रोध पर नियंत्रण की कला सिखाने के लिए भांति-भांति का साहित्य एंगर मैनेजमेंट पर उपलब्ध है। इसके बावजूद हर व्यक्ति में क्रोध का लावा भरा हुआ है जो उन पर फूटता है, जो इसका प्रतिकार नहीं कर पाते हैं, जैसे दफ्तर में काम करने वाले मातहत, बच्चे और कई बार निरीह पशु। इसके फूटने के घातक परिणाम सामने आते हैं, घर-परिवार तक बिखर जाता है। सब कुछ होने के बाद हमें याद आता है कि हमने भूल की।
जितनी भूल-चूक हम क्रोध के मामले में करते हैं, शायद उतनी प्रेम में भी नहीं करते। हमारी पहली भूल यही है कि हम क्रोध को नकारना चाहते हैं। जैसे क्षुधा, प्यास, प्रेम, हंसी और उदासी हमें अनुभव होते हैं, वैसे ही क्रोध भी एक जायज मनोभाव है। लेकिन हम बच्चों को शिक्षा देते हैं कि गुस्सा करना अच्छी बात नहीं। ऐसे में बच्चा क्रोध को नकारना या उसे अपने अंदर जज्ब करना शुरू कर देता है। पर क्रोध तो एक लावा है जो अंतर्मुखी होकर विषाद बन जाता है और जीवन रस सुखा देता है। इस परिस्थिति में उपाय क्या है?
सर्वप्रथम क्रोध को स्वीकार कर लिया जाए। संतुलित मात्रा में क्रोध अनिवार्य एवं आवश्यक है जो अत्याचार के विरुद्ध लड़ने की शक्ति देता है। राम-रावण युद्ध में प्रसंग है कि लंका पार जाने के लिए श्रीराम समुद्र से रास्ता मांग रहे थे। तीन दिन बीत गए पर समुद्र जड़वत रहा। ऐसे में राम को भी क्रोध करना पड़ा। क्रोधवश ही शिव तांडव करते हैं और काली दुष्टों का संहार करती हैं।
समझने वाली बात है कि क्रोध भी ऊर्जा ही है। यह ऊर्जा रचनात्मक कार्य में लगेगी या विनाश में, इसके बीच एक महीन फर्क है। गीता में कहा गया है कि क्रोध के मूल में मोह है तो इसके पार जाने का मार्ग भी गीता में सुझाया गया है। आसक्ति रहित कर्म उसे कहते हैं, जब आप समझ लेते हैं कि कर्म ही आपके हाथ में है। इससे उद्धिग्नता जाती रहती है। निष्काम भाव से कर्म न तो कठिन है और ना ही जटिल। यह तो जीवन के बहाव में बहने का नाम है, क्योंकि इस जगत का मालिक ईश्वर है और यहां हमारी अवधि सीमित है।
जो भी हम अर्जित करते हैं वह उसकी कृपा है और जो नहीं कर पाते उसमें भी उसकी कोई न कोई छुपी मंशा है। हम तो बस कर्म करने के अधिकारी हैं। इसी सोच के साथ क्रोध से दुराव पैदा होता है और इसी में एंगर मैनेजमेंट का सूत्र निहित है।