
हरेंद्र सिंह दैनिक इंडिया न्यूज़ नई दिल्ली।बिहार का चुनाव परिणाम जब पूरी तरह सामने आया, तो राजनीतिक गलियारों में एक ही वाक्य गूंजा—“यह सिर्फ जीत नहीं, जनता की घोषणा है।” वह घोषणा जिसे सुनकर देश समझ गया कि जनता जब निर्णय ले लेती है, तो चाहे कितने ही बड़े राजनीतिक घराने हों, उसकी लहर सबको अपने साथ बहा ले जाती है। इस बार वही हुआ—नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की सुनामी ने जिस तरह बिहार को अपने प्रवाह में समेटा, उस तेज़धार में लालू परिवार और गांधी परिवार की वर्षों पुरानी पकड़ क्षणभर में ढह गई।
मतदाता बूथ पर शांत खड़े थे, लेकिन उनकी खामोशी के भीतर एक निर्णय पहले ही जन्म ले चुका था। वह निर्णय उस क्षण और मजबूत हो गया, जब कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा अपने ही बूथ कार्यकर्ताओं की तुलना “कुत्ते” से करने वाला बयान पूरे बिहार में बिजली की तरह दौड़ गया।
बिहार के राजनीतिक स्वभाव में कार्यकर्ता केवल मशीन का पुर्जा नहीं होता—वह आत्मा होता है। और जब आत्मा पर वार होता है, तो जनता चुप नहीं रहती। यह एक ऐसा बयान था जिसने महागठबंधन की विश्वसनीयता को भीतर से चूर कर दिया।
उधर एनडीए अपनी ओर से कार्यकर्ताओं को वह सम्मान दे रहा था जिसकी गूंज गांव से लेकर शहर तक हर कान में पड़ रही थी। एनडीए के नेतृत्व ने अपने कार्यकर्ताओं को ओजस्विता का प्रतीक बताया—ऐसी प्रखर ऊर्जा जिसका समर्पण ही जीत की चाबी बनता है। जनता ने महसूस कर लिया कि कौन अपने कार्यकर्ताओं को सम्मान देता है और कौन अपमान।
यहीं से हवा का रुख बदल चुका था, और इस बदलाव की आहट विपक्ष सुन ही नहीं पाया।
जब नरेंद्र मोदी ने अपनी सभाओं में लालू परिवार के शासनकाल को “जंगलराज” कहा, तो यह महज एक राजनीतिक तंज नहीं था, बल्कि वह स्मृति थी जिसे बिहार चाहता तो भूल जाता, पर उसके निशान अभी भी ज़मीन पर ताज़ा थे। यह शब्द उन अनुभवों का आईना था जिसे जनता अपने भीतर दबाए बैठी थी, और इस चुनाव ने उसे खुलकर व्यक्त करने का अवसर दिया।
जंगलराज का उल्लेख जनता के मन में वही पीड़ा, वही डर, वही अराजकता की छवि फिर जगा गया—और इसी स्मृति ने वोट को दिशा दे दी।
जिन पलों में टीवी स्क्रीन पर आंकड़े बदल रहे थे, उन पलों में बिहार का हर गांव, हर कस्बा, हर शहर अपनी सांसें थामकर देख रहा था कि जनता इस बार किस तकदीर को चुन रही है।
और जब सीटों का आंकड़ा बढ़ता गया, यह साफ हो गया कि बिहार किसी संयोग से नहीं, बल्कि पूर्ण जागरूकता से एनडीए के साथ खड़ा है।
यह जीत उन युवाओं की थी जो बदलाव चाहते थे, उन महिलाओं की थी जिन्होंने सुरक्षा और सम्मान को अपने वोट से परिभाषित किया, और उन कार्यकर्ताओं की थी जिनकी ओजस्विता ने जमीन पर चुनाव को जन-जागरूकता में बदल दिया।
नतीजों के साथ-साथ यह अहसास भी गहरा होता गया कि जनता ने इस बार सिर्फ एक पक्ष को हराया नहीं—उसने एक राजनीतिक मानसिकता को समाप्त कर दिया।
उसने यह निर्णय दिया कि वंशवाद से भरी राजनीति अब बिहार को आगे नहीं ले जा सकती।
उसने ये भी साबित कर दिया कि अपमानजनक बयानबाजी जनता की नजर में तुरंत अपना हिसाब दे देती है।
उसने दिखा दिया कि सम्मान, स्थिरता और नेतृत्व वही है जो लोकतंत्र की धड़कनों को समझे।
इतिहास ने उसी क्षण करवट ली जब जनता ने अपना मन साफ कर दिया—
और उसी करवट में, नीतीश और मोदी की सुनामी में लालू यादव और गांधी परिवार पूरी तरह डूब गए।
