संघ के सौ वर्ष : उपलब्धियों का ढिंढोरा नहीं, समाज के साथ एकात्मता का संकल्प

दैनिक इंडिया न्यूज़ नई दिल्ली। एक दिन अचानक चैनलों की एक ब्रेकिंग समाचार ने सबका ध्यान खींच लिया। समाचार सरल और सीधा था, किंतु उसके निहितार्थ अत्यंत गहरे और महत्वपूर्ण थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत का कथन –

“आरएसएस का शताब्दी वर्ष मनाने की कोई ज़रूरत नहीं है। संघ इसे संगठन का अहंकार बढ़ाने के लिए नहीं कर रहा है। संघ किसी संगठन के 100 साल पूरे होने का जश्न मनाने और कुछ उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने नहीं आया है।”

यह कथन केवल एक बयान भर नहीं था, बल्कि एक गहन दर्शन था, जिसकी चर्चा शायद लोकसभा चुनाव की चकल्लस में उतनी गहराई से नहीं हो सकी। किंतु यह विचार आज नहीं तो कल निश्चित ही राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनेगा।

सामान्यतः जब कोई सामाजिक संगठन या राजनीतिक दल शताब्दी वर्ष में प्रवेश करता है तो बड़े-बड़े उत्सव, आयोजन और जलसे देखने को मिलते हैं। किंतु विश्व के सबसे बड़े सामाजिक संगठन के 100 वर्ष पूरे होने पर कोई दुन्दुभी नहीं, कोई जलसा नहीं! यह अद्वितीय है। संघ के स्वयंसेवक दुनिया के श्रेष्ठ वैज्ञानिक, कलाकार, राजनेता, साहित्यकार, पत्रकार, न्यायाधीश, प्रशासनिक अधिकारी, किसान, मजदूर और विद्यार्थी—सभी भूमिकाओं में सक्रिय हैं। इतने व्यापक और विविध समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन यदि अपनी शताब्दी पर कोई उत्सव न मनाए तो यह असाधारण ही कहा जाएगा। क्योंकि सामान्यतः व्यक्ति या संगठन के जन्म के 100 वर्ष पूरे होना आनंद और गौरव का अवसर होता है, किंतु जब यह गौरवपूर्ण यात्रा अहंकार में परिणत हो सकती हो, तब सच्ची विनम्रता यही है कि उस उत्सव का परित्याग किया जाए।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा किसी एक पुस्तक या व्यक्ति के विचार से उपजी नहीं है। यह भारतीय समाज की जीवनशैली और संस्कृति का ही विस्तार है। संघ की अपनी विशिष्ट कार्यपद्धति है, लेकिन उसमें भी भारतीय चिंतन की आत्मा स्पंदित होती है। संघ न तो किसी “वाद” का अनुयायी है, न ही किसी संप्रदाय, मठ या पंथ की तरह बंधा हुआ संगठन है। संघ का ध्येय है – समाज में एकरस होकर समाज को सशक्त करना। विविध क्षेत्रों में उसके असंख्य कार्य हैं, किंतु वह उनका गुणगान करने के बजाय उन्हें सतत जारी रखने में विश्वास रखता है।

सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी का कथन वस्तुतः गीता के भावार्थ की प्रतिध्वनि है। जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त मानकर सृष्टि को संदेश दिया था, वैसे ही संघ उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटे बिना समाज को सशक्त करने की दिशा में अग्रसर है। उन्होंने कहा – “इस समाज की जीत अन्य समाजों को भी सशक्त बनाएगी और अंततः जगत को लाभ पहुँचाएगी। आरएसएस ऐसे लोगों को तैयार करना चाहता है जो बिना प्रचार के, अपने कर्म से समाज में सुधार लाने का प्रयास करें।”

जाने-माने विचारक और चिंतक जितेन्द्र प्रताप सिंह, जो संस्कृत भारती न्यास, अवध प्रांत के अध्यक्ष भी हैं, उन्होंने संघ के सौ वर्ष पूरे होने पर कहा था – “संघ की सीमाएँ और समाज की सीमाएँ एकाकार हो जाएँ। संघ समाज में और समाज संघ में विलीन हो जाए। संघ और समाज का यह द्वैत समाप्त हो जाए।” ठेंगड़ी जी ने भी कहा था – “जब कोई घाव भर जाता है तो उसकी झिल्ली स्वयं ही उतर जाती है। उसी प्रकार ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ नाम की झिल्ली भी तब समाप्त हो जाएगी जब समाज और संघ पूर्णतः एकात्म हो जाएँ।”

एक वरिष्ठ प्रचारक का कथन आज भी स्मृति में गूंजता है – “संघ, संघ के लिए नहीं बना। संघ समाज के सशक्तिकरण के लिए बना है। संघ का ध्येय है – कार्य करते जाना, उद्देश्य को पूरा करते जाना और करते-करते स्वयं को पीछे कर लेना। एक दिन ऐसा आना चाहिए कि समाज को संघ की आवश्यकता ही न रहे।” यह दृष्टिकोण अद्वितीय है। कोई संगठन अपने आप को समाप्त कर समाज में विलीन करने की सोच रखे, यह विनम्रता का चरम उदाहरण है।

आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी राष्ट्र को ₹100 का स्मारक सिक्का भेंट किया है, जिसे संघ के शताब्दी वर्ष पर एक शुभकामना संदेश के रूप में देखा जा रहा है। यह केवल एक सिक्का नहीं, बल्कि संघ के सौ वर्ष की साधना और समाज को समर्पित तपस्या का प्रतीक है।

संघ का शताब्दी वर्ष बिना समारोह और उत्सव के मनाना किसी प्रकार की अनामिकता नहीं है। यह अपने अहंकार को त्यागने का आह्वान है। यह उस अधूरे कार्य को पूरा करने का दिग्दर्शन है जो समाज के उत्थान की ओर ले जाता है। संघ के लिए शताब्दी कोई उपलब्धियों की सूची बनाने का अवसर नहीं है, बल्कि अपने लक्ष्य और उद्देश्य की पुनः समीक्षा करने और नए संकल्पों के साथ आगे बढ़ने का क्षण है। यही विनम्रता संघ को विश्व में अद्वितीय बनाती है।

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