प्राणायाम साधना का अभिन्न अंग: अजयदीप सिंह

दैनिक इंडिया न्यूज़, 11 अगस्त 2024, लखनऊ – पूर्व मंडलायुक्त आईएएस अधिकारी अजयदीप सिंह ने राष्ट्रीय सनातन महासंघ के प्रवक्ता आचार्य कृष्ण कुमार तिवारी से साधना के एक महत्वपूर्ण रहस्य पर विस्तृत चर्चा की, जिसे प्राणाकर्षण प्राणायाम कहा जाता है। इस बातचीत में अजयदीप ने युगदृष्टा पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित ‘गायत्री महाविज्ञान’ के रहस्यों के संदर्भ में प्राणायाम के महत्व को स्पष्ट किया।

प्राणायाम, सन्ध्या का तीसरा कोष है, जिसे प्राणाकर्षण भी कहा जाता है। गायत्री की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए पूर्व पृष्ठों में उल्लेख किया गया है कि सृष्टि दो प्रकार की है—जड़, अर्थात् परमाणुमयी और चैतन्य, अर्थात् प्राणमयी। निखिल विश्व में परमाणुओं के संयोग और विघटन से विविध दृश्य उत्पन्न होते हैं, ठीक उसी प्रकार चैतन्य प्राण-सत्ता की हलचलों से चैतन्य जगत् की विविध घटनाएँ घटित होती हैं। वायु की तरह चैतन्य प्राण तत्व भी सर्वत्र व्याप्त है, जो हमारी आन्तरिक स्थिति को बलवान् या निर्बल बनाता है।

प्राणशक्ति की अधिक मात्रा से आत्म-तेज, शूरता, दृढ़ता, पुरुषार्थ, विशालता, महानता, सहनशीलता, धैर्य और स्थिरता जैसे गुण प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत, जिनमें प्राण कम होता है, वे भले ही शारीरिक रूप से स्थूल हों, लेकिन वे डरपोक, दब्बू, कायर, अस्थिर मति, संकीर्ण और स्वार्थी होते हैं। इन दुर्गुणों के होते हुए कोई व्यक्ति महान नहीं बन सकता। इसलिए साधक को प्राण शक्ति अधिक मात्रा में धारण करने की आवश्यकता होती है। यह प्रक्रिया, जिससे विश्वमयी प्राणतत्त्व को खींचकर अधिक मात्रा में प्राणशक्ति अपने अंदर धारण की जाती है, प्राणायाम कहलाती है।

प्राणायाम के समय मेरुदण्ड को सीधा और सावधान रखना आवश्यक है, क्योंकि मेरुदण्ड में स्थित इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के माध्यम से प्राणशक्ति का आवागमन होता है। यदि रीढ़ की हड्डी झुकी रहती है, तो मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी तक प्राण की धारा निर्बाध गति से नहीं पहुँच सकेगी, जिससे प्राणायाम का वास्तविक लाभ नहीं मिल सकेगा।

प्राणायाम के चार भाग होते हैं: (1) पूरक, (2) अन्तः कुम्भक, (3) रेचक, और (4) बाह्य कुम्भक। वायु को भीतर खींचने को पूरक, वायु को भीतर रोकने को अन्तः कुम्भक, वायु को बाहर निकालने को रेचक, और बिना साँस के रहने को बाह्य कुम्भक कहते हैं। इन चारों के लिए गायत्री मंत्र के चार भागों की नियुक्ति की गई है:

  1. पूरक के साथ ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’,
  2. अन्तः कुम्भक के साथ ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’,
  3. रेचक के साथ ‘भर्गो देवस्य धीमहि’,
  4. बाह्य कुम्भक के साथ ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ मंत्र का जप होना चाहिए।

प्राणायाम की प्रक्रिया इस प्रकार है:

  1. पूरक: स्वस्थ चित्त से बैठें, मुख को बंद करें और नेत्रों को बंद या अधखुले रखें। धीरे-धीरे नासिका द्वारा साँस भीतर खींचें और ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ मंत्र का मन ही मन उच्चारण करते हुए भावना करें कि ‘विश्वव्यापी दुःखनाशक, सुख स्वरूप ब्रह्म की चैतन्य प्राण शक्ति को मैं नासिका द्वारा आकर्षित कर रहा हूँ।’ इस भावना और मंत्र के साथ वायु को भरें।
  2. अन्तः कुम्भक: वायु को भीतर रोकें और ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ मंत्र का जप करें। भावना करें कि ‘नासिका द्वारा खींचा हुआ प्राण सूर्य के समान तेजस्वी है और इसका तेज मेरे अंग-प्रत्यंग में भरा जा रहा है।’ इस भावना के साथ आधे समय तक वायु को भीतर रोके रखें।
  3. रेचक: नासिका द्वारा वायु धीरे-धीरे बाहर निकालें और ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ मंत्र का जप करें। भावना करें कि ‘यह दिव्य प्राण मेरे पापों का नाश करता हुआ विदा हो रहा है।’ वायु निकालने में उतना ही समय लगाएं जितना कि वायु खींचने में लगाया था।
  4. बाह्य कुम्भक: जब सब वायु बाहर निकल जाए, तो उतनी ही देर बाहर वायु को रोके रखें और ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ मंत्र का जप करते रहें। भावना करें कि भगवती वेदमाता आद्य-शक्ति गायत्री सद्बुद्धि को जाग्रत् कर रही हैं।

सन्ध्या में पाँच प्राणायाम करने चाहिए, जिससे शरीर में स्थित प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान नामक पाँचों प्राणों का व्यायाम, स्फुरण और परिमार्जन होता है।

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