
पुलिसकर्मी वर्दी का लाभ उठाकर मुफ्त यात्रा कर रहे, बाद में टैक्सी मालिकों के FASTag से कट रहा पूरा शुल्क
सरकार बताए — टोल टैक्स पर नियम तय हैं या ‘खाकी’ और ‘कैमोफ्लाज’ की मर्जी ही अब कानून बन गई है?
दैनिक इंडिया न्यूज़ लखनऊ। उत्तर प्रदेश के एक्सप्रेसवे और अन्य प्रमुख मार्गों पर अब FASTag के नाम पर हो रही अराजकता खुलकर सामने आ रही है। पुलिसकर्मियों द्वारा वाहन चालकों को टोल छूट का झांसा देकर की जा रही ‘सवारी की ठगी’ के बाद अब यह मामला सिर्फ आम जनता तक सीमित नहीं रहा — अब सेना के जवान भी इस ‘डिजिटल ठगी’ से परेशान हैं।
क्या FASTag के नाम पर डिफेंस कर्मियों से भी हो रही है सुसंगठित धोखाधड़ी?
भारत सरकार ने दावा किया था कि डिफेंस स्टाफ को टोल टैक्स में राहत दी जाएगी। लेकिन वास्तव में हो क्या रहा है? सेना के कई जवान अपनी निजी कार या अपने पिता और भाई की गाड़ी से जब टोल प्लाजा पर पहुंचते हैं, तो वर्दी या आईडी कार्ड दिखाने पर उन्हें पहले तो जाने दिया जाता है — लेकिन कुछ समय बाद उन्हीं के FASTag अकाउंट से पूरा शुल्क डेबिट कर लिया जाता है।
क्या यह किसी सरकारी व्यवस्था का हिस्सा है या FASTag के नाम पर सुनियोजित ठगी का नया मॉडल?
डिफेंसकर्मियों का कहना है कि अगर वर्दी या डिफेंस आईडी दिखाकर जाने की अनुमति दी जाती है, तो फिर बाद में पैसे काटे क्यों जाते हैं? क्या टोल कर्मी सिर्फ तत्कालीन बहस से बचने के लिए उन्हें आगे बढ़ने देते हैं और बाद में सिस्टम में उनकी गाड़ी को शुल्कयुक्त ट्रांजैक्शन के रूप में दर्ज कर देते हैं?
सरकार से कुछ ज़रूरी और गंभीर सवाल:
क्या डिफेंसकर्मियों की टोल छूट सिर्फ एक दिखावा है, जिसका कोई सटीक, पारदर्शी और तकनीकी आधार नहीं है?
क्या FASTag के नाम पर नागरिकों और जवानों दोनों से डिजिटल स्तर पर ‘पैसा वसूली’ की नई व्यवस्था बनाई जा चुकी है?
क्या टोल छूट सिर्फ दिखावे की नीति है, जिसे ज़मीनी स्तर पर लागू करने की कोई ईमानदार मंशा नहीं है?
जब टोल प्लाजा पर वर्दीधारी व्यक्ति को बिना भुगतान के छोड़ दिया जाता है, तो बाद में FASTag से पैसे काटने का अधिकार किसके पास है?
क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि FASTag प्रणाली की नियमावली का सार्वजनिक पुनरीक्षण हो और उसे पूर्ण रूप से पारदर्शी बनाया जाए?
एक ओर जहां देश सेवा में लगे जवानों को सरकार ‘सम्मान’ देने की बात करती है, वहीं दूसरी ओर उनकी जेब से चुपचाप टोल टैक्स वसूला जा रहा है। दूसरी ओर पुलिसकर्मी टोल छूट का झूठा वादा कर जनता को बहकाते हैं और FASTag के माध्यम से बाद में शुल्क वसूल लिया जाता है।
तो क्या FASTag डिजिटल सुविधा है या एक नया डिजिटल जाल?
क्या सरकार को FASTag नियमावली में तत्काल सुधार नहीं करना चाहिए?
क्या इस मामले में जिम्मेदार एजेंसियों की जवाबदेही तय नहीं होनी चाहिए?
क्या देश के जवानों और टैक्सी चालकों के साथ यह खुली लूट नहीं है?
जब तक इन सवालों पर सरकार और व्यवस्था सोचने को मजबूर नहीं होगी, तब तक FASTag आम जनता के लिए सुविधा नहीं, बल्कि ‘सजा’ बनी रहेगी।