सनातन धर्म: भविष्य की चेतना का शाश्वत स्रोत

हरिंद्र सिंह दैनिक इंडिया न्यूज़,26 जून 2025 लखनऊ।सनातन धर्म कोई मजहब नहीं है, न ही यह कोई सीमित जीवन-पद्धति है। यह ब्रह्मांड की सबसे प्राचीन, सर्वसमावेशी और वैज्ञानिक जीवनदृष्टि है, जो मानव को केवल शरीरधारी जीव नहीं, बल्कि ब्रह्म का अंश मानती है। सनातन धर्म न किसी ऋषि ने बनाया, न किसी ग्रंथ से उपजा — यह सृष्टि के आरंभ से ही विद्यमान है और अनंत काल तक रहेगा। इसी कारण इसे ‘सनातन’ कहा गया है, अर्थात् जो सदा से है और सदा रहेगा। वेद, उपनिषद, स्मृतियाँ, पुराण — सब इसी सनातन चेतना के विविध आयाम हैं, जिनमें जीवन, विज्ञान, योग, चिकित्सा, खगोल, पर्यावरण, भाषा, न्याय, राजनीति और समाजशास्त्र — सब समाहित हैं।

आज जब हम वर्तमान विश्व की ओर दृष्टि डालते हैं, तो पाते हैं कि टेक्नोलॉजी, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), जैविक युद्ध, मानसिक तनाव, सांस्कृतिक विघटन और पारिवारिक विखंडन ने एक वैश्विक संकट खड़ा कर दिया है। इस संकट में यदि कोई सार्वभौमिक समाधान है, तो वह केवल और केवल सनातन धर्म है, क्योंकि यह व्यक्ति, समाज और सृष्टि के बीच संतुलन स्थापित करने का विज्ञान है। परंतु दुर्भाग्यवश, जो ज्ञान संसार को दिशा दे सकता था, वही आज अपने ही देश में उपेक्षित है।

भारतवर्ष, जिसने हजारों वर्षों तक विश्व को ज्ञान, दर्शन, चिकित्सा और आचरण का नेतृत्व दिया, वही आज अपने स्वधर्म, स्वसंस्कृति और स्वाभिमान को विस्मृत करता जा रहा है। जबकि आज से केवल 250–300 वर्ष पूर्व तक भारत विश्व की वैचारिक राजधानी हुआ करता था। उस समय यूरोप में कोई विश्वविद्यालय नहीं था, लेकिन भारत में नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, वल्लभी, उज्जयिनी, शारदा पीठ जैसे वैदिक विद्यापीठ थे, जहाँ वेदों, उपनिषदों, खगोलशास्त्र, योग, संगीत, आयुर्वेद, रसायन, दर्शन और साहित्य का व्यवस्थित अध्ययन होता था।

उस समय भारत की शिक्षण प्रणाली केवल ज्ञान के संचय तक सीमित नहीं थी, वह चरित्र निर्माण, राष्ट्र निर्माण और ब्रह्म चेतना के जागरण तक विस्तारित थी। ऋषिकुलों में शिक्षा का अर्थ केवल उत्तर देने की योग्यता नहीं, उत्तरदायित्व निभाने की शक्ति को जाग्रत करना होता था। यही थी सनातन शिक्षा। और यही वह चेतना थी, जो धीरे-धीरे लुप्त होती गई।

उपनिवेशवाद की काली छाया और पश्चिमी शिक्षा की एकांगी दृष्टि ने हमें अपनी जड़ों से काट डाला। हमने अपने ही ज्ञान को रूढ़ि, अंधविश्वास और पाखंड मान लिया, जबकि पश्चिम ने हमारे ग्रंथों को पढ़ा, समझा, उन पर शोध किए और पेटेंट करा लिए। आयुर्वेद की औषधियों, जैसे नीम, हल्दी, तुलसी, अश्वगंधा, त्रिफला आदि के आधुनिक उपयोग और पेटेंट अब विदेशी कंपनियों के पास हैं। जबकि यह हमारी विरासत है — हमारे वेदों की देन।

इस कालखंड में जब भारत वैचारिक और आत्मिक रूप से दिशाहीन हो रहा था, तब एक दिव्य चेतना का अवतरण हुआ। यह कोई साधारण संत नहीं थे — यह एक युग-पुरुष थे। इन्हें संसार ने पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के नाम से जाना, परंतु श्रद्धा से इन्हें ‘प्रज्ञा अवतार’ कहा गया। उन्होंने अपने तप और साधना से यह सिद्ध कर दिया कि गायत्री कोई मंत्र मात्र नहीं, बल्कि एक चेतना-शक्ति है, जो मनुष्य को देवत्व तक पहुँचा सकती है।

आचार्य श्रीराम शर्मा का जीवन साक्षात यज्ञमय था। 15 वर्ष की आयु में उन्होंने 24 महापुरश्चरणों की योजना बनाई, जिसमें गायत्री मंत्र की 2.4 करोड़ जप संख्या के साथ 24 वर्षों की कठोर तपश्चर्या थी। यह केवल आत्मकल्याण की साधना नहीं थी, यह पूरे समाज को जाग्रत करने की यज्ञीय संकल्पशक्ति थी। उन्होंने ‘युग निर्माण योजना’ का सूत्रपात किया, जिसमें उन्होंने कहा कि धर्म को लोकमंगल का माध्यम बनाओ, केवल कर्मकांड का नहीं।

गायत्री महाविज्ञान का जो स्वरूप उन्होंने समाज को दिया, वह कोई पूजा-पद्धति नहीं थी — वह तो चेतना के गहरे तल में उतरने की प्रक्रिया थी। उन्होंने बताया कि गायत्री से वेद प्रकट होते हैं, वेदों से विज्ञान और विज्ञान से समाज का नव निर्माण होता है। उनके अनुसार, गायत्री वह ‘ध्वनि’ है, जो मन, प्राण, बुद्धि और आत्मा को एकसूत्र में बाँध देती है। वह केवल मंत्र नहीं, ऊर्जा का प्राण-स्रोत है।

उन्होंने यज्ञ को केवल अग्नि में आहुतियाँ डालने तक सीमित नहीं रखा, बल्कि समाज के हर सकारात्मक कर्म को यज्ञ कहा — शिक्षा का यज्ञ, स्वास्थ्य का यज्ञ, स्वच्छता का यज्ञ, भ्रांति-निवारण का यज्ञ — ये सभी उनके युगधर्म का हिस्सा बने। उन्होंने हजारों प्रज्ञा संस्थानों, गायत्री शक्तिपीठों, युवा संगठनों और महिला जागरण के केंद्रों की स्थापना की, और कहा कि यदि भारत को पुनः विश्वगुरु बनाना है, तो उसे पुनः वेदों की ओर लौटना होगा।

उन्होंने स्पष्ट किया कि वेदों में केवल मंत्र नहीं, बल्कि ध्वनि तरंगों का गणित है, ब्रह्मांड की संरचना का खगोलशास्त्र है, मनोविज्ञान है, तंत्र विज्ञान है, और सबसे महत्वपूर्ण — आत्मा के विज्ञान का विस्तार है।

आज जब कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) इतनी तीव्र गति से आगे बढ़ रही है, जब मशीनें सोचने का दावा कर रही हैं, तब भी वे चेतना से वंचित हैं। AI गणना कर सकता है, लेकिन संवेदना नहीं दे सकता। वह आदेश दे सकता है, लेकिन प्रार्थना नहीं कर सकता। वह अनुकरण कर सकता है, लेकिन अनुभूति नहीं दे सकता। ऐसे में यदि मानव को मानव बनाए रखने वाली कोई चेतना है, तो वह केवल सनातन धर्म ही है।

अब प्रश्न उठता है — जब वेद हैं, जब आचार्य श्रीराम शर्मा जैसे युगपुरुष का मार्गदर्शन है, तब ‘राष्ट्रीय सनातन महासंघ’ की आवश्यकता क्यों पड़ी?

इसका उत्तर अत्यंत गहन और विचारणीय है।

सनातन धर्म आज केवल अपने अस्तित्व की रक्षा नहीं कर रहा, बल्कि स्वयं को अपने ही देश में स्थापित करने के लिए प्रमाण जुटा रहा है। आज भारत के विद्यालयों में वेद नहीं पढ़ाए जाते, संस्कृत उपेक्षित है, और सनातन को रूढ़िवाद के कोने में डाल दिया गया है। तथाकथित आधुनिकता ने सनातन को झूठे तर्कों से पीछे धकेल दिया है। जबकि आवश्यकता यह थी कि हम वेदों को पुनः पढ़ें, गायत्री को समझें, और यज्ञ को जीवन का अंग बनाएं।

राष्ट्रीय सनातन महासंघ इस दिशा में एक अनिवार्य संकल्प है — यह केवल संगठन नहीं, एक चेतना है। इसका उद्देश्य केवल सनातन की रक्षा नहीं, बल्कि सनातन के वैज्ञानिक, दार्शनिक और सामाजिक पक्ष को प्रमाण सहित आधुनिक समाज के समक्ष प्रस्तुत करना है।

यह संगठन युवा पीढ़ी को यह समझाता है कि सनातन धर्म पिछड़ा नहीं, बल्कि सबसे प्रगतिशील जीवन व्यवस्था है। यह संगठन अनुसंधान करता है कि वेदों में वर्णित ध्वनि विज्ञान, मंत्र शक्ति और यज्ञीय ऊर्जा का प्रयोग आज के मानसिक, सामाजिक और पर्यावरणीय संकटों में कैसे किया जा सकता है। यह संगठन गायत्री महाविज्ञान को सूक्ष्म विज्ञान, मानसिक चिकित्सा और वैचारिक उत्थान का माध्यम बनाता है।

यह संगठन स्पष्ट करता है कि सनातन ही वह शक्ति है, जो AI के युग में भी मनुष्य को यंत्र बनने से रोक सकती है।

राष्ट्रीय प्रवक्ता कृष्णाचार्य बार-बार इस बात को दोहराते हैं कि यदि हम अपने धर्म की वैज्ञानिकता को प्रमाण सहित प्रस्तुत नहीं कर सके, तो अगली पीढ़ियाँ उसे स्वीकार नहीं करेंगी। धर्म को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रखने के लिए उसे केवल परंपरा नहीं, बल्कि प्रमाण और प्रयोग के साथ प्रस्तुत करना होगा। यही ‘राष्ट्रीय सनातन महासंघ’ का मूल मंत्र है।

यह महासंघ वेदों को केवल मंदिर की चारदीवारी में नहीं, बल्कि प्रयोगशालाओं में पहुँचाना चाहता है। यह केवल धार्मिक संगठन नहीं, बल्कि वैदिक-वैज्ञानिक शोध और सामाजिक आध्यात्मिकता का संगम है। यह संगठन सनातन को केवल अतीत नहीं, वर्तमान और भविष्य दोनों के रूप में देखता है।

अब समय आ गया है कि हम केवल ‘गौरवशाली अतीत’ की चर्चा न करें, बल्कि उस ज्ञान को पुनः जीवन में उतारें। आचार्य श्रीराम शर्मा के बताए मार्ग पर चलें। वे कहते थे — “हम बदलेंगे, युग बदलेगा।” और युग सचमुच बदल रहा है।

अब आवश्यकता है कि भारत पुनः वेदों की ओर लौटे। गायत्री को फिर से अंतरात्मा का संगीत बनाए, यज्ञ को जीवन की ऊर्जा बनाए, और सनातन धर्म को लोकमंगल का सर्वोच्च विज्ञान बनाए।

राष्ट्रीय सनातन महासंघ’ इस पुनर्जागरण का अग्रदूत बन चुका है। यह केवल संगठन नहीं, प्रज्ञा की वह चिंगारी है, जो एक बार फिर भारत को विश्व का पथप्रदर्शक बना सकती है। जब पूरा संसार असंतुलन और दिशाहीनता के बिंदु पर खड़ा हो, तब केवल सनातन ही वह सत्य है, जो सबका मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

इसलिए, आज सनातन की आवश्यकता केवल भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं है — यह समस्त विश्व की आवश्यकता बन चुकी है। जब पृथ्वी पर जलवायु असंतुलन है, जब विज्ञान संवेदनहीन हो चला है, जब परिवार टूट रहे हैं, समाज बिखर रहा है, और मानवता अपने मूल्यों से दूर हो रही है — तब एकमात्र समाधान उस सनातन चेतना में है, जो आत्मा, प्रकृति और परमात्मा के बीच संतुलन स्थापित करती है।

राष्ट्रीय सनातन महासंघ’ इसी चेतना का जागरण है। यह कोई साधारण संगठन नहीं, बल्कि एक धर्म-वैज्ञानिक क्रांति का सूत्रपात है। यह संगठन वेदों को प्रयोगशालाओं में पहुँचाने, यज्ञ को जन-जीवन से जोड़ने, और गायत्री महाविज्ञान को चिकित्सा, ऊर्जा, पर्यावरण तथा मानसिक संतुलन के आधुनिक उपाय के रूप में स्थापित करने हेतु प्रतिबद्ध है। यह केवल भाषण नहीं देता, समाधान प्रस्तुत करता है। यह केवल अतीत की पूजा नहीं करता, भविष्य की योजना बनाता है।

यह महासंघ हमें स्मरण कराता है कि सनातन धर्म कोई पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि जीने की परम पद्धति है। यह बताता है कि यदि मनुष्य को यंत्र बनने से बचाना है, तो उसे फिर से वेदों की शरण लेनी होगी। यदि भारत को फिर से विश्वगुरु बनाना है, तो आचार्य श्रीराम शर्मा के आदर्शों को व्यवहार में उतारना होगा। और यदि मानवता को टिकाए रखना है, तो उसे धर्म, विज्ञान और संवेदना के त्रिवेणी संगम की आवश्यकता है — जिसे केवल सनातन धर्म ही दे सकता है।

अतः यह अभियान केवल एक आंदोलन नहीं, युग निर्माण का आह्वान है। यह महासंघ प्रत्येक भारतवासी को पुकार रहा है — “जागो, अपने मूल की ओर लौटो, और इस युग परिवर्तन में सहभागी बनो।” यही आचार्य जी का संदेश है, यही सनातन की पुकार है, और यही भारत का भविष्य है।

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