अन्तःदीप्ति का महामंत्र — मनोविजय और आत्मोत्कर्ष का दार्शनिक विस्तार

दैनिक इंडिया न्यूज़ लखनऊ ।मनुष्य का जीवन मात्र वर्षों का क्रम नहीं, बल्कि चेतना के विकास, अनुभूतियों के विस्तार और आत्मबोध के उद्भव का एक दीर्घ अध्याय है। यह अध्याय कभी सहज सुवासित पथ नहीं देता; अनेक बार यह संघर्षों से भरा, व्याकुलताओं से युक्त और मानसिक उद्वेलन से परिपूर्ण होता है। किंतु जीवन का रहस्य इसी तथ्य में छिपा है कि बाहरी परिस्थिति चाहे कैसी भी क्यों न हो, मनुष्य की वास्तविक उन्नति उसकी आंतरिक शक्ति, मनोवृत्तियों की शुचिता और प्रज्ञा के दिव्य प्रस्फुटन से ही निर्धारित होती है।

जब मनुष्य सीमाओं से घिर जाता है, जब परिस्थितियाँ भ्रमजाल की भाँति उसे जकड़ लेती हैं, जब आशा का दीपक क्षीण पड़ने लगता है—उसी समय उसकी आत्मा की गहन परतों में छिपा हुआ एक अदृश्य स्पंदन जागृत होता है। यह स्पंदन किसी ऋषि-वाक्य की भांति मौन परंतु प्रखर होता है, जो संकेत देता है कि मानव-अस्तित्व का वास्तविक केंद्र बाहर नहीं, भीतर स्थित है। यह प्रथम अंतःजागरण उसी क्षण घटित होता है जब मनुष्य अपनी विचारधारा के महत्त्व को पहचान लेता है।

विचार देखने में सूक्ष्म हैं, परंतु नियति के निर्माता हैं।
विचार स्थिति नहीं, शक्ति हैं।
वे अदृश्य हैं, परंतु उनका प्रभाव असीम है।

मनुष्य का दृष्टिकोण जैसे ही रूपांतरित होता है, वैसे ही उसका संसार भी रूपांतरित होने लगता है। जिन परिस्थितियों को वह पहले अवरोध मानता था, वही परिस्थितियाँ उसके लिए नए मार्ग, नए संकेत और नए उद्देश्य बन जाती हैं। इसीलिए विचारों की शुद्धता ही मनोविजय का प्रथम और अनिवार्य सोपान है।

विचारों के साथ-साथ भावनाओं का नियंत्रण भी मनुष्य के जीवन में उतना ही निर्णायक है। अंतर्मन में उठती तरंगें यदि अनियंत्रित हों, तो मनुष्य बाहरी परिस्थितियों का दास बन जाता है। किंतु जो व्यक्ति अपने उद्वेगों का साक्षी बन जाता है, जो स्वयं को तरंगों से परे स्थित शांत सागर के रूप में अनुभव करता है—उसके भीतर प्रज्ञा का दिव्य प्रकाश जागृत होता है। यह प्रज्ञा उसे संकटों के बीच भी स्थिर रखती है, और उसके निर्णयों में ऐसी स्पष्टता लाती है कि वह जीवन को एक उच्चतर दृष्टि से देखना प्रारंभ कर देता है।

संकल्प मनुष्य की वह आंतरिक अग्नि है, जिसका ताप जितना प्रखर होता है, लक्ष्य उतना ही समीप आता है। संकल्प यदि पवित्र है, सत्य है और दृढ़ है—तो उसकी सिद्धि अपरिहार्य है। इसी संकल्प की शक्ति व्यक्ति को कर्मशील बनाती है, और कर्म का पवित्रत्व मार्ग को सुगम कर देता है। महान आचार्यों ने कहा है कि मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है, क्योंकि उसका संकल्प ही उसकी नियति को दिशा देता है।

पुरुषार्थ वह चाबी है जो भाग्य के सभी ताले खोल देती है। जो व्यक्ति पुरुषार्थ में विश्वास रखता है, वह परिस्थितियों के आधीन नहीं रहता, बल्कि उन्हें रूपांतरित कर देता है। उसकी प्रगति चमत्कार नहीं, श्रम और संयम का उद्घोष होती है। वह जानता है कि भाग्य उतना ही प्रबल है जितना मनुष्य का प्रयास। इसी पुरुषार्थ की शक्ति मनुष्य को असाधारण बनाती है—वही शक्ति उसे उसकी सीमाओं से ऊपर उठाती है।

इन सबके बीच चरित्र मनुष्य के व्यक्तित्व का अनन्त आधार है। उपलब्धियाँ चाहे कितनी ही उच्च क्यों न हों, यदि चरित्र दुर्बल है तो वे उपलब्धियाँ स्थायी नहीं। चरित्र वह केंद्र है जहाँ से मनुष्य का वास्तविक तेज उत्पन्न होता है। चरित्र जितना सुदृढ़ होता है, सफलता उतनी ही स्थायी और गौरवपूर्ण होती है।

और अंततः मनुष्य का सर्वोच्च उत्कर्ष तब होता है जब वह अपने अस्तित्व को देह नहीं, चेतना के एक तेजस्वी केंद्र के रूप में पहचानता है। जब वह समझता है कि जीवन का वास्तविक युद्ध बाहर नहीं, भीतर लड़ा जाता है; और जो स्वयं को साध लेता है, वही संसार को साधने की पात्रता रखता है। यह अवस्था जीवन को एक नई दिशा, नई ऊँचाई और नई अर्थवत्ता प्रदान करती है। तब मनुष्य केवल जीता नहीं—प्रेरणा बन जाता है। उसका अस्तित्व दूसरों के लिए मार्गदर्शक ज्योति के समान हो जाता है।

Share it via Social Media

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *