
गुरुसत्ता—यह शब्द मात्र किसी व्यक्ति-विशेष का संकेत नहीं, बल्कि उस दिव्य चेतना का प्रतीक है जो शिष्य के अन्तर्मन में अध्यात्म-दीप प्रज्वलित करती है। गुरु केवल देहधारी साधक नहीं, वरन् ‘तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्’ (मुंडकोपनिषद् 1.2.12) के अनुसार वह सद्बुद्धि, सत्य और ज्ञान का अविच्छिन्न प्रवाह है। शिष्य का सर्वोच्च कर्तव्य है कि वह इस चेतन-स्रोत के प्रति अहर्निश निष्ठावान रहे—अर्थात् दिन-रात, सुख-दुःख, लाभ-हानि, प्रसन्नता और विषाद सभी परिस्थितियों में अविचल श्रद्धा का अटूट आलोक उसके हृदय में दीपित रहे। निष्ठा का अर्थ केवल अनुकरण नहीं, बल्कि गुरु के वचन, मार्ग और संकल्प को जीवन की धुरी बनाना है।
जब शिष्य का मन पूर्णतः गुरु की सत्ता में निहित हो जाता है, तब उसके अंतस्तल में अद्भुत रूपांतरण आरम्भ होने लगता है। यह रूपांतरण बाह्य नहीं, बल्कि सूक्ष्म और आध्यात्मिक होता है—जो उसे साधारण मानव से असाधारण चेतना की दिशा में अग्रसर करता है। ‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्’ (गीता 4.39) — भगवद्गीता का यह सिद्धान्त स्पष्ट उद्घोष करता है कि निष्ठा ही वह भित्ति है जिसके आधार पर ज्ञान का मंदिर खड़ा होता है। जो शिष्य निष्ठावान है, वही गुरुकृपा का वास्तविक पात्र बनता है; और वही आगे चलकर प्रज्ञा, ऋतंभरा और विवेक का धारक बनता है।
गुरुसत्ता के प्रति अहर्निश निष्ठा का प्रथम फल है—प्रज्ञा। सांसारिक बुद्धि और प्रज्ञा में वही अंतर है जो चन्द्रमा की शीतल रोशनी और सूर्य के तेज में है। बुद्धि तर्क और अनुभव का संचय है, किंतु प्रज्ञा आत्मा का प्रत्यक्ष प्रकाश है। वह किसी पुस्तक, तर्क या शिक्षा से अर्जित नहीं होती; वह गुरु के निकट रहते हुए, उनकी चरण-शरण में रहते हुए, उनकी सूक्ष्म दृष्टि और आशीष से स्वतः विकसित हो जाती है। प्रज्ञा का अर्थ है—वस्तुओं के पीछे छिपे सत्य को देखना, घटनाओं के पार छिपे कारणों को समझना, और कर्म के भीतर छिपे धर्म को पहचानना। यह गुरु-द्वारा प्रदत्त वह अलौकिक उपहार है जो शिष्य की चेतना को भीतर से आलोकित कर देता है।
दूसरा उपहार है ऋतंभरा प्रज्ञा—उपनिषदों का अत्यंत गूढ़ और पवित्र शब्द। पतंजलि योगसूत्र (1/48) में कहा गया है—‘ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा’, अर्थात् सत्य से परिपूर्ण वह प्रज्ञा जो भ्रम, संशय और द्वैत को जला डालती है। यह साधना का चरम फल है, परंतु गुरु-निष्ठा इसे सहज बना देती है। जब शिष्य पूर्ण समर्पण के साथ गुरु के मार्ग पर चलता है, तब सत्य उसके भीतर स्वतः प्रकट होने लगता है। यह ज्ञान नहीं, ‘प्रत्यभिज्ञा’ है—वह पहचान जो हमें बताती है कि सत्य बाहर नहीं, बल्कि हमारे अंतःकरण में ही प्रतिष्ठित है। ऋतंभरा शिष्य को उस मर्यादा, औचित्य और धर्म का बोध कराती है जो उसके हर कदम को धर्ममय बना देती है।
तीसरा, और शायद सबसे महत्त्वपूर्ण वरदान है—विवेक। विवेक का अर्थ है—सत्य और असत्य के बीच स्पष्ट भेद करना, शुभ और अशुभ के बीच सूक्ष्म अंतर को पहचानना। बिना विवेक के जीवन में धर्म का पालन संभव ही नहीं। गीता कहती है—‘विवेक ही मनुष्य को कर्म-बन्धन से मुक्त करता है।’ विवेक वह अलौकिक दीपक है जो शिष्य की जीवन-यात्रा को दिशा देता है। संसार के चौराहों पर, मोह के अन्धकार में, जब कोई मार्ग स्पष्ट नहीं दिखाई देता, तब यही विवेक गुरु की ओर से प्रदत्त प्रकाश की तरह मनुष्य को पथभ्रष्ट होने से बचाता है।
गुरु-निष्ठा का वास्तविक अर्थ है—गुरु के प्रति बाहरी भक्ति नहीं, बल्कि भीतरी समर्पण। जब शिष्य गुरुवाणी को हृदय में उतार लेता है, जब वह गुरु की इच्छा को ही अपनी इच्छा मान लेता है, जब वह गुरु की दृष्टि से ही संसार को देखने लगता है—तभी निष्ठा अपने पूर्ण रूप में विकसित होती है। यह निष्ठा यांत्रिक नहीं, आत्मिक है; यह भय से नहीं, प्रेम से जन्मती है; यह बाध्यता नहीं, बल्कि आत्मसमर्पण का उत्कट आवेग है।
और जब ऐसी निष्ठा विकसित हो जाती है, तब शिष्य का जीवन दिव्यता का पात्र बन जाता है। उसके भीतर से अहंकार क्षीण हो जाता है, कर्मों का कलुष मिट जाता है, और उसके जीवन में एक अद्भुत शांति उतर आती है। धीरे-धीरे वह अनुभव करता है कि गुरु केवल बाहर नहीं—अंतरंग में भी बसते हैं। तभी उसे समझ आता है कि गुरु-सत्ता क्या है—वह अनंत, सर्वव्यापक और सर्वज्ञ चेतना, जो सदा शिष्य का पथप्रदर्शन करती है।
अन्ततः यही सत्य है—कि गुरु-निष्ठा वह उद्गम है जहाँ से प्रज्ञा जन्म लेती है; ऋतंभरा वहीं से प्रस्फुटित होती है; और विवेक उसी से जीवन को दिशा देता है। जो शिष्य इस निष्ठा को धारण कर लेता है, उसके लिए संसार का तमो-मय अंधकार कभी भयावह नहीं रहता; क्योंकि उसके भीतर गुरु-ज्योति जल उठी होती है—अविचल, अविराम और अहर्निश प्रकाशमान।
