
साहित्य और कला ने आज़ादी की ज्वाला प्रज्वलित की

मातृभाषा हिंदी से ही स्वतंत्रत चेतना को मिली शक्ति
लखनऊ। लखनऊ विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित गोमती पुस्तक मेले (एनबीटी) में हुए “पुस्तक चर्चा” कार्यक्रम के दौरान लेखक, निर्देशक और अभिनेता चंद्रभूषण सिंह की पुस्तक “साहित्य की बोली स्वतंत्रता का अमृत” पर गंभीर विमर्श हुआ। कार्यक्रम में उपस्थित वरिष्ठ साहित्यकारों, पत्रकारों और विद्वानों ने इसे मात्र एक पुस्तक नहीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा से जुड़े साहित्यिक दस्तावेज के रूप में सराहा।
ललित कला अकादमी, उत्तर प्रदेश के उपाध्यक्ष गिरीश चंद्र मिश्रा ने कहा कि साहित्य, कला और संस्कृति स्वतंत्रता आंदोलन के प्राण थे। कविता, गीत और नाटक ने जनमानस में ऐसा उत्साह जगाया जिसने पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ने का हौसला दिया। उन्होंने कहा—“यह पुस्तक नई पीढ़ी को उस दौर की जीवंत झलक दिखाती है और याद दिलाती है कि साहित्य और कला ने मिलकर ही आज़ादी की लड़ाई को ऊर्जा दी।”
वरिष्ठ पत्रकार श्रीधर अग्निहोत्री ने इसे क्रांति का शस्त्र बताते हुए कहा कि स्वतंत्रता संग्राम केवल रणभूमि तक सीमित नहीं था, बल्कि कलम और काव्य की लड़ाई भी उतनी ही सशक्त थी। भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद और अन्य साहित्यकारों की लेखनी ने जनता में आत्मबल जगाया और स्वतंत्रता की ज्वाला प्रज्वलित की। उन्होंने कहा—“आज हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि नई पीढ़ी को मातृभाषा और बोलियों से जोड़े रखें।”
उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी की उपाध्यक्ष विभा सिंह ने हिंदी से नई पीढ़ी की दूरी पर चिंता जताई और कहा कि परिवारों में बच्चों को हिंदी अपनाने के लिए प्रेरित करना होगा। उन्होंने भावुक होते हुए कहा—
“हिंदी केवल भाषा नहीं, यह हमारी आत्मा की आवाज़ है। अगर बच्चे अपनी मातृभाषा से दूर होंगे तो उनकी जड़ें कमजोर हो जाएंगी। सरोजिनी नायडू और महादेवी वर्मा जैसी विभूतियों ने अपने साहित्य से जिस ऊर्जा और प्रेरणा का संचार किया, वह हमें आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाना ही होगा। जैसे एक पेड़ अपनी जड़ों से शक्ति पाता है, वैसे ही समाज को अपनी मातृभाषा से जीवन मिलता है।”
लेखक चंद्रभूषण सिंह ने कहा कि यह पुस्तक स्वतंत्रता आंदोलन में हिंदी के योगदान को उजागर करती है। उन्होंने कहा—“आज़ादी के अमृतकाल में हमें यह याद रखना होगा कि मातृभाषा हिंदी ने ही स्वतंत्रता की चेतना जगाई। यह कृति नई पीढ़ी को अपनी भाषा और संस्कृति से जोड़ने का सेतु बनेगी।”
साहित्यकार डॉ. मनीष शुक्ल ने समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा कि यह पुस्तक केवल ऐतिहासिक तथ्यों का संग्रह नहीं, बल्कि उस भावधारा का परिचय है जिसने स्वतंत्रता की ज्वाला को जनमानस में प्रज्वलित किया। संवादात्मक और नाटकीय भाषा इसकी सबसे बड़ी विशेषता है, जो पाठकों को न केवल आकर्षित करती है बल्कि गहराई तक स्पर्श भी करती है।
कार्यक्रम के अंत में यह सहमति बनी कि यह कृति विद्यार्थियों, शोधार्थियों और साहित्य-इतिहास के जिज्ञासुओं के लिए प्रेरणास्रोत बनेगी। यह न केवल स्वतंत्रता संग्राम की साहित्यिक परंपरा का गौरवपूर्ण परिचय कराती है, बल्कि मातृभाषा और संस्कृति के संरक्षण का सशक्त संदेश भी देती है।