
दैनिक इंडिया न्यूज़, नई दिल्ली।दिल्ली के लाल किले के पास हुआ धमाका जितना हिला देने वाला था, उससे कहीं अधिक भयावह वह नक्शा है जो जांच एजेंसियों की टेबल पर उभरकर सामने आया। जो कार फटी, वह असल योजना की बस एक झिलमिलाती चिंगारी थी—जबकि उसके पीछे छिपा हुआ था ऐसा महाविनाशक प्लान, जिसे अगर अंजाम मिल जाता, तो भारत का इतिहास और भूगोल दोनों ही उस दिन से पहले और बाद में अलग दिखाई देते। यह विस्फोट किसी दीवार की ईंटें नहीं उड़ा रहा था—यह एक आने वाले तूफ़ान की चेतावनी थी, जिसे देखकर अनुभवी अफसरों तक की सांसें थम गईं।
जांच में खुलासा हुआ कि आतंकियों ने एक नहीं, पूरे 32 कारों को बारूद के जाल बिछाकर देश के अलग-अलग शहरों में एक साथ विस्फोटित करने की तैयारी कर रखी थी। तारीख भी तय थी—6 दिसंबर। और इस पूरी साजिश को धार्मिक उन्माद के जहरीले आवरण में “बाबरी का बदला” का नाम दिया गया था। यह सोचकर ही खून जम जाता है कि उसी तारीख की सुबह भारत की हवा कैसी होती—अगर यह योजना सफल होती तो? धुआँ… खामोशी… चीत्कारें… बिखरे हुए जीवन और टूटे हुए शहर। किसी देश के लिए यह सिर्फ आतंक नहीं, बल्कि अस्तित्व पर हमला होता।
जो कारें खरीदी गईं, वे सामान्य नज़र में किसी भी फर्जी ओएलएक्स लिस्टिंग जैसी दिख सकती थीं, पर उनके भीतर था वह बारूद जिसे आतंकियों ने सीटों, चेसिस, और मेटल हाउसिंग के अंदर इतनी बारीकी से फिट किया कि देखने वाला भी धोखा खा जाए। ब्रेज़ा, डिज़ायर, i20, इकोस्पोर्ट जैसे मॉडल, जिन्हें आम भारतीय अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इस्तेमाल करता है, उन्हें मौत की मशीनों में बदल दिया गया था। उन्हें देशभर में फैला देने की तैयारी थी—ताकि 6 दिसंबर को बस एक संकेत मिले और पूरा देश 32 अलग-अलग दिशाओं से एक साथ दहल उठे।
दिल्ली का धमाका तो उनकी नजर में ‘ड्राई रन’ था—एक चेक, एक परीक्षण। असली आग तो देशभर में फैलनी थी। लाल किला जैसे प्रतीकात्मक स्थल के पास धमाका करके वे हमारी सुरक्षा, हमारी चेतना, और हमारी एकता को परख रहे थे। उस फटी हुई कार में सिर्फ धातु नहीं थी—उसमें वह संदेश था जिससे भारत को झकझोरना था कि “तुम्हारी जमीन सुरक्षित नहीं, तुम्हारी भीड़भाड़ वाली सड़कें सुरक्षित नहीं, तुम्हारा इतिहास और वर्तमान दोनों हमारी निशाने पर हैं।”
जांच में मिली डायरी ने इस साजिश को और भी काला, और भी नंगा कर दिया। उसमें 25 नाम थे—हर नाम के साथ कोडवर्ड, हर कोड के साथ शहर, हर शहर के साथ कार की पॉइंट-मैपिंग। सब कुछ इतना बारीक, इतना सुनियोजित कि किसी संगठित सैन्य ऑपरेशन की योजना जैसी प्रतीत होती थी। यह कोई छिटपुट आतंकी हरकत नहीं थी, यह एक जाल था—गहरा, फैला हुआ, और खूनी इरादों से भरा हुआ। आतंकियों की दो-दो की टीमें अलग-अलग राज्यों तक पहुंच चुकी थीं, जिन्हें बस इंतजार था उस एक दिन का, उस एक आदेश का, जिस पर 32 कारें 32 शहरों को एक साथ राख कर देतीं।
कल्पना कीजिए—अगर यह सब घटित हुआ होता। भारत की सड़कें कटे हुए तारों जैसी छटपटातीं, अस्पताल अपने ही आघात में दम घुटते हुए देखते, और देश की सांसें एक अनसुने डर में अटक जातीं। हम सब कह देते—“काश इस साजिश का पता पहले चल जाता।” लेकिन सौभाग्य से, इस बार भारत ने समय रहते उस कयामत का दरवाजा बंद कर दिया। अगर जांच कुछ दिन और भटक जाती, अगर एक सुराग छूट जाता, अगर एक टीम बचकर रह जाती—तो आज भारत वही देश नहीं होता जिसे हम जानते हैं।
लाल किला ब्लास्ट कोई सामान्य वारदात नहीं थी। उसने हमें दिखा दिया कि आतंक का असली खतरा सीमा पार से नहीं, बल्कि उन परछाइयों से है जो हमारी रोज की जिंदगी के बीच खड़ी रहती हैं—कभी कार बनकर, कभी सामान बनकर, कभी एक खोखली चुप्पी बनकर। यह घटना हमें याद दिलाती है कि हमारी सुरक्षा सिर्फ सेना की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हर नागरिक की जागरूकता और हर एजेंसी की सूक्ष्म दृष्टि पर टिकी है।
यह साजिश भारत को डराना चाहती थी, लेकिन इसके उजागर होने ने भारत को जगाया है। और अब सवाल सिर्फ एक है—क्या देश इस चेतावनी को समझेगा, या किसी बड़े हादसे की आवाज़ ही हमारी नींदें खोलेगी?
