
दैनिक इंडिया न्यूज़, लखनऊ। विकास नगर क्षेत्र के विनायक पुरम स्थित एक पार्क में आज आध्यात्मिक चेतना का महाकुंभ उमड़ पड़ा। व्यास पीठ पर दिव्य कथा का अमृतपान जन सेवा कल्याण समिति के अध्यक्ष श्री स्वामी सत्येंद्र कृष्ण शास्त्री जी के श्रीमुख से हुआ।

स्वामी जी ने जब भागवत के दशम स्कंध के उस परम पावन प्रसंग का उद्घाटन किया, तो पूरे वातावरण में एक अद्भुत शांति छा गई। कथा की शुरुआत कंस के उस लोहे के कारागार से हुई—जो केवल दीवारें नहीं थीं, बल्कि अहंकार और भय का मूर्त रूप थीं। महंत जी ने समझाया कि जैसे देवकी और वासुदेव राजवैभव के उत्तराधिकारी होते हुए भी उस कारागार में बंधे थे, वैसे ही हम मनुष्य अपनी कामनाओं और बंधनों के कारण स्वयं को एक अदृश्य जेल में बंद कर लेते हैं। हर क्षण मृत्यु का भय, हर सांस गिनती की — यही सांसारिक जीवन का प्रतीक है।

और फिर, जब भाद्रपद की अष्टमी की मध्यरात्रि आई, नियति मौन हो गई और उसी क्षण हुआ वह दैवीय चमत्कार। महंत जी ने भावविभोर होकर बताया कि उस क्षण स्वयं भगवान की योगमाया सक्रिय हुई। जो द्वारपाल कभी सोते नहीं थे, वे अचेतन निद्रा में चले गए। आकाश से देवताओं ने पुष्पवर्षा की, गंधर्वों ने स्तुति गान किया, और काल भी थम गया। उस कारागार में दिव्य तेज फैला — वह “सच्चिदानंद” का प्रकटीकरण था। महंत जी ने कहा, यह क्षण बताता है कि बंधन में भी आत्मा मुक्त और शुद्ध रहती है। जब सच्चे हृदय से शरणागति होती है, तो संसार के सभी बंधन शिथिल हो जाते हैं — यही ईश्वर की अनंत महिमा है।

कथा का अगला प्रसंग था यात्रा का रहस्य — वासुदेव का अपने नवजात पुत्र को लेकर यमुना पार गोकुल जाना। सत्येंद्र शास्त्री जी ने इस प्रसंग का आध्यात्मिक अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा कि मथुरा ज्ञान और कर्म की भूमि है, जबकि गोकुल प्रेम और आनंद का धाम। वासुदेव का यमुना पार करना हमारी चेतना के परिवर्तन का प्रतीक है — जब तक ‘मैं और मेरा’ (कंस) का अहंकार जीवित है, तब तक संघर्ष रहेगा। लेकिन जब हम प्रेम और भक्ति को स्वीकार कर लेते हैं, तब यमुना भी शांत होकर मार्ग देती है, क्योंकि जिसे हमने उठाया है, वही सम्पूर्ण ब्रह्मांड का नियंता है।
कथा का सार बताते हुए सतेंद्र कृष्ण शास्त्री जी ने कहा — “श्रीकृष्ण का जन्म केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक प्रतिज्ञा है — यह विश्वास कि सबसे गहरे अंधकार (कारागार) में भी मुक्ति (कृष्ण) का मार्ग सदैव खुला रहता है।”
कथा के समापन पर पूरा पांडाल “नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की” के जयघोष से गूंज उठा। श्रद्धालु केवल कथा नहीं सुन रहे थे, वे स्वयं के भीतर मुक्ति और प्रेम के उस शाश्वत सत्य को अनुभव कर रहे थे।
