“24 कुंडीय महायज्ञ की अग्नि, 24,000 दीपों का आलोक—लखनऊ में प्रज्ञा-जागरण का नवयुग आरंभ, मातृशक्ति ने थामी अध्यात्म-परिवर्तन की ध्वजा”

दैनिक इंडिया न्यूज़, लखनऊ।राजधानी लखनऊ आज वैदिक आलोक से ऐसा नहाया कि प्रतीत हुआ मानो अध्यात्म का नया सूर्योदय इसी धरा पर हो रहा हो। कुर्सी रोड स्थित गायत्री शक्तिपीठ में संचालक डॉ. ए. पी. शुक्ल के मार्गदर्शन और शांतिकुंज, हरिद्वार से पधारी ब्रह्मवादिनी टोली के सान्निध्य में 24 कुंडीय गायत्री महायज्ञ का वैदिक-विधान से शुभारंभ हुआ। अग्निहोत्र की प्रखर ज्वालाएँ, वेदमंत्रों की गूंज और श्रद्धा से दी गई आहुतियों ने ऐसा पवित्र वातावरण निर्मित किया कि पूरा परिसर ऋतम्भरा चेतना से अनुप्राणित हो उठा।

इस पावन अवसर पर यह घोषणा भी की गई कि बंदनीय माता भगवती देवी शर्मा का शताब्दी वर्ष तथा अखंड दीप प्रज्वलन की शताब्दी (1926–2026) अगले वर्ष शांतिकुंज में अत्यंत गरिमामय, उत्साहपूर्ण और ऐतिहासिक रूप से मनाया जाएगा। लखनऊ का यह 24 कुंडीय महायज्ञ उन महाशताब्दी पर्वों की पूर्वभूमि की तरह रहा, जिसने विश्व-चेतना में प्रज्ञा-जागरण की आधारशिला रखी।

यज्ञ-मंडप में सम्पन्न यज्ञोपवीत, दीक्षा, नामकरण और जन्मोत्सव जैसे संस्कार मात्र धार्मिक अनुष्ठान नहीं थे, बल्कि जीवन के हर चरण को पवित्रता और चरित्र-निर्माण के तेज से आलोकित करने वाली सनातन परंपरा के जीवंत स्तंभ थे। मंच से इनके महत्व का गंभीर प्रतिपादन किया गया, जिसने यह संदेश स्पष्ट किया कि भारतीय संस्कृति की पुनर्स्थापना बाह्य आडंबर में नहीं, बल्कि आत्म-शुद्धि, मन-परिष्कार और जीवन के नैतिक उत्थान में निहित है। संस्कारों की इस दिव्य धारा ने उपस्थित जनमानस को भीतर तक प्रभावित किया।

मीडिया-संवाद में डॉ. ए. पी. शुक्ल ने गायत्री महामंत्र को “मानसिक, प्राणिक और आध्यात्मिक ऊर्जा का महा-बीज” बताते हुए कहा कि 24 कुंडीय महायज्ञ का मर्म—२४ गुणों का उद्भासन, २४ दुष्प्रवृत्तियों का परिमार्जन और २४ दिव्य प्रेरणाओं का आह्वान—इसी में निहित है। उनके शब्दों में, “यज्ञ मनोरंजन नहीं, बल्कि मन, प्राण और आत्मा को अनुशासित करने का महान विज्ञान है, जो मनुष्य को भीतर से रूपांतरित करता है।”

संध्या में मातृशक्ति के नेतृत्व में घर-घर से संकलित पाँच-पाँच दीपों से 24,000 दीपों का भव्य दीप-महायज्ञ सम्पन्न हुआ। जब हजारों दीपों की रौशनी एक साथ आकाश की ओर उठी और गायत्री महामंत्र की गूँज वातावरण में प्रतिध्वनित हुई, तब ऐसा लगा मानो अंधकार की हर परत प्रकाश के आगे स्वयं समर्पित हो रही हो। यह दीप-समुद्र केवल दृश्य कौतुक नहीं था, बल्कि अज्ञान, अवसाद, अहंकार और तमस के विनाश का सामूहिक संकल्प था, जिसे मातृशक्ति ने अपने तेज, करुणा और सामर्थ्य से सुदृढ़ बनाया।

डॉ. शुक्ल ने इस सहस्र-प्रदीप अनुष्ठान को “दिव्य प्रकाश के वैश्विक पुनर्जागरण का प्रथम संकेत” बताते हुए कहा, “जब मनुष्य अपने अंतःकरण के तम को मिटा देता है, तभी उसके बाह्य संसार में प्रकाश प्रतिष्ठित होता है।”

अंततः यह समूचा आयोजन केवल एक यज्ञ का विधान न रहकर मानवता के आध्यात्मिक उत्थान का महाआह्वान बनकर सामने आया। इसमें वह सामर्थ्य निहित है, जो न केवल लखनऊ, बल्कि सम्पूर्ण विश्व को नवचेतना, प्रज्ञा और दिव्य आलोक की दिशा में अग्रसर कर सकता है।

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