
देवोत्थान के साथ आरंभ होती है शुभता की नई बेला
दैनिक इंडिया न्यूज़, लखनऊ।राष्ट्रीय सनातन महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष जितेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि हरि प्रबोधिनी एकादशी केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा को झंकृत करने वाला अद्भुत पर्व है। यह वह पावन क्षण होता है जब भगवान विष्णु चार महीने की योगनिद्रा से जागृत होकर सृष्टि के पुनः संचालन का कार्य आरंभ करते हैं। इस जागरण के साथ ही धरती पर शुभता, पवित्रता और पुण्य का नया अध्याय खुलता है। श्री सिंह ने कहा कि इसी दिन से विवाह, मांगलिक कार्य और धर्मकर्मों की शुभ शुरुआत मानी जाती है।
उन्होंने बताया कि देवोत्थान एकादशी का अर्थ ही है — देवता का जागरण, और इस जागरण के साथ पूरी सृष्टि में नई ऊर्जा और चेतना का संचार होता है। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि जैसे भगवान विष्णु ब्रह्मांड की व्यवस्था को पुनः संभालने के लिए जागते हैं, वैसे ही मनुष्य को भी अपने भीतर के अज्ञान, अहंकार और मोह की निद्रा से जागकर धर्म, कर्तव्य और सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए। यही सच्चा आत्मजागरण है, जो जीवन को सार्थक बनाता है।
जितेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि सनातन संस्कृति की यही विशेषता है कि वह केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षण को धर्म और कर्तव्य से जोड़ती है। हरि प्रबोधिनी एकादशी के दिन उपवास, भजन, कीर्तन, दान और सेवा का विशेष महत्व बताया गया है। यह दिन हमें सिखाता है कि ईश्वर का सच्चा जागरण तभी पूर्ण होता है जब मनुष्य भी अपनी आत्मा के भीतर सोए हुए सद्गुणों को जागृत करे।
उन्होंने कहा कि इस एकादशी का संदेश समस्त राष्ट्र के लिए है — जब तक मनुष्य अपने भीतर की नींद से नहीं जागेगा, तब तक समाज और राष्ट्र का जागरण अधूरा रहेगा। भगवान विष्णु के इस जागरण का अर्थ केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय और मानवीय भी है। यह हमें आत्मबल, संयम और सेवा की भावना से ओतप्रोत होकर देश और समाज के निर्माण में योगदान देने की प्रेरणा देता है।
अंत में श्री सिंह ने कहा कि हरि प्रबोधिनी एकादशी मानव जीवन की दिशा तय करने वाला पर्व है। इस दिन का व्रत और स्मरण हमें यह विश्वास दिलाता है कि जब मनुष्य भक्ति और कर्तव्य के संग चलने लगता है, तब ही राष्ट्र की चेतना भी जाग्रत होती है। उन्होंने सभी देशवासियों से आह्वान किया कि इस एकादशी को केवल पूजा के रूप में नहीं, बल्कि आत्मिक नवजागरण और सनातन मूल्यों के पुनर्स्मरण के रूप में मनाएँ — यही सच्चे अर्थों में हरि प्रबोधिनी का संदेश है।
